
क्रान्तिकारी जीवन के मार्गदर्शक—सोहनसिंह
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अण्डमान की जेल में काले पानी की सजा प्राप्त एक कैदी आया। उसने वीर सावरकर के साहसिक कार्यों की ख्याति बहुत पहले से सुन रखी थी। वह भी इसी जेल में थे। नया कैदी उन्हें खोजता खोजना उस स्थान तक जा पहुंचा जहां सावरकर तेल का कोल्हू चला रहे थे एक हवलदार बगल में कोड़ा लिये खड़ा था—बीच-बीच में उन्हें दो-चार गालियां और तेज और तेज चलने का आदेश झाड़ रहा था।
नये कैदी को अपनी यातना पर रोते देख सावरकर मुस्करा दिये। एक क्षण रुककर बोले—बावले! लगता है तू कच्चा क्रान्तिकारी है मेरी मुसीबत से घबड़ा गया तो अपनी झटक कैसे झेलेगा। दोस्त क्रान्ति शूरवीरों का बाना है। उसके लिये साहस और हिम्मत चाहिये, धैर्य चाहिये केवल मात्र त्याग-बलिदान का भावावेश ही पर्याप्त नहीं—लम्बे समय तक संघर्ष और कष्ट सहिष्णुता का अभ्यास चाहिये।
कैदी ने आंसू पोंछ डाले, थोड़ा सा मुस्कराया—मानो उसने क्रांतिकारी का संदेश अक्षर-ब-अक्षर आत्म सात कर लिया और अपनी दुर्बलता को सदैव-सदैव के लिये मन से निकाल दिया। वीर सावरकर की शिक्षायें उसके लिये जीवन मंत्र बन गयीं। और उन्हीं को आदर्श बनाकर वह जीवन भर कठिनाइयों से संघर्ष करता रहा है।
क्रांतिकारी चाहे वह राजनैतिक हो या सामाजिक उसका जीवन किस प्रकार होना चाहिये इस आदर्श का व्यवहारिक मार्ग दर्शन देने वाला यह कैदी और कोई नहीं गदर पार्टी के संस्थापक सरदार सोहनसिंह थे। सोहनसिंह का जन्म पंजाब के अमृतसर जिले के ग्राम भकना में सन् 1870 में हुआ था। एक निष्काम कर्मयोगी की भांति वह 26 वर्ष तक लगातार अण्डमान तथा लाहौर आदि की जेलों में यातनायें सहते रहे इसके बावजूद भी वे अपने उद्देश्य से कभी विचलित न होकर यह सिद्ध कर गये कि महान् उद्देश्यों की पूर्ति के लिये संघर्ष करने वालों की निष्ठा इतनी प्रगाढ़ होनी चाहिये कि एक जन्म में ही नहीं लक्ष्य सिद्धि के लिये कई जन्मों तक अनवरत जूझते रहने की बाकायदा हिम्मत रख सके।
सरदार सोहनसिंह का यथार्थ जीवन 39 वर्ष से प्रारम्भ होता है वे अपने इतने लम्बे जीवन काल पर पश्चाताप करते हुए कहा करते यदि मैंने समय के महत्व को पहले समझा होता तो 40 वर्ष में तो न जाने कितनी उपलब्धियां अर्जित करली होतीं, ‘‘जब समझ आई तभी से सही’’ कहावत के अनुसार वे एक क्षण का विलम्ब किये बिना काम में जुट गये। 1909 में जब वह अमरीका में एक आरा मिल में काम करते थे, एक अमेरिकन ने उन्हें बुरी तरह से डांट मारी उस समय उन्हें ज्ञान हुआ कि पैसे की कीमत दुनिया में नगण्य है सबसे पहली वस्तु है व्यक्ति का आत्माभिमान और उसकी रक्षा के लिये सबसे पहली वस्तु है राष्ट्रीय स्वाधीनता, दासता चाहे वह राजनैतिक हो या बौद्धिक व्यक्ति को आत्महीनता की स्थिति के धकेलती है ऐसा व्यक्ति जीवन में कभी उन्नति नहीं कर सकता है। उन्नति के लिये चिन्तन उन्मुक्त होना चाहिये। चिन्तन उन्मुक्त तभी हो सकता है जब अपनी बौद्धिक क्षमताओं को योजना बद्ध काम करने के लिये वातावरण बाधक न हो पर पराधीनता में तो न अपना शरीर साथी न मन सभी दूसरों की इच्छा पर आधारित। इस स्थिति में उन्हें तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार देश की राजनैतिक स्वाधीनता ही अपने जीवन का प्रमुख लक्ष्य दिखाई दी। इसी उद्देश्य से उन्होंने सर्व प्रथम गदर पार्टी की स्थापना अमेरिका में की और वहां के भारतीयों को संगठित किया।
संगठन में बड़ी शक्ति होती है। एक आदमी अधिक से अधिक 200 पौण्ड वजन का हो सकता है पर यदि सौ सौ पौण्ड के पांच आदमी भी मिल जाते हैं तो वजन 500 पौण्ड हो जाता है। दो हमेशा एक से दो गुने होते हैं। अनेक भारतीय मिले तो अनेक तरह के साधनों का एकत्रीकरण हुआ। बात की बात में काफी धन और शस्त्र इकट्ठे हो गये। निश्चय किया गया कि इन शस्त्रास्त्रों को लेकर भारत चला जाये वहां ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध सशस्त्र क्रान्ति खड़ी कर दी जाये।
इस निश्चय को क्रियान्वित भी किया गया किन्तु दुर्भाग्य से जहाज कामा गाटा गारू जिस पर अस्त्र-शस्त्र लादकर कलकत्ता लाये गये थे, खूफिया भेद के कारण कलकत्ते में पकड़ लिया गया और उसका शस्त्रास्त्र तथा स्वाधीनता सैनिक बन्दी बना लिये गये। श्री सोहनसिंह को भी कैदकर मुल्तान भेज दिया गया। उन्हें लाहौर षड़यन्त्र काण्ड का दोषी ठहराकर गोरी हुकूमत ने फांसी की सजा सुना दी पीछे अपील पर यह सजा आजीवन कारावास में बदल दी गई। सोहनसिंह इसी सजा को भुगतने अण्डमान भेजे गये जहां वीर सावरकर ने उन्हें कच्चे से पक्का क्रांतिकारी बना दिया। उन्होंने समझाया—क्रांतिकारी उसे कहते हैं जो पहले अच्छी प्रकार यह निश्चित कर लेता है कि देश जाति धर्म या संस्कृति के हित में अमुक योजना आवश्यक है उसे अपना धर्म समझ कर परा किया जाना मेरा कर्त्तव्य है। एक बार यह निश्चय हो गया फिर समय की कमी, साधनों का अभाव, बाल बच्चों का मोह, सुखों की ललक और मानापमान की चिंता जैसी बातों की ओर उसका ध्यान नहीं जाना चाहिये। फिर तो लक्ष्य सिद्धि ही उसका जीवन और मरण होना चाहिये।
सोहनसिंह ने इस बात को मन में पक्का कर लिया। थोड़े ही दिन पीछे स्वयं भी तेल निकालने वाले कोल्हू में जोत दिये गये। उनकी इस उमंग ने उनका सारा कष्ट मिटा दिया। आधे अधूरे मन वाला व्यक्ति होता तो इतनी सी बाधा ही उसे रास्ते से डिगाने को पर्याप्त हो जाती पर सोहनसिंह जिस गुरु का शिष्ट था वह स्वयं बाधाएं जान बूझकर आमन्त्रित करता और तूफान में खेलने के लिये मचलता फिर सोहनसिंह भला अपने मार्गदर्शक को लजाकर पाप का भागी क्यों बनता?
तेरह वर्षों की एक लम्बी जिन्दगी इस तरह चक्की पीसते कटी। सोहनसिंह के स्थान पर कोई दुर्बल मना व्यक्ति होता—कोई सन्तान के लिये रोने वाला, कर्ज की चिन्ता में डूबा हुआ, बेकारी के लिए दूसरों का मुंह ताकता हुआ, पारिवारिक सुख शान्ति के लिये देवताओं की आशा लगाता हुआ, स्वास्थ्य ठीक करने के लिए अपने जीवन क्रम को न सम्भाल कर स्याने दीवानों की बखाल साफ करता हुआ व्यक्ति होता तो 13 वर्ष के कठोर जेल-जीवन में मकोय के पत्तों की तरह सूखा हुआ बाहर निकलता पर सोहनसिंह ऐसे दुर्बल मनोबल वाला इंसान नहीं था। 13 वर्ष बाद उन्हें अण्डमान से लाहौर बदला गया कष्ट कुछ कम हुआ वे जानते थे कि ब्रिटिश हुकूमत की किसी भी इच्छा को न स्वीकार करने का अर्थ उससे भी कठिन यातना हो सकती है पर परिस्थितियों से भयभीत होना उन्होंने सीखा नहीं था, एक दिन उन्होंने जेल में कैदियों के साथ हो रहे अत्याचार के विरुद्ध अनशन कर दिया। आखिर सरकार झुकी, अत्याचार कम हुए उसी के साथ ही सरकार ने उन्हें सशर्त रिहा करने का भी प्रस्ताव किया पर उन्होंने साफ कह दिया—मेरा मन भारतीय है, मुझमें जातीय स्वाभिमान है मैं किसी की शर्तें मानने की अपेक्षा सच्चाई के लिए मर जाना श्रेयष्कर समझता हूं। आखिर यहां भी सरकार झुकी और उन्हें जेल से बिना शर्त मुक्त कर दिया गया।
जेल से बाहर आये—कुछ कुछ कमजोर मन वाले मित्रों ने समझाया अच्छा हुआ तू छूट गया सोहनसिंह चल घर बार सम्भाल आराम से रह? उनकी और एक तीक्ष्ण, क्रुद्ध दृष्टि डालते हुए सरदार ने कहा—‘‘देश और समाज बे इन्साफी की आग में जल रहे हों, समस्यायें खाये जा रही हों, विषमता की आग फैली हुई हो ऐसे समय केवल अपनी सुरक्षा सोचने वाले मूर्ख होते हैं। मैं मूर्ख हूं मुझे सुख नहीं चाहिये। मैं तो चाहता हूं देश जाति धर्म और संस्कृति को बाहरी या भीतरी शत्रुओं से पैदा जब भी भय हो मैं बार-बार जन्म लूं और दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध बार-बार संघर्ष करता रहूं।’’ वे घर में नहीं बैठे फिर कांग्रेस आंदोलन में कूदे और दो बार जेल गये।
जेल से छूटने पर उन्होंने देखा कि स्वतंत्रता की आग पूरी तेजी से फैल गई है पर गांव के अनपढ़ किसान अभी तक भी पिछड़े पड़े हैं तब उनने अपना ध्यान उस ओर लगाया। ठीक भी था विचारशील लोगों को परम्पराओं और सामयिक बहाव से भिन्न दिशा में सोचना ही चाहिये। उन्होंने आल इण्डिया किसान सभा में काम शुरू किया और ग्रामीण किसान—मजदूरों में नवचेतना भरने लगे। इस कारण 1939 में उन्हें फिर बन्दी बना लिया गया। इस तरह लगातार 65 वर्ष तक वे मृत्यु से संघर्ष करते रहे। उनका शरीर जर्जर पड़ गया किन्तु मन सोने की तरह तपा हुआ खरा निकल आया?
98 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ उस समय भी उनके चेहरे का तेज बता रहा था—‘‘बुढ्ढा मरकर दुबारा इसी मिट्टी में जन्म लेगा और देश के उत्थान में फिर से भागीदार बनना चाहता है। कौन जाने आज उनकी आत्मा फिर से जन्म लेकर इस देश के उत्थान की वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति से संलग्न हो क्योंकि गीता में भगवान कृष्ण ने स्वयं कहा है—अर्जुन अन्तिम समय जो जैसी इच्छा लेकर मरता है मैं उसकी पूर्ति अगले जन्म में निश्चय ही करता हूं?’’