
लुटेरे गजनवी का मान-मर्दन करने वाले—राजा संग्राम राज
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विभूतियों के स्वामी की चित्त वृत्तियां कुमार्ग पर चल पड़ीं तो सर्व नाश उपस्थित हो गया। वह स्वयं न जीवन भर चैन से सोया न करोड़ों को उसने चैन की नींद सोने दिया। उसने भौतिक सम्पदा से सुख पाना चाहा। ज्यों-ज्यों धन मिलता गया त्यों-त्यों उसकी भूख बढ़ती गई। उसका दीन ईमान केवल पैसा रह गया। पैसे के भूखे हजारों नर पशुओं की विशाल वाहिनी सजा कर वह एशिया भर में लूट मचाने लगा। जिधर उसका रुख फिर जाता उधर कितने ही गांव श्मशान बन जाते, जीवन मृत्यु में और मुस्कान आंसू में बदल जाती।
गजनी का यह दुर्दान्त दैत्य-लुटेरा महमूद गजनवी सत्रह बार भारत वर्ष में लूट मार करने आया। कई बार वह अकूल धन सम्पदा लूट कर ले गया। उसकी इस सफलता का अर्थ यह नहीं था कि भारत में सभी मिट्टी के पुतले ही रहते थे। वीरता तथा युद्ध कौशल में भारतीय नरेश उससे कम नहीं थे न कायर ही थे। ऐसे नर रत्नों की कमी नहीं थी जिन्होंने उसके एक बार नहीं तीन तीन बार दांत खट्टे किये थे। उसे पराजय का मुंह ही नहीं देखना पड़ा वरन् जान बचा कर भागना पड़ा था। ऐसे ही पराक्रमी राजाओं में काश्मीर के राजा संग्राम राज का नाम अग्रणी है।
राजा क्षेम गुप्त की मृत्यु के पश्चात् काश्मीर राज्य के सिंहासन पर रानी दिद्दा बैठी। रानी वीरता, शौर्य, प्रबंध कौशल, धैर्य जैसे अनेक गुणों की स्वामिनी थी। उसने आजीवन काश्मीर के शासन को सुव्यवस्थित रूप से चलाया। मनुष्य में हजार गुणों के साथ एक अवगुण हो तो वह सब पर पानी फेर देता है। उसकी कीर्ति कलंक उस कालिमा से धूमिल हो जाती है। रानी दिद्दा का चरित्र शिथिल था। कामुकता के घृणित दोष के कारण वह निंदा की पात्र ही नहीं बनी वरन् वह ऐसे दुष्कर्म भी कर बैठीं जो मां होकर कोई नहीं कर सकती। वह पतन के मार्ग पर चल कर इतनी नीचे गिरी कि उसने अपने पुत्रों तथा पौत्रों का वध करवा दिया।
चार दिन की जवानी के बाद बुढ़ापा आया। मृग तृष्णा की तरह मन की हविस तो ज्यों की त्यों थी। भला आग में घी डालने से कभी वह बुझी है? संयम हीन जीवन कभी सुख का हेतु नहीं होता। उसने अपने पिछले जीवन का सिंहावलोकन किया तो उसके पापों के पहाड़ के नीचे अपनी आत्मा को सिसकते पाया। अपनी भूलों पर वह फूट-फूट कर रोयी। अब क्या हो सकता था। उत्तराधिकारी के लिए उसे अपने भाई उदयराज के आगे झोली फैलानी पड़ी।
राजा उदयराज के कई पुत्र थे। उनमें से एक को उसे अपना उत्तराधिकारी चुनना था। सब राजकुमारों को उसने अपने यहां बुलाया तथा उनकी परीक्षा ली। एक सेबों से भरा टोकरा उसने उन राजकुमारों के बीच रखा तथा कहा कि जो सबसे अधिक सेब लेकर उसके पास आयेगा उसी को वह अपना उत्तराधिकारी चुनेगी। शेष सब राजकुमार अधिक सेब लेने के लिये लड़ने लगे। संग्राम राज चुप-चाप खड़ा रहा। वे लड़ने में व्यस्त थे कि मौका देख कर वह सबसे ज्यादा सेब उठा कर रानी के पास जा पहुंचा।
संग्राम राज युवराज घोषित किया गया। युवराज बन जाना एक बात थी और उसकी पात्रता उत्पन्न करना दूसरी बात। संग्राम राज ने एक योग्य राजा की पात्रता विकसित करना आरम्भ कर दिया। वह युद्ध कला, आसन प्रबंध, नीतिशास्त्र, धर्म शास्त्र आदि विद्याओं में पारंगत हो गया।
1003 में रानी दिद्दा की मृत्यु हो गयी। संग्राम राज सिंहासनारूढ़ हुए। काश्मीर राज्य की स्थिति उस समय बड़ी शिथिल हो चली थी। प्रजा की श्रद्धा रानी की चरित्रहीनता के कारण शिथिल हो चुकी थीं। सेनापति तुंग योग्य साहसी तथा प्रचण्ड योद्धा था। परन्तु उसे स्वयं पर बड़ा गर्व था साथ ही वह भी रानी दिद्दा की तरह ही शिथिल चरित्र कामुक था। इसके विरुद्ध प्रजा में असंतोष उमड़ रहा था।
इन्हीं दिनों गजनी के लुटेरे दैत्य महमूद गजनवी के आक्रमण होने आरम्भ हो गये थे। वह दो बार पंजाब को पदाक्रांत कर चुका था। राजा जयपाल अपनी हार से इतना दुखित हुआ कि उसने आत्म-हत्या कर ली। महमूद के आक्रमण का काश्मीर राज्य को भी भय था। सारा उत्तर भारत संगठन के अभाव में भयाक्रांत हो रहा था जिसकी लहर काश्मीर तक पहुंच चुकी थी।
इन विकट परिस्थितियों में राज सिंहासन कांटों की सेज बना हुआ था। इस कांटों की सेज को संग्राम राज ने अंगीकार किया। उसने धीरज से काम लिया। राज्य में शांति बनाये रखने के लिये उसने प्रजा के प्रतिनिधियों को अपने पास बुलाकर उनसे मंत्रणा की। वे तुंग को सेनापति पद से हटाना चाहते थे। राजा संग्राम राज अपनी बुआ को वचन दे चुका था कि वह तुंग का कोई अनिष्ट नहीं होने देगा। पर प्रजा के सच्चे आग्रह को उसने स्वीकार कर के तुंग को सेनापति के पद से हटा दिया। उसने वचन नहीं विवेक का ध्यान रखा तथा प्रजा को सुशासन दिया।
प्रजा पर उन दिनों ब्राह्मण वर्ग का प्रभुत्व था। ब्राह्मण के हाथों में होना आवश्यक भी है किन्तु जब जाति का आधार कर्म न रहकर जन्म मान लिया तब समाज में विश्रृंखलता आना आरम्भ हो गया। ये तथाकथित ब्राह्मण संग्राम राज के लिये सिर दर्द बन गये। उन्होंने पदच्युत सेनापति तुंग के महल में एक ब्राह्मण का दाह कर्म करने का प्रपंच रचा। राज कलश इन सिरफिरों का नेता था। उसने यह निर्णय दिया। मृतक तुंग के अत्याचारों से मरा है अतः उसे उसके महल में ही जलाया जायेगा।’’ जनता इन तथाकथित धर्म के ठेकेदारों से आतंकित थी। संग्राम राज ने देखा कि पानी अब सिर से ऊपर चढ़ आया है। प्रजा उसके पक्ष में थी। उसने इन प्रपंच रचने वालों को पकड़ कर यह कुकृत्य बन्द कराया।
1009 में महमूद फिर पंजाब पर चढ़ आया था। राजा अनंग पाल ने उसका मुकाबला किया तथा उसे पीछे हटने को विवश कर दिया। अनंगपाल की विजय निश्चित थी पर उसका हाथी बिगड़ गया जिसका परिणाम यह हुआ कि वह हार गयी। महमूद ने जी भर कर लूट मचाई, गांव जलाये, मंदिर तोड़े।
यह खबर जब काश्मीर पहुंची तो संग्राम राज बहुत दुखित हुए। उन्होंने संकल्प लिया कि अब जब भी वह पंजाब पर आक्रमण करेगा काश्मीर उसकी जी-जान से सहायता करेगा। राज्य में आंतरिक विग्रह नहीं उठ खड़े होते तो वह भारत के सब राजाओं को एक सूत्र में पिरो कर अपने राष्ट्र के धर्म तथा संस्कृति की रक्षा के लिये एक सुदृढ़ दीवार खड़ी करेगा। उन्होंने अन्य राजाओं के पास अपने दूत भी भेजे। उन दूतों ने उन्हें यही संदेश दिया कि व्यक्तिगत मिथ्याभिमान से ऊपर उठकर हम संगठित होकर ही इस प्रकार के आक्रमणकारियों को सबक सिखा सकते हैं।
शासन सूत्र ग्रहण करते ही संग्राम राज ने अपनी सेवा को सुव्यवस्थित किया, दुर्गों की मरम्मत करवाई तथा सेना वृद्धि की। नियमित अभ्यास प्रशिक्षण की व्यवस्था बनाई।
उनका विश्वास था कि मनुष्य में सद्मार्ग पर चलने की स्वाभाविक इच्छा होती है। यदि इस प्रवृत्ति को निरंतर पुष्ट किया जाता रहे तो मनुष्य ऊंचाइयों के शिखर पर चढ़ता जाता है। इसमें ढिलाई बर्तने पर बिना मांजे बर्तन की तरह वह मैला भले ही हो जाय पर उसकी वह वृत्ति मरती नहीं है। इस विश्वास के कारण ही वह सेनापति तुंग तथा महारानी दिद्दा को अपने अनुकूल चला सका था। तुंग को अपदस्थ करने पर भी उसके प्रति संग्राम राज के व्यवहार तथा आत्मीयता में कोई कमी नहीं आयी तथा तुंग उसका विरोधी नहीं बना।
1014 में महमूद गजनवी फिर पंजाब पर चढ़ आया। उस समय अनंगपाल का पुत्र त्रिलोचनपाल वहां का शासक था। संग्राम राज ने तुंग के नेतृत्व में एक विशाल सेना उसकी सहायता के लिये भिजवा दी। दोनों सम्मिलित सेनाएं जब उस लुटेरे से भिड़ीं तो उसे छटी का दूध याद आ गया। वह इन वीरों का मुकाबला नहीं कर पाया। तुंग ने अपने पापों का प्रायश्चित कर इस युद्ध में वीर गति पाई। महमूद के पांव उखड़ गये।
लुटेरों के न कोई नीति होती है न कोई मर्यादा। वह कुछ समय के लिये पीछे हट गया काश्मीर की सेना के लौटते ही असावधान त्रिलोचनपाल पर चढ़ बैठा। जिसका परिणाम यह हुआ कि त्रिलोचनपाल हारा और उसे काश्मीर में संग्राम राज के संरक्षण में आना पड़ा।
गजनवी काश्मीर पर पहले ही दांत पीस रहा था। वह चोट खाये सांप की तरह भयानक हो उठा था। वह तोषी नदी को पार करके काश्मीर की ओर बढ़ा। उसे क्या पता था कि वहां संग्राम राज उसकी प्रतिक्षा में ही बैठा है। अब तक उसका शूरवीरों से तो पाला पड़ा था पर एक चरित्र-बल सम्पन्न विवेकवान शूरमा से भिड़ने का यह प्रथम अवसर था।
एक समय इसी पथ से चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत आया था। ह्वेन सांग आत्मा की प्यास, ज्ञान की भूख से प्रेरित होकर आया था। भारतीय सभ्यता, संस्कृति तथा आत्म विज्ञान को पाकर वह धन्य हो गया। अमीर कहलाने वाला यह डाकू धन की प्यास लेकर आया और जीवन भर अतृप्ति की आग में झुलसता रहा। अन्त समय उसे अपनी भूल ज्ञात हुई तथा उसने उसे स्वीकार किया। अपने खाली हाथ उसने जनाजे के बाहर रखवाए ताकि ऐसी भूल फिर कोई न करे।
संग्राम राज तथा त्रिलोचन पाल दोनों अपनी सेना सहित लोहर के दुर्ग में पहुंच गये तथा मोर्चेबंदी कर ली। लोहर का अजेय दुर्ग सामयिक महत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण था। यही नाका था जहां से काश्मीर में प्रवेश होता था। इस दर्रे को पार करके पूंछ घाटी में प्रवेश किया जाता था।
ज्यों ही गजनवी की विशाल लुटेरों की भीड़-बहुत बड़ी सेना किले के पास आयी। भारतीय वीरों के बाणों की भीषण वर्षा ने उसका रास्ता रोक दिया गया। दो महीने तक यह सेना आगे न बढ़ सकी। फिर ठंड का मौसम आ गया। काश्मीर की घाटियां बर्फ से जम गयीं और गजनवी चूहे दानी में फंस गया।
उसे भूखे प्यासे आधी से अधिक सेना गंवाकर वापस लौटना पड़ा। लौटते तुर्कों पर भारतीय सिंह झपट पड़े और उन्हें पीर पंजान तक खदेड़ आये जहां मृत्यु उनके लिये आंखें बिछाए बैठी थी। बड़ी कठिनाई से गजनवी अपना सा मुंह लेकर खाली झोली अपनी राजधानी को लौट सका।
गजनी जाकर फिर उसने लुटेरों की एक सेना इकट्ठी की। सोने की चिड़िया भारत वर्ष आकर लूटने के लिए भूखे नंगे बर्बरों की कमी क्या थी फिर 1021 में वह कश्मीर पर चढ़ आया। इस बार इसने पूरी तैयारी के साथ काश्मीर पर आक्रमण किया। उसकी राह वही पुरानी राह थी कोषा पार करके फिर लोहर दुर्ग को जीतने के सपने सजाये वह आ पहुंचा। इस बार भी उसे हार खानी पड़ी तथा खाली हाथ अपनी सेना गंवाकर भाग खड़ा होना पड़ा। इस बार घेरा पूरे सात महीने तक चला। फिर ठंड और भूख ने गजनवी की तीन चौथाई सेना को लील लिया।
यही नहीं संग्राम राज अन्य अरबों के आक्रमणों के समय भी चट्टान बनकर भारत की सीमा पर अड़ा रहा। अपने देश, धर्म संस्कृति की रक्षा के लिये उसने अपना पूरा जीवन अर्पित कर दिया। इस प्रकार के व्यापक प्रयत्न यदि अत्याचारी, लुटेरों तथा अन्यायियों के विरुद्ध होते रहें तो वे कभी सिर उठाने का साहस नहीं कर सकते। राजा संग्राम राज ने ठेठ ‘सिंधु में’ जाकर अरबों के विरुद्ध युद्ध किया तथा उन्हें वापस खदेड़ा।
इतिहास साक्षी है कि कुमार्ग पर चलने वाले महमूद की सफलता का कारण उसकी शक्ति नहीं थी। उसकी सफलता के कारण थे भारतीय राजाओं की आपसी फूट तथा उनका अहंकार। संग्राम राज के आवाज देने पर कोई साथी नहीं आये। इससे वह निराश नहीं हुआ। अकेले ही लड़े। लड़े ही नहीं उसे तीन बार पराजित करके खदेड़ा। आदर्शों के पथ पर कर्तव्य तथा लोकमंगल व राष्ट्र की रक्षार्थ अकेले भी उनकी तरह लड़ा जा सकता है तथा जय पायी जा सकती है।