Recent Blogs

हमारी वसीयत और विरासत (भाग 65): प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण
एक दिन हम रात को 1 बजे के करीब ऊपर गए। लालटेन हाथ में थी। भागने वालों से रुकने के लिए कहा। वे रुक गए। हमने कहा— ‘‘आप बहुत दिन से इस घर में रहते आए हैं। ऐसा करें कि ऊपर की मंजिल के सात कमरों में आप लोग गुजारा करें। नीचे के आठ कमरों में हमारा काम चल जाएगा। इस प्रकार हम सब राजीनामा करके रहें। न आप लोग परेशान हों और न हमें हैरान होना पड़े।’’ किसी ने उत्तर नहीं दिया। खड़े जरूर रहे। दूसरे दिन से पूरा घटनाक्रम बदल गया। हमने अपनी ओर से समझौते का पालन किया और वे सभी उस बात पर सहमत हो गए। छत पर कभी-कभी चलने-फिरने जैसी आवाजें तो सुनी गईं, पर ऐसा उपद्रव न हुआ, जिससे हमारी नींद हराम होती; बच्चे डरते या काम में विघ्न पड़ता। घर में जो टूट-फूट थी, अपने पैसों से सँभलवा ली। ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका पुनः इसी घर से ...
.jpg)
हमारी वसीयत और विरासत (भाग 64): प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण
अब मथुरा जाने की तैयारी थी। एक बार दर्शन की दृष्टि से मथुरा देखा तो था, पर वहाँ किसी से परिचय न था। चलकर पहुँचा गया और ‘अखण्ड ज्योति’ प्रकाशन के लायक एक छोटा मकान किराए पर लेने का निश्चय किया।
मकानों की उन दिनों भी किल्लत थी। बहुत ढूँढ़ने के बाद भी आवश्यकता के अनुरूप मिल नहीं रहा था। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते घीया मंडी जा निकले। एक मकान खाली मिला। बहुत दिन से खाली पड़ा था। मालकिन एक बुढ़िया थी। किराया पूछा, तो उसने पंद्रह रुपया बताया और चाबी हाथ में थमा दी। भीतर घुसकर देखा, तो उसमें छोटे-बड़े कुल पंद्रह कमरे थे। था तो जीर्ण-शीर्ण पर एक रुपया कमरे के हिसाब से वह मँहगा किसी दृष्टि से न था। हमारे लिए काम-चलाऊ भी था। पसंद आ गया और एक महीने का किराया पेशगी पंद्रह रुपया हाथ पर रख दिए। बुढ़िया बहुत प्रसन्न थी।
घर ...

हमारी वसीयत और विरासत (भाग 63): प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण
जो आदेश हो रहा है, उसमें किसी प्रकार की त्रुटि नहीं रहने दी जाएगी। यह मैंने प्रथम मिलन की तरह उन्हें आश्वासन दे दिया। पर एक ही संदेह रहा कि इतने विशालकाय कार्य के लिए जो धनशक्ति और जनशक्ति की आवश्यकता पड़ेगी, उसकी पूर्ति कहाँ से होगी?
मन को पढ़ रहे गुरुदेव हँस पड़े। ‘‘इन साधनों के लिए चिंता की आवश्यकता नहीं है। जो तुम्हारे पास है, उसे बोना आरंभ करो। इसकी फसल सौ गुनी होकर पक जाएगी और जो काम सौंपे गए हैं, उन सभी के पूरा हो जाने का सुयोग बन जाएगा।’’ क्या हमारे पास है; उसे कैसे, कहाँ बोया जाना है और उसकी फसल कब, किस प्रकार पकेगी? यह जानकारी भी उनने दी।
जो उन्होंने कहा, उसकी हर बात गाँठ बाँध ली। भूलने का तो प्रश्न ही नहीं था। भूला तब जाता है, जब उपेक्षा होती है। सेनापति का आदेश सैनिक कहाँ भूलता है? ...
.jpg)
हमारी वसीयत और विरासत (भाग 62) प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण
“नैतिक क्रांति, बौद्धिक क्रांति और सामाजिक क्रांति संपन्न की जानी है। इसके लिए उपयुक्त व्यक्तियों का संग्रह करना और जो करना है, उससे संबंधित विचारों को व्यक्त करना अभी से आवश्यक है। इसलिए तुम अपना घर-गाँव छोड़कर मथुरा जाने की तैयारी करो। वहाँ एक छोटा घर लेकर एक मासिक पत्रिका आरंभ करो। साथ ही तीनों क्रांतियों के संबंध में आवश्यक जानकारी देने का प्रकाशन भी। अभी तुमसे इतना ही काम बन पड़ेगा। थोड़े ही दिन उपरांत तुम्हें दुर्वासा ऋषि की तपस्थली में मथुरा के समीप एक भव्य गायत्री मंदिर बनाना है; सहकर्मियों के आवागमन, निवास, ठहरने आदि के लिए। इसके उपरांत 24 महापुरश्चरण के पूरे हो जाने की पूर्णाहुतिस्वरूप एक महायज्ञ करना है। अनुष्ठानों की परंपरा जप के साथ यज्ञ करने की है। तुम्हारे 24 लक्ष के 24 अनुष्ठान ...

हमारी वसीयत और विरासत (भाग 61)— प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण
चर्चा एक से चल रही थी, पर निमंत्रण पहुँचते एक क्षण लगा और वे सभी एक-एक करके एकत्रित हो गए। निराशा गई; आशा बँधी और आगे का कार्यक्रम बना कि जो हम सब करते रहे हैं, उसका बीज एक खेत में बोया जाए और पौधशाला में एक पौध तैयार की जाए। उसके पौधे सर्वत्र लगेंगे और उद्यान लहलहाने लगेगा।
यह शान्तिकुञ्ज बनाने की योजना थी, जो हमें मथुरा के निर्धारित निवास के बाद पूरी करनी थी। गायत्री नगर बसने और ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान का ढाँचा खड़ा किए जाने की योजना भी विस्तार से समझाई गई। पूरे ध्यान से उसका एक-एक अक्षर हृदयपटल पर लिख लिया और निश्चय किया कि 24 लक्ष्य का पुरश्चरण पूरा होते ही इस कार्यक्रम की रूपरेखा बनेगी और चलेगी। निश्चय ही— अवश्य ही। और जिसे गुरुदेव का संरक्षण प्राप्त हो, वह असफल रहे, ऐसा हो ही नहीं सकता...

हमारी वसीयत और विरासत (भाग 60)— प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण
गुरुदेव के आदेश पर तो मैं यह भी कह सकता था कि, “जलती आग में जल मरूँगा। जो होना होगा, सो होता रहेगा। प्रतिज्ञा करने और उसे निभाने में प्राण की साक्षी देकर प्रण तो किया ही जा सकता है।” यह विचार मन में उठ रहे थे। गुरुदेव उन्हें पढ़ रहे थे। अब की बार मैंने देखा कि उनका चेहरा ब्रह्मकमल जैसा खिल गया।
दोनों स्तब्ध थे और प्रसन्न भी। पीछे लौट चलने और उन सभी ऋषियों से दुबारा मिलने का निश्चय हुआ, जिनसे कि अभी-अभी विगत रात्रि ही मिलकर आए थे। दुबारा हम लोगों को वापस आया हुआ देखकर उनमें से प्रत्येक बारी-बारी से प्रसन्न होता गया और आश्चर्यान्वित भी।
मैं तो हाथ जोड़े, सिर नवाए, मंत्रमुग्ध की तरह खड़ा रहा। गुरुदेव ने मेरी कामना, इच्छा और उमंग उन्हें परोक्षतः परावाणी में कह सुनाई और कहा— ‘‘यह निर्जीव नहीं है। जो...
.jpg)
हमारी वसीयत और विरासत (भाग 59)— प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण
गुरुदेव की आत्मा और हमारी आत्मा साथ-साथ चल रही थी। दोनों एकदूसरे को देख रहे थे। साथ में उनके चेहरे पर भी उदासी छाई हुई थी। हे भगवान! कैसा विषम समय आया कि किसी ऋषि का कोई उत्तराधिकारी नहीं उपजा। सबका वंशनाश हो गया। ऋषिप्रवृत्तियों में से एक भी सजीव नहीं दीखती। करोड़ों की संख्या में ब्राह्मण हैं और लाखों की संख्या में संत, पर उनमें से दस-बीस भी जीवित रहे होते, तो गांधी और बुद्ध की तरह गजब दिखाकर रख देते। पर अब क्या हो? कौन करें? किस बलबूते पर करें?
राजकुमारी की आँखों से आँसू टपकने पर और इतना कहने पर कि, ‘‘को वेदान् उद्धरस्यसि?’’ अर्थात— ‘‘वेदों का उद्धार कौन करेगा?’’ इसके उत्तर में कुमारिल भट्ट ने कहा था कि, ‘‘अभी एक कुमारिल भूतल पर है। इस प्रकार विलाप न करो।’’ तब एक कुमारिल भट्ट जीवित था। उसने...
_(1).jpg)
हमारी वसीयत और विरासत (भाग 58)— प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण
उत्तरकाशी में जैसा जमदग्नि का गुरुकुल आरण्यक था, जहाँ-तहाँ वैसे अनेकों ऋषि आश्रम संव्याप्त थे। शेष ऋषि अपने-अपने हिस्से की शोध-तपश्चर्याएँ करने में संलग्न रहते थे। देवताओं के स्थान वहाँ थे, जहाँ आजकल हम लोग अब रहते हैं। हिमयुग के उपरांत न केवल स्थान ही बदल गए, वरन् गतिविधियाँ बदलीं तो क्या, पूरी तरह समाप्त ही हो गईं; उनके चिह्न भर शेष रह गए हैं।
उत्तराखंड में जहाँ-तहाँ देवी-देवताओं के मंदिर तो बन गए हैं, ताकि उन पर धनराशि चढ़ती रहे और पुजारियों का गुजारा होता चले। पर इस बात को न कोई पूछने वाला है, न बताने वाला कि ऋषि कौन थे? कहाँ थे? क्या करते थे? उसका कोई चिह्न भी अब बाकी नहीं रहा। हम लोगों की दृष्टि में ऋषिपरंपरा की तो अब एक प्रकार से प्रलय ही हो गई।
लगभग यही बात उन बीसियों ऋषियों की ओर से ...

हमारी वसीयत और विरासत (भाग 57)— प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण
सतयुग के प्रायः सभी ऋषि सूक्ष्मशरीरों से उसी दुर्गम हिमालय-क्षेत्र में निवास करते आए हैं, जहाँ हमारा प्रथम साक्षात्कार हुआ था। स्थान नियत करने की दृष्टि से सभी ने अपने-अपने लिए एक-एक गुफा निर्धारित कर ली है। वैसे शरीरचर्या के लिए उन्हें स्थान नियत करने या साधन-सामग्री जुटाने की कोई आवश्यकता नहीं है, तो भी अपने-अपने निर्धारित क्रियाकलाप पूरे करने तथा आवश्यकतानुसार परस्पर मिलते-जुलते रहने के लिए सभी ने एक-एक स्थान नियत कर लिए हैं।
पहली यात्रा में हम उन्हें प्रणाम भर कर पाए थे। अब दूसरी यात्रा में गुरुदेव हमें एक-एक करके उनसे अलग-अलग भेंट कराने ले गए। परोक्ष रूप में आशीर्वाद मिला था। अब उनका संदेश सुनने की बारी थी। दीखने को वे हलके से प्रकाश-पुंज की तरह दीखते थे। पर जब अपना सूक्ष्मशरीर सही हो ग...
.jpeg)
हमारी वसीयत और विरासत (भाग 56)— प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण
पिछली बार जो तीन परीक्षाएँ ली थीं, इस बार इनमें से एक से भी पाला नहीं पड़ा। जो परीक्षा ली जा चुकी है, उसी को बार-बार लेने की आवश्यकता भी नहीं समझी गई। गंगोत्री तक का रास्ता ऐसा था, जिसके लिए किसी से पूछताछ नहीं करनी थी। गंगोत्री से गोमुख के 14 मील ही ऐसे हैं, जिसका रास्ता बरफ पिघलने के बाद हर साल बदल जाता है; चट्टानें टूट जाती हैं और इधर-से-उधर गिर पड़ती हैं। छोटे नाले भी चट्टानों से रास्ता रुक जाने के कारण अपना रास्ता इधर-से-उधर बदलते रहते हैं। नए वर्ष का रास्ता यों तो उस क्षेत्र से परिचित किसी जानकार को लेकर पूरा करना पड़ता था, या फिर अपनी विशेष बुद्धि का सहारा लेकर अनुमान के आधार पर बढ़ते और रुकावट आ जाने पर लौटकर दूसरा रास्ता खोजने का क्रम चलता रहा। इस प्रकार गोमुख जा पहुँचे।
आगे के लिए गुरु...