
सतहत्तर साल के नौजवान—दाताराम
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सन् 1938 का एक महत्वपूर्ण दिन—दाताराम को एक पुस्तक मिली ‘गीता-प्रवचन’। कोई कोई पुस्तक ऐसी महत्व की होती है कि पाठकों को सोचने की एक नई दिशा प्रदान करती है। उसका दृष्टिकोण बदल जाता है और ऐसा लगता है मानो किसी ने जादू कर दिया है।
वैसे दाताराम का परिवार धार्मिक विचारों का था। बचपन में ही उन्होंने अपने पिता तथा दादा के संसर्ग से रामायण, महाभारत, भागवत तथा गुरु ग्रन्थ साहेब आदि का अध्ययन कर लिया था, पर अब तक का सारा स्वाध्याय तोता रटन्त सरीखा था। ‘गीता-प्रवचन’ को पढ़ने के बाद उन्हें अपने जीवन में परिवर्तन मालूम पड़ने लगा।
दाताराम का जन्म सरगोधा के छोटा ग्राम में जो आज पश्चिमी पाकिस्तान में है, नवम्बर 1894 में एक व्यापारी परिवार में हुआ था। साधारण-सी शिक्षा प्राप्त कर वह 25 वर्ष की आयु में व्यापार का कार्य करने लगे। सन् 1946 में तो वह सरगोधा छोड़ कर कलकत्ता में बस गये और हैसियर बाजार तथा गनी बाजार में दलाली का कार्य करने लगे।
व्यक्ति जब आत्म-निरीक्षण करता है, अपने दोषों को मार भगाने का प्रयास करता है, तो साधारण सा मनुष्य असाधारण महत्व के कार्य सम्पन्न करने लगता है।
व्यापार में उन्हें दो तीन बार घाटा हुआ खौर लगभग 42 व्यक्तियों के कर्ज से वह लद गये। कानूनन उस कर्ज की रकम चुकाने से वह बरी थे। पर उनकी आत्मा ने पुकार कर कहा कि जिस व्यक्ति का ऋण लिया है उसका चुकाना चाहिये। और 1950 तक 20 हजार रुपये की तमादी रकम अपने ऋण दाताओं को वापिस कर दी।
दाताराम दलाली का तो कार्य कर ही रहे थे बचे हुये समय में सर्वोदय साहित्य का प्रचार करने लगे। विनोबा भावे से जब उनकी भेंट हुई तो विनोबा ने दाताराम को दो कार्य करने का परामर्श दिया। एक तो यह कि बिना पैसे लिये किसी को पुस्तक न दो, साथ ही यह भी देख लो कि उस पुस्तक को खरीद कर वह पढ़ता भी है अथवा उसकी पुस्तक पर धूल जमती रहती है। दूसरी बात यह कि रोज डायरी लिखो और समय समय पर हमारे पास भेजते रहो।
विनोबा की इन दोनों बातों को दाताराम ने गांठ में बांध लिया।
दाताराम की आय बढ़ती जा रही थी और एक दिन वह आयकर देने जितनी हो गई। उन्होंने सरकारी कानून को तोड़ना उचित नहीं समझा। क्योंकि उनकी दृष्टि में यह कर की चोरी थी। वह आयकर अधिकारी के पास पहुंचे उनकी बात को सुनकर वह अधिकारी चौंका, उसे लगा कि कोई पागल आ गया है। क्योंकि सारे व्यापारी आयकर के पचड़े में नहीं पड़ना चाहते। झूठे हिसाब किताब दिखाकर, और अधिकारियों को खिला पिला कर आयकर से बचने का प्रयास करते हैं, जब कि यह व्यक्ति अपनी ओर से कर जमा करने आया है। अधीनस्थ कर्मचारी तो दाताराम को देखकर मजाक करने लगे।
कमिश्नर ने कहा जैसा यह बताते हैं वैसा हिसाब नोट कर लिया जाय उसी हिसाब से इनसे आयकर ले लिया जाय। हिसाब करने पर 1400 रुपये आयकर के निकले और वह खुशी-खुशी से घर चले आये।
विनोबा भावे ने सम्पत्ति दान का आन्दोलन शुरू किया तो उसमें सहयोग देने में दाताराम पीछे न रहे उन्होंने उस आन्दोलन का महत्व समझा और नियमित रूप से अपनी आय का छठा हिस्सा देने लगे। दाताराम की सारी सम्पत्ति पाकिस्तान में छूट गई थी भारत सरकार के द्वारा उन्हें काफी जमीन सहारनपुर के पास मिली। उसका उपयोग उन्होंने अपने लिये न किया वरन् विनोबा जी सन् 1952 में जब मथुरा आये तो उन्हें भूदान में दे दी।
दाताराम अनुभव करने लगे कि सर्वोदय और भूदान आन्दोलन समाज में धन के वितरण की समान व्यवस्था करने वाले हैं। वर्ग संघर्ष का इस समाज में कोई प्रश्न ही नहीं उठेगा। क्योंकि यह शोषण मुक्ति आन्दोलन है फिर, उनकी दृष्टि अपने व्यवसाय की ओर गई। उन्हें अपना व्यवसाय शोषण युक्त लगा। फिर क्या था उन्होंने 1958 में अपना दलाली का धन्धा बिलकुल छोड़ दिया।
अब उनके पास केवल एक कार्य रह गया सर्वोदय-साहित्य का प्रचार। घड़ी के कांटे की तरह बिल्कुल नियमित रूप से पुस्तकों का झोला लेकर प्रचार प्रसार के लिये निकलने लगे। सर्दी, गर्मी या बरसात ने उनका मार्ग नहीं रोका। कलकत्ता के ईडेन गार्डन, विक्टोरिया मैमोरियल या मानुमेन्ट के पास एक सीधा-सादा खद्दर धारी व्यक्ति सर्वोदय की पुस्तकें फैलाये बैठा मिलेगा। बाल उसके सफेद हो गये हैं। चेहरे पर झुर्रियां आ गई हैं। पर उसके स्वभाव में इतनी मधुरता है कि यदि आप एक क्षण को रुक कर उन पुस्तकों पर दृष्टि डालेंगे तो वह अवश्य आकर्षित कर लेगा। और गांधी जी के सत्य, प्रेम और करुणा के संदेश को आपके सामने रखने लगेगा।
दिन हो या रात, सुबह हो या शाम उनका एक ही कार्यक्रम है, एक ही लगन है। सर्वोदय का साहित्य घर-घर पहुंचे। गांधी जी के संदेश को लोगों तक पहुंचाना ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया है। उनकी आयु इस समय 77 वर्ष है पर वह जवानों की तरह दौड़ कर कार्य करते हैं।
सन् 1965 में उनका स्वास्थ्य गिर गया। विनोबा भावे ने एक माह के लिये उन्हें बुलाकर अपने पास रखना चाहा पर वह इसलिए उनके पास नहीं गये कि वहां प्रचार करने का अवसर नहीं मिलेगा। विनोबा एक दम कुछ समय के लिये पूर्ण विश्राम करने की सलाह देंगे।
दाताराम के उत्साह में कमी नहीं आई, यह सदैव सर्वोदय के प्रचार प्रसार में लगे रहते हैं। बिना काम के उन्हें चैन नहीं पड़ता। बरसते पानी में झोला लेकर निकल पड़ते हैं और दस बीस रुपये का साहित्य बेचकर ही घर लौटते हैं। बिना काम किये भोजन करने में उन्हें आनन्द नहीं आता।
जब तक शरीर काम देता रहेगा तब तक सदैव कार्य करते रहने का उन्होंने संकल्प कर लिया है।
पैसा कमाना उनके जीवन का उद्देश्य नहीं है। पैसा वह बहुत कमा चुके हैं और अब पैसे की इच्छा ही नहीं रही। सद् साहित्य को घर घर पहुंचाने का कार्य वह अपने आनन्द के लिये करते हैं। एक बार विनोबा जी ने अपने प्रवचन में कहा था कि सुख बांटने से सुख बढ़ता है। अतः दाताराम घर-घर जाकर सुख बांटते हैं। वह जानते हैं कि इससे सुख में वृद्धि ही होगी कमी नहीं।
यदि युग निर्माण योजना के कार्य कर्ता दाताराम जी के जीवन से कुछ सीख सकें तो एक से दस के कार्यक्रम को पूर्ण होने में तनिक भी देर न लगे।