
प्रसिद्ध क्रान्तिकारी—कन्हाई लाल दत्त
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
गोरे जेलर ने देखा कि जिस युवक को कल फांसी दी जाने वाली है आज भी उसके चेहरे पर वही मनोहारी मुस्कान फूट रही है उसी आत्मीयता के साथ वह उसका अभिवादन कर रहा है। जिस दिन से यह कैदी इस जेल में आया है उसकी विचारणाओं में महान परिवर्तन आने लगा था। जब इस सुदर्शन युवक को फांसी की सजा सुनाई गई तो उसके हर्ष का पारावार न रहा। लम्बे बालों तथा चौड़े चेहरे वाले इस युवक को जेलर ने उस दिन पूछा था—‘‘तुम इतने प्रसन्न क्यों हो?’’ उसने आशा की थी कि वह राष्ट्र पर अपने बलिदान के सौभाग्य पर प्रसन्न होगा पर उस युवक ने इस आशा के विपरीत उत्तर दिया—‘‘मैं अगले जन्म की तैयारी में व्यस्त हूं और यही मेरी प्रसन्नता का कारण है।’’
जिज्ञासा जगा दी। वह इससे भारतीय संस्कृति का ज्ञान पाने लगा उसकी समझ में आ गया कि आत्मा जन्म मरण से परे है। युवक अगले जन्म की तैयारी में लगा है। इन दोनों में परस्पर घनिष्ठता बढ़ती गयी।
मृत्यु के एक दिन पहले भी उसकी पूर्ववत मुस्कान देखकर जेलर ने पूछा—‘‘आज तो हंस रहे हो कल तुम्हारे यही मुस्कराते होठ मृत्यु की कलिमा से काले पड़ जायेंगे।’’ युवक ने कहा कुछ नहीं उसी तरह मुस्कराता रहा। जेलर का हृदय इस जिंदादिल युवक के विछोह की कल्पना से भर आया। यह युवक थे स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर बलिदान होने वाले प्रसिद्ध क्रान्तिकारी कन्हाई लाल दत्त। जिन्हें अलीपुर कांड के सिलसिले में फांसी दी गई थी। जेल की कोठरी में भी इनका वजन 15 पौण्ड बढ़ गया था। फांसी के बाद जेलर ने इनका चेहरा देखा। उस पर वही अमर मुस्कान बिखरी हुई थी। मृत्यु की कालिमा का कोई चिन्ह इस वीर के शरीर पर नहीं था। होता भी कैसे उनके लिए तो मृत्यु आत्मा के वस्त्र परिवर्तन की प्रक्रिया थी।
कन्हाई लाल दत्त का जन्म कलकत्ता के निकट चन्द्र नगर में 1887 में हुआ था। जन्माष्टमी के दिन जन्म लेने के कारण इनके माता पिता ने इनका नाम कन्हाई लाल रख दिया। परिवार की स्थिति सामान्य थी। पिता इनके पढ़ाई का खर्च नहीं जुटा पाते थे। पिता की इस विवशता को कन्हाई स्वयं जानते थे। उन्होंने पिता का भार नहीं बढ़ाया। अपने पावों पर खड़े होकर इन्होंने कलकत्ता विश्व विद्यालय से बी.ए. किया। ट्यूशन तथा छोटी-मोटी नौकरियां करके इन्होंने अपनी शिक्षा पूरी की। सच है जहां चाह है वहां राह तो निकल ही आती है।
पढ़ाई पूरी करके ये स्वतन्त्र व्यवसाय करने की सोच रहे थे। व्यवसाय के लिए धन चाहिए था जो इनके पास नहीं था। अंग्रेजों की नौकरी ये करना नहीं चाहते थे। अन्तःकरण से आवाज आयी ‘‘कन्हाई तू अपने पेट की चिन्ता कर रहा है और भारत के करोड़ों नागरिक दासता की चक्की में पिसे जा रहे हैं। तेरी यह जवानी किस दिन काम आयेगी। इसे सफल बना—देश के लिए कुछ कर।’ इस आवाज को सुनकर उन्होंने स्वतन्त्रता लाने का व्यवसाय आरम्भ कर दिया।
क्रांतिकारियों से इनकी भेंट हुई। 19 वर्ष की अल्पायु में ही इन्होंने चन्द्र नगर में देशभक्तों की एक शाखा स्थापित की। बम बनाने की कला सीखने के लिए आप मानिकतल्ला बाग के बम कारखाने में आने-जाने लगे। पुलिस तथा जासूसों को इस कारखाने का पता नहीं था। किसी देश-द्रोही ने अपने थोड़े से लाभ के लिए इस कारखाने की सूचना सरकार को देने की नीचता की। भेद खुल गया। इस स्थान पर छापा मारा गया जिसमें 34 व्यक्ति गिरफ्तार हुए। कन्हाई लाल भी उनमें से एक थे।
जेल की चहार दीवारी में बन्द होने पर भी न तो ये लोग निष्क्रिय बैठे रहे और न इनकी गिरफ्तारी पर क्रान्ति का काम रुका। इनका स्थान अन्य लोगों ने ले लिया। इस केस के सरकारी वकील को फरवरी 1908 में क्रांतिकारियों ने हत्या कर दी। दिन दहाड़े अदालत में डी.एस.पी. को खत्म कर दिया। हत्या करना क्रांतिकारियों का उद्देश्य नहीं था। इस माध्यम से वे विदेशी शासकों को बता देना चाहते थे कि यह आग इन गिरफ्तारियों से बुझने वाली नहीं है। और भी जोर से भड़केगी जिसमें यह साम्राज्य जल कर स्वाहा हो जायगा।
इस क्रान्ति दल का एक कमजोर आदमी जो मृत्यु के भय से कांप गया तथा प्रलोभन में पड़कर सरकारी गवाह बन गया। यह व्यक्ति था नरेन गोसांई। विदेशी शासक अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए कुछ भी करते हैं पर एक भारतीय का इस प्रकार का विश्वासघात असह्य था। इस एक की गद्दारी ने अन्य देशभक्तों की मान-मर्यादा तथा सदुद्देश्य को भी आंच पहुंचाई। कन्हाई लाल तथा सत्येन्द्र ने इस देश द्रोही को सजा देने की ठान ली।
इनके उद्देश्य को जानकर अन्य बुजुर्ग क्रान्तिकारियों ने इन युवकों का उत्साह बढ़ाने की बजाय इन्हें हतोत्साह किया। किन्तु ये दोनों अपने निश्चय पर अटल थे। अन्य लोगों का असहमत होना निराधार भी नहीं था। जेल में रहते हुए पिस्तौल पा लेना तथा नरेन के पास पहुंचना नितांत असंभव था। किन्तु दृढ़ इच्छा शक्ति तथा बौद्धिक कौशल के बल पर इन दोनों ने इस असम्भव को सम्भव बना दिया।
इनके पास रिवाल्वर कैसे पहुंचे। यह अभी तक रहस्य के पर्दों में छिपा है। किन्तु यह सत्य है कि इन्होंने किसी प्रकार दो रिवाल्वर प्राप्त कर लिए। बहुत सम्भव है खाने के लिए जो मछली तथा कटहल आदि आते थे उनमें छिपाकर यह इन तक पहुंचाई गई हो। रिवाल्वर मिल जाने पर आधी सफलता तो हाथ लग गई।
नरेन सरकारी गवाह हो जाने के कारण इन लोगों से दूर एक अस्पताल में रखा गया था। उस तक पहुंचना भी टेढ़ी खीर था। सत्येन्द्र ने खांसी का मरीज बनकर अस्पताल की शरण ली तथा कन्हाई ने पेट दर्द का बहाना बनाकर। पहले सत्येन्द्र पहुंचा उसके कई दिनों बाद कन्हाई लाल। कन्हाई ने अस्पताल पहुंचते ही जोर-जोर से कराहना-चिल्लाना आरम्भ किया। यह सत्येन्द्र का अपने आगमन की सूचना देने का संकेत था।
दोनों ने बीमारी का अभिनय इस खूबी से किया कि किसी ने इन पर सन्देह नहीं किया। सत्येन्द्र ने अपने आपको जीवन से निराश प्रकट किया तथा मुखबिर बनने की इच्छा प्रकट की। नरेन से मिलने की इच्छा प्रकट करने पर नरेन तथा एक जेल का अफसर इससे मिलने का लोभ संवरण न कर पाये। दोनों इनसे मिलने पहुंचे। नरेन को देखते ही सत्येन्द्र ने रिवाल्वर से फायर किया पर गाली नरेन के पांव में लगी। नरेन भाग खड़ा हुआ। अन्य मरीजों ने देखा कि दिन रात खाट तोड़ने वाला पेट का मरीज शेर की तरह उछला व लपक कर नरेन के पीछे भागा। यह देखते ही कन्हाई लाल ने सारी गोलियां इसी देश द्रोही पर समाप्त कर दीं। वह धराशायी हो गया।
यह समाचार बिजली की तरह सारे कलकत्ता में फैल गया। कन्हाई लाल के इस साहस पर नवयुवकों में उत्साह की एक लहर दौड़ पड़ी। वे भी कमर कसकर आन्दोलन में भाग लेने को उठ खड़े हुए। जो अपने व्यक्तिगत स्वार्थ में ही लिपटे पड़े थे। इस काण्ड ने उन्हें झकझोर कर खड़ा कर दिया। भारतीय जनता में उत्साह का संचार हो गया। सुरेंद्र नाथ बनर्जी जैसे नेताओं ने यह समाचार सुनते ही मिठाई बांटी।
अंग्रेजी हुकूमत की यह बहुत बड़ी हार थी। उसकी जेल में रहने वाले क्रान्तिकारी ऐसा काम कर जायं। उनके पिट्ठू को जेल अधिकारी के सामने गोलियों से छलनी कर दें। वह भी किसी छोटे-मोटे स्थान पर नहीं कलकत्ता जैसे बड़े नगर में जहां अंग्रेजी साम्राज्य की नींव पड़ी थी। सत्ता के मुंह पर इससे बड़ा तमाचा और क्या हो सकता था?
धरती तो आज भी वही है। देशवासी भी बदले नहीं। पर आज कुर्बानी, वह देश भक्ति, वह आदर्श एक सपना बनकर रह गया है। हर आदमी ने अपना पेट इतना बड़ा कर लिया है—अपना स्वार्थ ही सब कुछ मान लिया है। उसी संकुचित दृष्टिकोण को अपनाकर नीति अनीति का भेद किये बिना अपना घर भरने की हीन वृत्ति से ग्रस्त होकर राष्ट्र के हित ही बात सोच नहीं पाते। वह दिन दूर नहीं जब इस धरा पर फिर कन्हाई लाल उत्पन्न होंगे तथा स्वार्थ के पुतले नरेन को सबक सिखाकर ही छोड़ेंगे।
कन्हाई लाल के इस दुस्साहस पर विदेशी साम्राज्यवादी बौखला उठे। मुकदमे की रस्म अदायगी पूरी हुई। फांसी से अधिक और क्या दे सकती थी यह हुकूमत दोनों को फांसी की सजा सुनाई गयी। 10-11-1908 के दिन इन दोनों को फांसी की सजा दे दी गयी।
फांसी के बाद शहीद का शव लेने के लिए उनके भाई तथा परिवार के अन्य व्यक्ति जेल पहुंचे। शोक से सभी की छाती फटी जा रही थी। बड़े भाई की रुलाई नहीं रुक पा रही थी। गोरे जेलर ने उनकी पीठ थपथपाते हुए कहा—‘‘आप रोते क्यों हैं जिस देश में ऐसे वीर पैदा होते हैं। वह देश धन्य है। मरेंगे तो सभी अमर होकर कौन आया है पर आपके भाई जैसे भाग्यवान कितने होते हैं?’’ उन्होंने विस्मय से देखा गोरा अधिकारी स्वयं रो रहा था। जैसे उसका अपना भाई दिवंगत हो गया हो। कांपते हाथों से शव के मुख पर से कम्बल हटाया तो देखा कन्हाई इन रोने वालों पर हंस रहे थे। एक अमर मुस्कान उनके होठों से फूट रही थी।
कौन कहता है कि यह शहीद गुलाम रहा था। जिसने एक पल भी विदेशी हुकूमत को नहीं माना। अपने क्षुद्र स्वार्थों का गुलाम वह बना नहीं। जेल की दीवार उसके संकल्प को बांध नहीं पायी। फांसी की सजा उसका चैन नहीं छीन पायी। मृत्यु के विकराल हाथ उसकी मुस्कान नहीं छीन पाये। जिसे अंग्रेजी हुकूमत ने एक हत्यारा कहा पर देशवासियों ने उसे शहीद का गौरव प्रदान किया। शान से उसकी शव यात्रा निकाली गई। हजारों की संख्या में लोग एकत्रित हुए। पंच भूत शरीर की राख को लोगों ने लूट लिया अपने मस्तक पर लगाने के लिये।
यह सम्मान, यह विजयश्री तथा यह श्रद्धा किसी-किसी को ही मिलती है। जो आदर्शों के पथ पर चलते हैं वे ही यह सब पा सकते हैं। इस पर कुबेर का कोष व विश्व का साम्राज्य भी न्यौछावर किया जा सकता है। कन्हाई लाल दत्त ने अपनी अन्तःप्रेरणा को अनसुनी नहीं की, उठ खड़े हुए तो सफल हो गई उनकी जवानी। आज देश में कितने ही युवक बेकार फिरते हैं। क्या वे अपनी इस जवानी को समझ पाये? यदि समझ पाये होते तो आज देश की यह दशा नहीं होती। अनाचार और अनैतिकता इस प्रकार बढ़ी-चढ़ी न होती।
कन्हाई लाल दत्त अपनी भरी जवानी में अपने कर्तव्य पथ पर चलते हुए शहीद हो गये। उनकी मुस्कान सदा यह कहती—बताती रही—‘‘अन्याय चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो उसका प्रतिकार करने का साहस न करना अपने मानवीय कर्तव्यों की उपेक्षा करना है। अन्याय का अन्धकार चाहे कितना ही सघन क्यों न हो एक आदर्शवादी व्यक्ति उसे मिटाने के लिए दीपक की तरह जले तो प्रकाश होकर ही रहेगा।’’ हमें आजादी मुफ्त में नहीं मिली। अनेकानेक देश भक्तों के रक्त से इस स्वतन्त्रता का विनिमय हुआ। स्वतन्त्र भारत की उन्होंने ऐसी कल्पना तो नहीं की थी जैसी आज हम देख रहे हैं। इन देश भक्तों के प्रति हमारे हृदय में तनिक भी श्रद्धा है—उसका जीवन वृत पढ़ कर हमारे हृदय में तनिक भी हलचल होती है—आंखें में दो अश्रु छलक आते हैं तो अन्तःकरण की आवाज-आत्मा की पुकार को सुनकर श्रेय पथ पर चलना होगा। सर्वनाशी विभीषिकाओं से जूझने तथा नवसृजन के लिए हमें अपने जीवन नियोजित करना ही होगा।