
पचास का काम अकेले करने वाले—बिनोद कानून गो
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सन् 1942 में एक युवक ‘स्वतंत्रता आन्दोलन’ में पकड़कर जेल में ठूंस दिया गया। जेल की चहार दीवारी में रहना कुछ दिन तो युवक को बड़ा अखरा। इस प्रकार अमूल्य समय को व्यर्थ गंवा देना उसे बड़ा बुरा लग रहा था। उसने अपने जीवन में एक महत्वपूर्ण काम करने का बचपन में निश्चय किया था। वह निश्चय था उड़िया भाषा का एक विशाल शब्द कोष तैयार करना।
उसने विचार किया कि क्यों न शुभ काम को शीघ्र ही आरम्भ कर दिया जाय। जीवन काल तो थोड़ा सा होता है। किसी महत्वपूर्ण कार्य को करने के लिये जितनी शीघ्रता की जाय उतना ही उत्तम है। उसने अपने शब्द कोष का निर्माण करने का निश्चय कर लिया।
राजनैतिक कैदी होते हुए भी युवक को राजनैतिक कैदी की सभी सुविधायें उपलब्ध नहीं थीं। उसने अपने साथियों को अपना विचार बताया। वे इस युवक की हंसी उड़ाने लगे। भला जेल में भी इस प्रकार का काम किया जा सकता है? जिसमें विश्व की महत्वपूर्ण जानकारी दी जा रही हो उसके सूत्र यहां एकत्रित कैसे किये जा सकते हैं?
उसने देखा कि ये लोग तो मेरे इस कार्य में सहयोग नहीं दे सकेंगे। उसके अन्तःकरण से आवाज आई कि पगले सहयोगियों की परवाह करने वाले भला कोई महत्वपूर्ण कार्य कैसे कर पायेंगे? महात्मा ईसा ने जब अपना कार्य आरम्भ किया था तो उन्हें सहयोग मिलना तो दूर उनका विरोध किया गया। विरोध ही नहीं उन्हें मृत्यु दण्ड दिया गया था। तुझे भी यदि कुछ करना है तो सहयोग की आशा त्याग दे।
युवक ने देखा कि सहयोग स्वेच्छा से कोई देगा नहीं सहयोग मुझे पाना है उसके लिए राह खोजनी पड़ेगी। उसे राह मिल भी गयी। उसने अपने साथ वाले राजनैतिक बंदियों को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी। सभी ने मिलकर राजनैतिक बन्दियों को दी जाने वाली सुविधाओं के लिये अनशन किया। युवक इस अनशन में सबसे आगे रहा। उनके सत्याग्रह के आगे जेल के अधिकारियों को झुकना पड़ा।
यह युवक बड़ा आत्म-विश्वासी था। उसका नाम था विनोद कानून गो। उसने जेल से छूटने की प्रतिक्षा नहीं की। अपनी तैयारी यही आरंभ कर दी। अब उसके लिए यह जेल, जेल न रही थी एक अध्ययन शाला व चिंतन शाला बन गई। वह यहां अध्ययन करता, चिंतन करता, मनन करता और अपने भावी कार्यक्रम की रूप रेखा बनाता। यही जेल में उसने पूरी योजना बना ली। विश्व के कितने खण्ड होंगे, कैसा आकार होगा, कितनी सामग्री प्रस्तुत की जायेगी। अब उसका शरीर भले ही सींखचों में बन्द था पर मन तो सारे विश्व का भ्रमण करके एक महान कृति में सजाने की तैयारी करता रहा। जो भी उपयुक्त सामग्री मिलती उसे भी एकत्रित करता रहा।
जेल से छूट कर 1914 में इन्होंने इस विश्वकोष का सम्पादन आरम्भ किया। ‘ज्ञानमंडल’ नामक इस शब्दकोष में 17000 पृष्ठ होंगे तथा 15000 चीजों के बारे में जानकारी इसमें दी जायेगी। प्रत्येक खण्ड का मूल्य 100 रुपये होगा और उसके कुल 75 खंड होंगे जिनका मूल्य 750 रुपये होगा।
जिनके पास किसी विश्व विद्यालय की कोई डिग्री नहीं। जिसके पास साहित्य जगत की कोई प्रसिद्ध नहीं। वह व्यक्ति इस प्रकार का कोई काम करना आरम्भ करता है उस समय उसका उपहास किया जाता है। उसे पागल तक कहा जाने लगता है इस प्रकार स्थिति का सामना विनोद कानून गो को भी करना पड़ा। उनके मित्रों ने सलाह दी कि इस प्रकार के असंभव कार्य को नहीं उठाना चाहिए। इसके लिए बड़ी-बड़ी संस्थायें भी साहस नहीं जुटा पातीं जिसमें कितने विद्वान कार्यकर्ता होते हैं, उनकी विद्वता की धाक सर्वत्र मानी जाती है। उसी काम को एक अकेला व्यक्ति कैसे कर पायेगा।
इस प्रकार के उपहासों को इन्होंने अपने लिये हितकर माना उन्होंने अपने काम को और भी सावधानी से करना आरंभ कर दिया। ज्यों-ज्यों इस कोष का सम्पादन करते गये, त्यों त्यों उनके ज्ञान की वृद्धि होने लगी। इस सम्पादन कार्य के साथ साथ स्वयं का लेखन कार्य भी आरम्भ कर दिया।
उड़िया भाषा में इन दिनों साहित्यकारों का अभाव सा था। इनकी रचनाओं ने इस कमी को भी दूर किया। इस प्रकार के साहित्य सृजन से उड़िया पाठक इनके नाम से परिचित होने लगे। इनके मित्रों को भी कुछ विश्वास हो चला कि इन्होंने जो काम हाथ में लिया है वह पूरा किया जाना इनके लिये असंभव नहीं है। इनका उपहास करने वालों को भी अब अपने पर लज्जा अनुभव होने लगी।
इतना बड़ा काम और एक अकेले व्यक्ति के द्वारा किया जाय, यह विश्व भर में पहला प्रयास है। जिस कोष का सम्पादन पचासों कार्यकर्ताओं वाली संस्था भी बड़ी कठिनाई से कर पाती हैं, उसे अकेले भी कानूनगो कर रहे हैं। इनके काम करने का तरीका ही ऐसा है कि जो कम समय तथा कम श्रम में हो सकने वाला है। एक बड़े कमरे में 10,000 फाइलों को बड़े करीने से सजा कर इन्होंने सारे विश्व की जानकारियां जमा कर रखी हैं। इनका अधिकांश समय इसी कक्ष में व्यतीत होता है।
यह कार्य पर्याप्त श्रम तथा समय देने से ही पूरा हो सकता है। इसके लिये विनोद काननूगो ने अपने समय का इस प्रकार से सदुपयोग किया है कि वे अपने दैनिक कार्यक्रमों के साथ-साथ अपना यह कोष सम्पादन का काम भी करते रहते हैं। जब विश्राम का समय होता है तो विश्राम करते-करते अध्ययन भी चालू रहता है। भोजन के समय भी उनका चिंतन कार्य चलता ही रहता है। एक-एक क्षण को उन्होंने इसी मिशन में खर्च किया है।
अब तक इस विशाल कोष के जो खण्ड प्रकाशित हुए हैं ये अपने ढंग के अनोखे सिद्ध हुए हैं। जिनकी प्रशंसा भी कम नहीं हुई है। जो इनकी सफलता के प्रति आश्वस्त न थे, वे अब आश्वस्त हो चुके हैं।
इनकी मान्यता है कि स्वतन्त्रता के साथ शान और स्वावलम्बन की शर्तें अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई हैं। ये तीनों एक दूसरे के पूरक हैं, स्वतन्त्रता पाने के लिये जो संग्राम था वह पूरा हो गया पर अब उससे लाभ उठाने के लिये और भी अधिक श्रम करना चाहिए। अब हम देश वासियों पर अधिक जिम्मेदारियां आ गई हैं। इन जिम्मेदारियों का निर्वाह वे इस समय 59 वर्ष की आयु में भी कर रहे हैं। वे न थकते हैं न रुकते हैं। उनका अधिकतम समय इसी प्रयोजन में जाता है।
केवल श्रम व समय ही नहीं अपने इस कार्य को सफल करने में उन्होंने अपना धन भी लगाया है। वे कहते हैं कि धन का सदुपयोग करने में ही उसकी सार्थकता है। धन मनुष्य का दास है स्वामी नहीं। जब हम उसे अपने लिये ही खर्च करने का दृष्टिकोण अपना लेते हैं तो वह हमारा स्वामी बन बैठता है। उन्होंने इस कार्य में अपने दो लाख रुपये लगाये जबकि सरकार ने इन्हें 25000 रुपये ही दिये हैं।
अब हमारे देश को ऐसे ही उदार व ज्ञान देवता के आराधकों की आवश्यकता है अधकचरे साहित्य लेखकों तथा जन साधारण के लिये इनका चरित्र सदैव अनुकरण की प्रेरणा देता रहेगा।