
गायकों के नायक—युग-गायक बंकिम चन्द्र
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24 परगना की एक जन सभा में एक गीत गाया जा रहा है।
वन्दे मातरम्।
सुजलाम् सुफलाम् मलयज शीतलाम्
शस्य श्यामलाम् मातरम् । वन्दे मातरम् ।
शुभ्र ज्योत्सनाम् पुलकित यामिनीम्
फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभनाम्
सुखदाम् वरदाम् मातरम् । वन्दे मातरम् ।
गीत समाप्त हुआ उस समय श्रोतागण मन्त्र मुग्ध थे। यह प्रथम अवसर था जब किसी कवि ने देश प्रेम के भाव जाग्रत करने वाला गीत गाया हो वह भी तब जब देश में अंग्रेज अपनी नीवें जमा रहे थे।
यद्यपि धार्मिक आध्यात्मिक पदों वाले गीतों की रचनाएं उस समय भी हो रही थीं, ऐसे गीत जन-जीवन में परमार्थ भाव जाग्रत रखने के लिये आवश्यक भी थे पर कलाकार का कर्तव्य इससे भी महान् है। देश और समाज की जीर्ण शीर्ण परम्पराओं, बुराइयों को तीखी नजर से ढूंढ़ने और उनके प्रति घृणा उत्पन्न करने का कार्य कलाकार ही कर सकता है पर यह तभी सम्भव है जब उसकी निज की प्रतिभा मन की मांग को नहीं युग की मांग को पूरा करने में तत्पर हो?
यह गीत गाने वाले गायक ऐसे ही थे। उन बंकिमचन्द्र को कौन नहीं जानता, जिनका ऊपर गाया गीत बाद में स्वाधीनता संग्राम का ‘प्रेरणा गीत’ बना और आज भी उसे सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त है।
बाबू बंकिमचन्द्र का जन्म 27 जून 1838 में पश्चिम बंगाल के 24 परगना जिले के अन्तर्गत ग्राम अन्ताल पाड़ा में हुआ था। इनके पिता श्री यादवेन्द्र चटर्जी स्वयं प्रगति शील विचारों वाले व्यक्ति थे। उन्हीं का प्रभाव था जो पुत्र भी बाल्यावस्था से ही प्रगति शीलता की दिशा में मुड़ चला। ढर्रे की जिन्दगी वहीं तक अच्छी है जहां तक जातीय जीवन की प्रतिभा का वर्चस्व नष्ट न हो। पर जब परम्पराएं विकृत हो जायें और उससे जाति के जीवन की तेजस्विता समाप्त होने लगे तो परम्पराओं को बदलकर युग धर्म की स्थापना से ही राष्ट्र को बल मिलता है।
बंकिम बाबू का जीवन एक साहित्यकार का जीवन है जो पाश्चात्य शिक्षा संस्कृति का निष्णात तो है पर उसकी भावनाओं में भारत माता का प्रेम और अपने धर्म व दर्शन के प्रति अटूट निष्ठा का भाव है। यही भाव उनके उपन्यासों और काव्य में मुखरित हुआ और उसने देश को एक नया प्रकाश दिया।
शिक्षा दीक्षा के बाद वे डिप्टी कलक्टर नियुक्त हो गये, पर उनकी अंगरेजों की नौकरी दासता नहीं प्रशासन की जिम्मेदारी थी। उसका प्रमाण इसी बात से मिलता है कि खुलना जिले के खूनी डकैती से भिड़ने के लिये जब अवसर आता तो अन्य सरकारी अफसर छुट्टियों की अर्जी भेजते लेकिन श्री बंकिम बाबू को जब एक बार इस बात का पता चला तो वे स्वेच्छा से आगे बढ़कर इस काम को अपने हाथ में लिया और जीवन को संकट में डालकर उनका सफाया किया। उनकी श्रेष्ठ प्रशासनिक सेवाओं के लिये सरकार ने राय बहादुर की उपाधि दी। इतना होते हुए भी उन्होंने अपने आपको सच्चा देश भक्त ही सिद्ध किया अपने युग कर्तव्य के रूप में वे अपने साहित्य द्वारा देश प्रेम, संस्कृति निष्ठा जाति के उत्थान के भाव ही भरते रहे।
युग को असाधारण मोड़ देने का कार्य कलाकार करते हैं। पत्रकार, संगीतज्ञ, चित्रकार, कवि अपनी-अपनी कलाओं का उद्देश्य यदि राष्ट्र जागरण बना लें तो आंधी तूफान की तरह भागकर कुरीतियों और अन्ध विश्वासों के सामन्तवादिता और नृशंसतावाद के, वासना विकास और अर्थ लोलुपता के खोखले पेड़ों को बात की बात में ढाया जा सकता है। किन्तु यदि साहित्यक की कमल बिक जाये और वह पूर्ण ग्रहों से समझौता करले जैसा कि इन दिनों हो रहा है तो स्वतन्त्र चिन्तन गतिशील ही नहीं हो सकता। कला चाहे वह काव्य हो, संगीत या अभिनय, जब बिक जाता है तो उसकी सारी तेजस्विता नष्ट हो जाती है जैसा कि आज देखा जा सकता है। एक ओर देश में वैयक्तिक अनैतिकता, और सामाजिक भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। मर्यादाएं भंग हो चलीं, देश खोखला हो चला दूसरी और प्रतिभाएं स्वतः कुमार्गगामी होकर जनमानस को विकार ग्रस्त बना रहीं हैं ऐसे समय बंकिमबाबू एक आदर्श हैं और उनका जीवन दर्शन एक प्रेरणा देता है कि कलाकारों को इतना जागरूक होना चाहिए, वैयक्तिक लाभ के लिए प्रतिभा को अवांछनीयता के हाथों बेच नहीं देना चाहिए।
बंकिमचन्द्र सरकारी कार्यकर्ता तो थे पर उनने अपनी आत्मा को नहीं बेचा था। अर्थोपार्जन ही उनका उद्देश्य होता तो वे अंग्रेजियत के प्रशस्ति गान लिखते पर उनकी वन्देमातरम् रचना, दुर्गेशनन्दिनी, कपाल कुण्डला, ‘कृष्णकान्त की वसीयत’ आनन्द मठ, आदि उपन्यासों में देश जाति, समाज और धर्म को ऊंचा उठाने वाले विचार ही भरे पड़े हैं जो आज भी लोगों को प्रेरणाएं दिये बिना नहीं रहते। सच तो यह है कि पिछले दिनों हुए स्वाधीनता संग्राम को जितनी प्रेरणा उनके साहित्य से मिली विरले ही साहित्यकारों से उतनी प्रेरणा मिली होगी।