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Magazine - Year 1953 - Version 2

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प्रकृति के समीप रहिए।

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(श्री जगेश्वर नाथ खन्ना, फिरोजाबाद)

बड़े-बड़े विद्वानों का निश्चित मत है कि जीव जितना प्रकृति के समीप रहता है उतना ही स्वस्थ, शक्तिवान एवं प्राणवान रहता है। वस्तुतः इस मत की सत्यता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। नित्यप्रति के जीवन में ऐसे अनेक दृष्टान्त सम्मुख उपस्थित होते हैं जिनसे उक्त मत की पुष्टि होती है, पशु-पक्षियों का ही उदाहरण लीजिए। आज मनुष्य की अपेक्षा पशु-पक्षी कहीं अधिक बलिष्ठ दृष्टिगोचर होते हैं। यह दूसरी बात है कि अपनी बुद्धि एवं विवेक से चलकर मनुष्य उन पर अपना प्रभुत्व जमा सकने में सफल हो गया है। पशु-पक्षियों की अक्षय शक्ति और अहम्य साहस का भेद उनका प्रकृति के समीप का संबंध है। इन जीव-जन्तुओं में सर्दी और गर्मी की सहनशक्ति भी मनुष्य की अपेक्षा कहीं अधिक बलवती होती है। ऋतु के अनुसार ये अपने खान-पान व रहन-सहन में आवश्यक परिवर्तन करते रहते हैं। फलस्वरूप न इन्हें सर्दी सताती है न गर्मी परेशान करती है और न बरसात कष्ट पहुँचाती है।

किन्तु मानव में ऐसी अद्भुत एवं असीम शक्ति का पूरा अभाव है। आज का मनुष्य नवीन आविष्कारों एवं अनुसंधानों की अनेकतम सुविधाओं के फलस्वरूप पंगु सा बनकर कृत्रिमतापूर्ण जीवन व्यतीत करने का अभ्यस्त हो गया है। पुरातन इतिहास पर दृष्टि डालिये। प्राचीन भारत में ऋषि-मुनि अपना जीवन-यापन वनों की स्वच्छंद छाया में करते थे। भोग-विलास एवं सुख के विविध कृत्रिम साधन उन्हें उपलब्ध नहीं थे और सम्भवतः यही दृश्य उनके अलौकिक आनन्द और अपने कार्यक्षेत्र में सफलता का कारण भी बना। अनेक साँसारिक दुखों, माया मोह के बन्धनों के अतिरिक्त प्रकृति-सामीप्य ने उन्हें रोगों के कष्ट से भी मुक्त रखा। केवल ऋषि मुनि एवं साधु संन्यासियों के लिये ही इस प्रकार के प्राकृतिक जीवन का आकर्षण नहीं था अपितु सामान्य गृहस्थियों के लिए भी निहित आयु के पश्चात वानप्रस्थाश्रम की व्यवस्था थी। इसके अतिरिक्त भी मनुष्य प्रकृति की गोद में ही वास्तविक सुख अनुभव करते थे।

निःसन्देह ही आज के युग में वानप्रस्थ का पुनः प्रारम्भ होना या तपस्वियों के समान वनों में एकान्तवास की आशा करना भूल होगी। प्राकृतिक जीवन से यह तात्पर्य है भी नहीं। केवल आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य ने प्राकृतिक ढंग के जीवन के स्थान पर कृत्रिमता एवं अनावश्यक आडम्बरों से परिपूर्ण जो जीवन अपना लिया है वह उसे त्याग दे। वह इस सत्य की गाँठ बाँध ले कि स्वास्थ्य ही जीवन है। किन्तु आधुनिक ‘सभ्य मानव’ के लिए रहन-सहन के कृत्रिम ढंग में स्वास्थ्य लाभ करना कठिन है। सब ओर कृत्रिमता एवं बनाव-ठनाव, दिखावे का बोलबाला है। अत्यन्त शिक्षित एवं सभ्य आज के 80 प्रतिशत मानव अपने उपयुक्त आहार तक का कुछ निर्णय कर नहीं पाते। फलस्वरूप सत्व रहित, कृत्रिम, पौष्टिक, तत्वों से विहीन भोज करके वे अभिन्न रोगों को निमन्त्रित कर बैठते हैं। इन्द्रिय सुख के सम्मुख शारीरिक सुख की अवहेलना करने में भी आज मनुष्य नहीं हिचकिचाते। कृत्रिमता एवं नाजुकता का तो जैसे यह युग ही है। सर्दी के दिनों में मूली का पत्ता पाँव के नीचे आने से लोगों को जुकाम हो जाता है जरा सी असावधानी से गर्मियों में लू लगते उन्हें देर नहीं लगती। वे भूल जाते हैं कि यह सब उनकी दास प्रवृत्ति है, स्वच्छन्द नैसर्गिक जीवन के सुखों से वे अछूते हैं। आज भी हजारों ही नहीं बल्कि लाखों, करोड़ों धनहीन अधिक सर्दी और गर्मी की प्रचण्डता को सहन करने की असाधारण शक्ति रखते हैं। गर्मियों में आम और करोदें के वृक्षों के नीचे स्वच्छन्द जीवन व्यतीत करने वाले और सर्दियों में घास फूस की झोपड़ियों में आश्रय लेने वाले ये श्रमजीवी भी तो मनुष्य हैं, उनसे कहीं अधिक बलिष्ठ एवं साहसी। यह शक्ति एवं साहस प्राकृतिक, मुक्त जीवन का ही देन है। प्राकृतिक भोजन, शुद्ध एवं स्वच्छ वायु में मुक्त विचरण, व्यायाम यहीं सब उनके जीवन में अदम्य साहस, अपरिमित शक्ति एवं अलौकिक आनन्द भर देता है। प्रत्येक प्रकार की परिस्थिति एवं कष्ट और असुविधाओं से निपटने की क्षमता वे अर्जित कर लेते हैं।

कहने का यह तात्पर्य नहीं है कि आप इन्हीं व्यक्तियों के समान जीवन-यापन की व्यवस्था करिये। आवश्यकता इस बात की है कि आप अपने जीवन-यापन के कृत्रिम ढंग को बदल डालिए, स्वच्छ वायु एवं व्यायाम की महत्ता को समझिए, अलौकिक आनन्द के साधन चिन्ताहीन एवं उन्मुक्त जीवन के रहस्य को समझिए। इतनी सहनशक्ति रखिए कि कष्टों एवं आपत्तियों से विचलित न हो सकें। स्वयं कष्टों का निवारण करने के अभ्यस्त बनिये। परिस्थितियों के दास न बनकर उन पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करिए। स्वयं को समयानुसार ढालिए। हृदय को प्रसन्न रखने की कोशिश करिए।

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