
निर्भीक जन सेवक—श्री हीरालाल शास्त्री *******
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राजस्थान के प्रथम मुख्यमंत्री और भारतवर्ष की देसी रियासतों के जन-आन्दोलन के नेता पंडित हीरालाल शास्त्री की महत्ता केवल नेता के रूप में नहीं, अपितु अखिल भारतीय महत्त्व की महिला शिक्षण-संस्था वनस्थली विद्यापीठ के रूप में विशेष उल्लेखनीय है। वे आज भी 73 वर्ष की वृद्धावस्था में रचनात्मक कार्यों में दिन रात संलग्न रहते हैं।
शास्त्रीजी निरन्तर कार्य रत रहने में विश्वास करते हैं। वे मानते हैं कि हमें कल की फिक्र नहीं करनी चाहिए। कल आता ही नहीं है और जब आएगा, तब उसे आज बनकर ही आना होगा। 43 वर्षों तक जो व्यक्तित्व न केवल राजस्थान अपितु देश की अन्य रियासतों के जन-जीवन पर छाया रहा, वह व्यक्तित्व ओहदे के लिए ओहदा, भाषण के लिए भाषण लेखन के लिए लेखन और बात करने के लिये बात करना नहीं जानता। लेकिन आवश्यकता पड़ने पर समय की मांग पूरी करने में शास्त्री जी कभी पीछे नहीं रहते।
सन् 1898 में जोवनेर के एक किसान परिवार में जन्म लेकर और प्रतिभाशाली छात्र-जीवन बिता कर बहुत छोटी अवस्था में शास्त्री जी जब तत्कालीन जयपुर राज्य की सरकार के मुख्य मंत्री बन गए, तब वह एक चमत्कार हो गया था परन्तु इससे भी बड़ा विस्मय तब हुआ जब उन्होंने उस जमाने की हवा के रुख के विपरीत वह पद एकाएक छोड़ दिया। छोड़ा इसलिए कि उनकी अन्तरात्मा पिछड़े हुए दलित ग्राम वासियों की सेवा के लिए व्याकुल हो रही थी।
एक बहुत ही छोटे और पिछड़े हुए गांव वनस्थली में उन्होंने ग्रामोत्थान का अपना कार्यक्रम ‘जीवन-कुटीर’ की स्थापना से आरम्भ किया और वहां बैठकर दर्जनों रचनात्मक कार्यकर्ता तैयार किए। यह कार्यकर्ता मंडली ही आगे चलकर जयपुर राज्य प्रजामण्डल की अग्रसेना बनी।
शास्त्री जी ने अभी हाल में प्रकाशित अपनी जीवनी ‘प्रत्यक्ष जीवन शास्त्र’ में लिखा है कि—‘‘मेरी सत्ता से कभी जान-पहचान नहीं हुई कुछ न कुछ कर गुजरने की इच्छा ही मेरे लिए सत्ता है।’’
शास्त्री जी मानते हैं कि—‘‘आज देश में चारित्र्य और नेतृत्व का संकट है। ऐसे समय में बुराई को तटस्थ होकर देखते रहना उसमें शामिल होने के बराबर है।
शास्त्री जी अपनी बात के प्रति आग्रही हैं। वे स्पष्टवादी हैं और बिना किसी लाग-लपेट के बात करते हैं। जो उन्हें ठीक लगता है, वही कहते हैं और वही करते हैं। अपनी गलती स्वीकार कर लेने में भी उन्हें कोई झिझक नहीं होती।
स्वतंत्रता के बाद जयपुर में 1948 में हुआ प्रथम विराट कांग्रेस अधिवेशन उनकी संगठन और कर्तृत्व शक्ति का प्रतीक था। कुछ कर गुजरने की तमन्ना वाला व्यक्ति ही वैसे विशाल आयोजन की जिम्मेदारी ले सकता था।
उनके मुख्य-मन्त्रित्व काल में देशी रियासतों के संघ राज्यों पर केन्द्रीय सरकार का काफी नियन्त्रण रहता था पर बात चाहे पण्डित नेहरू की ओर से आए, चाहे सरदार पटेल की ओर से, यदि वह शास्त्री जी को उचित न प्रतीत हुई, तो उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि वैसा करना ठीक नहीं है और वह संभव भी नहीं हो सकता। फिर भी अपनी सचाई और निष्ठा के कारण वे पण्डित नेहरू और सरदार पटेल दोनों के ही अन्त तक निकट और विश्वास पात्र बने रहे।
हवा के रुख के विपरीत भी सही बात सोचने और कहने वाले इने-गिने लोगों में शास्त्रीजी की गिनती है। 1942 के ‘‘भारत छोड़ो’’ आन्दोलन में जब कतिपय रियासतों में राजाओं को अल्टिमेटम दे दिया गया, तब उन्होंने जयपुर राज्य प्रजा मण्डल के अध्यक्ष की हैसियत से जयपुर के महाराजा को अल्टीमेटम देना ठीक नहीं समझा। वे मानते थे कि असली लड़ाई तो अंग्रेजों से है और उसी आन्दोलन को सफल बनाने में हमें अपनी सारी शक्ति लगा देना चाहिए। उन्होंने राज्य-सरकार से एक असाधारण समझौता कर लिया, जिसके कारण राज्य में वैधानिक सुधार और बहुत से जनहित के काम सम्पन्न हो सके। साथ ही जयपुर सरकार युद्ध के लिए फौज में भर्ती न करने को तैयार हुई, अंग्रेजों के खिलाफ धन-जन की मदद में दखल न देने को तैयार हो गयी और जयपुर में युद्ध विरोधी प्रचार खुले आम होने देने से सहमत हो गयी। जेल से आने पर गांधी जी ने शास्त्री जी की कार्यवाही का अनुमोदन किया और उसे बहुत ठीक बताया।
शास्त्री जी ने ‘जीवन-कुटीर’ के काल में ही एक क्रान्तिकारी भारत का स्वप्न देखा था। उन्होंने उसकी कल्पना अपने एक गीत में की कि—‘‘महलों की टपरियां, टपरियों के महल, पहाड़ से मैदान और रेगिस्तान से हरा भरा देश बन रहा है। राजा घर बैठ जायेंगे और आज के निर्बल दिखाई देने वाले लोग शासक बन जायेंगे। वह सपना कुछ अंशों में साकार तो हुआ पर शास्त्री जी कहते हैं कि—‘‘सच्चे जन राज्य के लिए एक वास्तविक क्रान्ति होना अभी बाकी है। उसके लिए आज 73 वर्ष की उम्र में भी वे स्वाधीन ग्राम-स्वराज्य कायम करने के लिए दिन रात परिश्रम करते रहते हैं। उनकी जीवनयात्रा वास्तविक स्वराज्य अर्थात् लोक-राज्य और सुराज की स्थापना के लिए निरन्तर जारी है।