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Magazine - Year 1953 - Version 2

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भारतीय नारी महान है।

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(श्री रामप्रताप मिश्र ‘साहित्यरत्न’)

ईश्वर की रचनाओं में मानव सृष्टि एक अत्यन्त रहस्यात्मक कल्पना है। उसको समझने का अब तक अनेक प्रकार से प्रयत्न किया गया, किन्तु कोई निश्चित तथ्य न मिला। किसी ने उसकी परिधि के बाहर ही अपने को पूर्ण मान लिया, किसी ने उसका एक कौना छूकर “अहं ब्रह्मास्मि” कहकर अपने को पारंगत समझ लिया और किसी ने ‘नेति-नेति’ कहकर अपनी जान छुड़ायी। अब तक उसके रहस्य की खोज का यही क्रम रहा है।

सृष्टि प्रकृति-स्वरूप होने के कारण रहस्यात्मक थी ही, उसको गम्भीरतम बनाने में नर-नारी का मिथुन-स्वरूप और भी सहायक हुआ। नर अपने शौर्य, तेज, ओज और पौरुष के कारण एक भिन्न वर्ग में आ गया और उसी प्रकार नारी भी अपनी दया, त्याग, उदारता, सहनशीलता, सुकुमारता और धैर्य के कारण एक अलग वर्ग में समझी जाने लगी। एक में चुम्बक की तरह दूसरों को आकृष्ट करने की शक्ति आ गयी और दूसरे में धातु की तरह उसकी और आकृष्ट होने की। यह आकर्षण शक्ति सृष्टि में इतनी व्याप्त है कि कोई वस्तु ऐसी नहीं जिस पर अपना प्रभाव न रखती हो। अग-जग का एक-एक कण उसके प्रभाव से अछूता नहीं।

सृष्टि का वैधानिक क्रम

यद्यपि उक्त आकर्षण के लिए नर-नारी दोनों वर्गों की आवश्यकता होती है, किन्तु यदि इन वर्गों में से किसी एक वर्ग का अभाव हो जाय तो दूसरे वर्ग में ही अनुपस्थित वर्ग की भी शक्ति आ जाती है और धीरे-धीरे सजातीय वर्ग ही विजातीय की तरह आपस में आकृष्ट होने लगते हैं, यहां तक कि यदि कोई विजातीय वर्ग अनेक न होकर एक ही रह जाय तब भी उसी अकेले में मन्थन के द्वारा दूसरा तत्व हो जाता है और वह अपनी आकर्षण-क्रियाओं में लग आता है यह सृष्टि का वैधानिक क्रम है और इसी द्वन्द्वात्मकता के नाते हमारा सारा जीवन क्रम भी चल रहा है।

उपर्युक्त दोनों तत्व नर-नारी में बचपन से ही अपने स्वरूप अलग कर लेते हैं। उनकी आकृति इन्द्रिय आदि में जन्मतः अन्तर हो जाता है और वे ज्यों-ज्यों बढ़ते जाते हैं। उनमें अन्तर और भी बढ़ता जाता है। किशोरी होते-होते नारी में स्फुटयौवना होने के लक्षण प्रकट हो जाते हैं और श्मश्रु यौवन का चिन्ह बन जाता है। बच्चे को दूध पिलाने के लिए गर्भ की कल्पना में नारी का स्तन बड़ा हो जाता है और बहादुरी की आवश्यकता के लिए पुरुष के बाहुमाँसल। नारी गर्भाधान के लिए रजोधर्म के द्वारा विशुद्ध होकर सरस हो जाती है और पुरुष बीज वपन के लिए स्थिर-वीर्य होकर सुदृढ़। दोनों की ये क्रियाएं सृष्टि में प्रसरित आकर्षण-शक्ति को संयमित और उर्वर बनाने के लिए ही होती हैं, वह उनके वृद्धि-क्रम से स्पष्ट हो जाते हैं।

यौवन में दोनों में ही वासना पूर्ति की प्रधानता रहती है। वे अपनी इस तुष्टि के लिये संसार का महान से महान त्याग कर सकते हैं। समाज की निन्दा, परिवार की उपेक्षा, परिजन का सम्बन्ध-विच्छेद एक भी उन्हें टस से मस नहीं कर सकता। वे कभी-कभी अपने आपसी वादे पर चलकर सारे संसार को अंगूठा दिखा सकते हैं- माँ-बाप, भाई-बहिन, सगे-सम्बन्धी कोई भी उस मार्ग में रोड़ा नहीं बन सकते। यदि नासमझी से उन्होंने रोड़ा बनने का प्रयास किया तो यह एकदम निश्चित है कि वे अपने काबू से बाहर हो जायेंगे। बिना किसी परवाह के वे दोनों ही संसार की सभी शक्तियों को चुनौती देने में कभी हिचक नहीं सकते। उस समय संसार में कोई शक्ति नहीं जो उन्हें आपसी वादों से तनिक भी झुका सके। वे प्रस्तर की भित्ति की तरह अचल होकर सारी कठिनाइयों और आपदाओं को आसानी से झेल जायेंगे पर अपने निर्णय के विरुद्ध किसी प्रकार का मीन-मेख उन्हें सह्य नहीं हो सकता। उनकी एक अलग बुद्धि होती है और एक अलग संसार। दूसरी वस्तुओं से उनका कोई मतलब नहीं।

नारी का त्याग

बचपन से ही नारी में भोलापन होता है। उसमें सहनशीलता, सुकुमारता, लज्जा, उदारता आदि गुण स्वाभाविक होते हैं और साथ ही होती है आत्म-समर्पण की प्रबल साधना। यह जिसे आत्म-समर्पण करती हैं उसके दोषों को नीलकण्ठ की तरह जीवन भर बूँद-बूँद करके पी जाने में सतत प्रयत्नशील रहा करती हैं और उसे मानती हैं अपना वास्तविक देवता। वह उसे अपने हृदय से कभी विलग नहीं करना चाहती। साथ ही साथ आत्म समर्पण के बाद वह अपने जीवन धन के प्रत्येक कार्य की जानकारी चाहती है केवल घर के कार्यों से ही बस नहीं, वह तो अपने पतिदेव से सम्बद्ध सभी बाहरी कार्यों का भी लेखा चाहती है। यह सब क्यों? इसीलिए कि वह अपना सब कुछ उसे समर्पित करके उसकी अर्धांगिनी बन गयी है और अपने दूसरे अंग के विषय में चिन्ता करना उसका स्वाभाविक अधिकार है। इसके औचित्य को न मानना पुरुषों की नासमझी होगी।

इस प्रकार नारी प्रारम्भ से ही अपने जीवन को उत्सर्ग के मार्ग पर ले जाती है, उसका आदान भी अवसर आने पर उत्सर्ग के लिए हो जाता है। संसार में अपने लिए उसका कुछ नहीं। उसके पास जो कुछ है वह सब दूसरों के लिए-पति, परिवार और देश के लिए।

आदान के विषय में, व गर्भ धारण करती है, यह सबसे बड़ा उदाहरण दिया जाता है। परन्तु यदि गम्भीरता से सोचा जाय तो उससे उसको अपने लिए क्या मिलता है-वह तो हो जाती है देश और समाज के लिए महान देन।

वह अपना रक्त पिला-पिलाकर गर्भ का पालन करती है, नौ मास तक अनावश्यक बोझा ढोती है, घुमरी, मचलाहट, खुमारी आदि के प्रकोप से दिन रात परेशान रहती है, चलते समय अचानक गिर पड़ती है और कभी-कभी तो गर्भ प्रसव की असह्य पीड़ा से अन्त में जान तक खो देती है और यदि बच्चा सकुशल पैदा भी हो गया तो वह देश और समाज का होता है न कि उसका, क्योंकि बड़ा होने पर वह अपनी इच्छा के अनुसार मार्ग पकड़ लेता है। तब भला इसे आदान कैसे कहा जाय? शरीर भी जिसे वह अपना कह सकती, गर्भ के कारण क्षीण हो जाता है। तब उसे मिला क्या? वह तो शुक्र की कुछ बूंदें ग्रहण करती है और उसके साथ अपने शरीर के रक्त की सहस्रों बूँदें मिलाकर समाज के लिए एक नयी सन्तति का महान दान करती है। फिर आदान कैसा?

बच्चा पैदा होता है और वह उस समय काल के गाल से निकले हुए पीत शरीर को लेकर सप्ताहों चारपाई पर पड़ी रहती है। कराहती है, छटपटाती है और अपने को असमर्थ देखकर चुपचाप शय्या पर लेटी रहती है। इस व्यापार में गर्भधारण करना आदान कैसे कहा जाय? यह तो जगत को एक महान दान देने का बहाना है। अतएव गर्भाधान एक उदाहरण हो सकता है महान उत्सर्ग का, न कि आदान का।

और आगे सोचिए तो नारी की महत्ता और भी निखर उठती है। बच्चे बड़े होते हैं और वह उन्हें प्रसन्न रखने के लिए भैया, लाला, बाबू कहकर पुचकारती हुई खाना-पीना भूल जाती है। यदि उसका परिवार गरीब हुआ अथवा किसी कारणवश उसके भोजनालय में भोजन की कमी रही तो वह सारे परिवार को खिला पिला कर स्वयं निराहार सो जायेगी, किसी से इसके विषय में कुछ कहना या शिकायत करना उसके स्वभाव की बात नहीं। दूसरे दिन संयोग से यदि पर्याप्त भोजन न हुआ तो वह सबको खिला-पिलाकर पुनः भूखी रह सकती है यह क्यों? क्या उसे भूख नहीं सताती?

भूख उसे भी सताती है, उसी तरह जैसे सारे मानव प्राणी को! फिर वह वैसा क्यों करती है? इसीलिए कि वह दूसरों के लिए अपना उत्सर्ग करना बालापन से सीख चुकी है और यह गुण उसमें स्वाभाविक हो गया है।

यदि कभी पतिदेव किसी कारणवश घर से नाराज होकर कहीं चले गये तो कौन रात-रात भर बैठी हुई उनके लिये रोती रह जाती है? आपसी कलह के समय पति की गलती रहने पर भी उनसे कौन स्वयं क्षमा माँगती, रूठने पर मनाती और पग-पग पर बलैया लेती फिरती है? कौन अपनी मर्यादा की रक्षा के लिये चीमूर की स्त्रियों की तरह कुंए और नदी में कूद कर जान दे देता है? किसे अपने अस्तित्व को खोकर जीवन भर दूसरे के वश में रहना खुशी से अंगीकार है? कौन बारह -एक बजे रात में अतिथि के आ जाने पर शय्या और आलस्य त्यागकर उन्निद्र रहने पर भी उसके अशन वसन के सम्बन्ध में जुटा रहा सकता है?

मानव धर्मों का पालन

उक्त सभी प्रश्नों का एक स्वर से उत्तर मिलेगा-भारतीय नारी। धर्म और संस्कृति की प्रतीक स्वरूप भारतीय नारी किसका हल नहीं रखती? वह दानव को भी मानव, हत्यारे को भी धर्मात्मा और निर्दय को भी सदय बना सकती है। उसके आंसुओं में धर्म है पीड़ा में संस्कृति और हास्य में सुख का राज्य। मानव धर्मों का सच्चे अर्थ में केवल वही पालन भी कर सकती है।

मनु जी ने धर्म के दस लक्षण गिनाये हैं-

धृति-क्षमा दगोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।

धीर्विद्य सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम॥

इनमें से प्रत्येक को नारी किस तरह निभाती है, इस पर संक्षेप में दृष्टि डालना अधिक समीचीन होगा।

संसार का कोई भी मानव दस लक्षण सम्पन्न धर्म का पूर्ण रूप से शायद ही पालन कर पाता हो, यदि कोई करता भी होगा तो उसे ऐसा करने में असीम साधना करनी पड़ी होगी। परन्तु नारी के जीवन में उक्त दसों बातें स्वभाव बन गयी हैं। उनके बिना उसे चैन ही नहीं पड़ता। वह उन बातों का कठोरता से पालन करके सारे संसार की पथ प्रदर्शिका बन गयी है।

कठिन से कठिन परिस्थितियों में आपदाओं से घिरी रहने पर भी वह धैर्य के साथ पति की अनुगामिनी बनी रहती है। पति उसके साथ घोर से घोर अत्याचार कर डालता है, उसको पशु की तरह डंडों से पीट लेता है वेश्यागमन और शराबखोरी से उसका जीवन दूभर बना देता है, उसके जेवर बेचकर जुआ खेल लेता है, पर ज्यों−ही उसे विपन्नावस्था में घर आया देखती है वह सब कुछ भूलकर सहानुभूति के साथ उसकी सहायता में तत्पर हो जाती है। अपनी बीती पीड़ाओं के बदले में एक भी शब्द पति के विरुद्ध कहना उसके बूते का नहीं। वह अपने हृदय और स्वभाव से मजबूर है। कोमलता छोड़कर कठोर बनना उसे भाता ही नहीं। उसका शील हृदय क्षमा के अतिरिक्त और कुछ जानना नहीं चाहता। वह अपने में ही पूर्ण है।

दम के विषय में उसकी तितिक्षा इच्छा रहते हुए भी अच्छी वस्तुओं और आहार स्वयं न खाकर परिवार वालों को खिला देना, अपनी पीड़ा भूलकर दूसरे की पीड़ा में सम्वेदना प्रकट करना, क्रोध न करके सदैव सरस बनी रहना ही पर्याप्त है।

शौच और इन्द्रिय निग्रह के लिए उसका प्रतिदिन आचरण अनुकरणीय है। कुटुम्ब, साधु और पति की सेवा करने, उदार हृदय से पीड़ितों और दुखियों को सहारा देने और अपने सुखदुःख की बिना परवाह किये रात-दिन गृहकार्यों में निरत रहकर ‘गृहणी पद की जिम्मेदारी निभाने से बढ़कर शौच और इन्द्रिय निग्रह होगा ही क्या?

बुद्धि से काम लेना, सत्य बोलना और क्रोध न करना तो नारी सुलभ गुणों में एकदम स्वाभाविक गुण है। उनके बिना नारी अपना जीवन सुखमय बना ही कैसे सकती है? यदि वह उक्त गुणों को न प्राप्त कर सके तो उसके परिवार में नित्य नये कलह पैदा होते रहेंगे और उसका जीवन भार एवं परिवार दुःखागार हो जायेगा। अतएव यह निर्विवाद हो जाता है कि मनु के बताये हुए दस लक्षण-सम्पन्न धर्म का पालन नारी की तरह पुरुष नहीं कर पाता।

संस्कृति के प्रति निष्ठा

अब रही संस्कृति की बात। कोई भारतीय पुरुष आसानी से यूरोपीय पत्नी ला सकता है, परन्तु भारतीय नारी अपनी संस्कृति और मर्यादा को त्यागकर सम्पन्न अंग्रेज की पत्नी होना स्वीकार नहीं कर सकती। वह अपनी संस्कृति के विरुद्ध जाना अब भी-जब कि सारा भारतीय समाज यूरोपीय रंग में रंगता जा रहा है- बड़ा भारी पातक समझती है।

कोई माँसभक्षी, जुआरी या शराबी उसे छल से या जबरदस्ती अपनी पत्नी बनाना चाहता है तो पहले जी जान से उसका विरोध करती है, परन्तु किसी कारणवश यदि उसने पत्नीत्व स्वीकार कर लिया तो वह उसे अपना इष्टदेव मानकर उसकी अनुगामिनी बनी रहने में ही अपना कल्याण समझती है, उसके साथ निधन कर देने में ही वह अपना श्रेय मान लेती है। यह है भारतीय नारी!

वह साड़ी को फेंककर पायजामे में आने के लिए आसानी से तैयार नहीं होती। इस पर यदि कोई जबर्दस्ती करना चाहता है तो वह अपनी चली आती हुई संस्कृति और मर्यादा की रक्षा में प्राण तक आसानी से दे सकती है।

कहीं कोई स्त्री पति के अत्याचारों से ऊबकर आत्महत्या कर रही है, कहीं रात में रेल की पटरी के नीचे कट जाती है, कहीं विष खाती हुई पकड़ ली जाती और कहीं घर से लापता हो जाती है। यह क्यों? यह सब नारी की मर्यादा और संस्कृति के विरुद्ध किये जाने वाले अत्याचारों का ही परिणाम है।

उपर्युक्त विवेचन के अपवाद भी भारतीय समाज में मिलेंगे, पर नगण्य अतएव अपवादस्वरूप कुछ नारियों के बल पर भारतीय नारियों की महत्ता और गुणों की अमान्यता उचित नहीं। यह कहना भी उचित नहीं कि आज की नारियाँ बहुत दिनों से पुरुषों की दासी रहने के कारण इतनी सहनशील बन गयी हैं, क्योंकि नारी की यह शीलवृत्ति और उसके साथ होने वाले अत्याचार सर्वदा जारी रहा है। अतएव मनु को भी ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते’ कहकर नारी की महत्ता का गुणवान करना पड़ा।

इस प्रकार नारी मानव सृष्टि की वह धारा है जो सर्वदा शीतल होकर रहती है और गर्म होना जानती ही नहीं। मानव जीवन की दुर्बलताओं को पी जाने में ही उसकी महत्ता है। वह सृष्टि की कल्याणकारी देवी है। यदि उसके स्वाभाविक गुणों का पुरुष मात्र सताशमी अनुकरण करते तो यह दुखमयी वसुधा स्वर्ग हो जाती। पर हमारी महत्वाकाँक्षा क्या कुछ करने देगी।

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