
क्या मूर्ति पूजा अनावश्यक है?
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(आचार्य बिनोवा भावे)
मन्दिरों पर अनेक आक्षेप किये जाते हैं। उनमें एक आक्षेप यह है कि मन्दिरों में कई तरह का अनाचार होता आया है और हो रहा है। इसलिए मंदिरों को खत्म करना चाहिए। दरअसल यह कोई विचार का आक्षेप नहीं है। यह प्रतिक्रिया मात्र है। मंदिरों में से अगर अनाचार मिट जाय, तो यह आक्षेप स्वयं खत्म हो जाता है और यही उसमें से लेना है।
ईश्वर साक्षात्कार
दूसरा आक्षेप यह है कि ईश्वर को किसी ने देखा नहीं है। श्रद्धा से उसे मान लेते हैं और उस श्रद्धा के आधार पर मन्दिर बनाकर पूजा करते हैं। यह मिथ्या आचार है। ईश्वर के अस्तित्व के बारे में मैं दलील नहीं करूंगा। इतना ही कहूँगा कि यह आक्षेप अविचारमूल है। इसमें कुछ अहंकार भी है। अनेक सत्पुरुषों ने ईश्वर का साक्षात्कार और वर्णन भी किया है। ऐसी हालत में हम यह कहने का साहस कैसे कर सकते हैं कि ईश्वर है ही नहीं। हम इतना ही कह सकते हैं कि हमने उसको देखा नहीं है। लेकिन जिन्होंने ईश्वर साक्षात्कार का वर्णन किया है वे भ्राँत या मिथ्यावादी थे ऐसा हम नहीं मान सकते हैं और उन सत्पुरुषों की बात मानकर जो श्रद्धा से ईश्वर की पूजा करते हैं, उनको हम दोष भी नहीं दे सकते हैं।
तीसरा भी एक आक्षेप तात्विक विचार का है। परमेश्वर किसी एक ही मूर्ति में नहीं हो सकता, वह तो सब जगह है। ‘सबमें रम रहिया प्रभु एकै, पेख-पेख नानक विहंसाई’ सब दुनिया में ईश्वर भरा है, उसे देखकर आत्मानन्द का अनुभव करना चाहिये। उसके बदले मूर्ति-विशेष की पूजा करने का अर्थ यह होगा कि परमेश्वर दूसरी जगह नहीं है।
मेरी नम्र राय है कि यह आक्षेप भी एकाँगी है। परमेश्वर का वर्णन एक ही तरह के विशेषण से नहीं हो सकता। मनुष्य की वाणी में उसका वर्णन करने की शक्ति ही नहीं है। फिर भी मनुष्य अपने समाधान के लिए उसका वर्णन करने की चेष्टा करता है, तो विरोधी विशेषणों का प्रयोग करना पड़ता है। परमेश्वर का व्यापक होने पर भी मूर्ति विशेष में उसकी अभिव्यक्ति हो सकती है। दुनिया में बिजली भरी है। लेकिन विशेष ढंग से विशेष स्थान में वह प्रकट होती है। वैसे ही जहाँ हमारी मानसिक भावना रहती है वहाँ परमेश्वर हमारे लिए प्रकट हो जाता है। अपनी भावना के अनुसार मनुष्य उपासना करता है तो उसमें परमेश्वर की व्यापकता का निषेध नहीं है।
मानव सेवा
एक और भी आक्षेप आता है। हमें तो मानव सेवा करनी चाहिए। किसी प्यासे को पानी पिलाना भूखे को खिलाना, गन्दे को नहलाना यही परमेश्वर की सर्वोत्तम सेवा है। मानव-रूप में जो ईश्वर है उसकी उपेक्षा करके किसी देव को नैवेद्य चढ़ाना यह काहे का धर्म? इस आक्षेप में भी विचार दोष है। जो मनुष्य के साथ दयालु बर्ताव नहीं करता और पाषाण मूर्ति की पूजा करता रहता है वह ढोंगी कहा जा सकता है लेकिन जो मनुष्य प्राणी-सेवा में मग्न है उसे भी मूर्ति पूजा उपयुक्त हो सकती है। मानव की सेवा मानव का सर्वप्रथम कर्त्तव्य है इसमें कोई शंका नहीं। लेकिन हम देखते है कि मानवों में विकार होते हैं जो सेवा करता है उसमें और जिसकी सेवा की जाती उसमें भी। ऐसी दशा में हमारी सेवा में भी दोष पैदा हो जाता है, और मानव में भगवान का अंश देखने का भाव हमेशा नहीं टिकता। जिसकी सेवा की जाती है उसके विकार की प्रतिक्रिया सेवा करने वाले के मन पर होती है। इसका एक उपाय मानव ने यह किया कि निर्विकार पत्थर को प्रतीक मान उसमें मानव की परिपूर्ण आकाँक्षा भरदी। दूसरी भाषा में उस निर्विकार पत्थर में ईश्वर का आरोपण करके उसकी वह पूजा करने लगा और उसकी पूजा द्वारा अपने अहंकार और विकार को शून्य बनाने की कोशिश करने लगा। मानव का परम आदर्श वह मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान माना गया है। योगसूत्र में भगवान की व्याख्या ‘रागद्वेषादि रहितपुरुषविशेषः’ की है। उसकी उपासना करने से मनुष्य धीरे-धीरे निरहंकार बनता है।
एक भाई ने मुझसे पूछा- ‘प्रार्थना में इतना समय क्यों दिया जाता है? क्या वह भी सेवा में लगाना बेहतर नहीं होगा? मैंने कहा ‘सेवा की कीमत उसके परिणाम पर निर्भर नहीं है। सेवा में वृत्ति जितनी रिहंकार रहेगी उतनी सेवा की कीमत बढ़ेगी।’
मैंने दस सेर सेवा की, लेकिन चालीस सेर मेरा अहंकार रहा तो मेरी सेवा की कीमत 10 बटा 40 यानी 1 बटा 4 हो गई। इससे उलटे एक मनुष्य के एक तोला भर सेवा की कीमत 1 बटा शून्य, यानी अनन्त होगी। हम जानते हैं कि गणित में विभाजक शून्य रहा तो भागाकार अनन्त आता है। अहंकार शून्य करने में प्रार्थना मदद दे सकती है। निरहंकारता से सेवा की कीमत उसकी निरहंकारता के कारण पृथ्वी के मूल्य की हो गई।
मूर्ति पूजा चित्त शुद्धि का साधन
जिन्होंने भगवान की मूर्ति की कल्पना की वे पागल नहीं थे। काफी चित्त शुद्धि उससे मनुष्य की हुई है। एक जमाना था जब मनुष्य ने अपनी कला और सौंदर्य वृत्ति का सारा प्रदर्शन मन्दिरों में किया। मूर्ति में भगवान की भावना करके मनुष्य ने अपना विकास किया। मूर्ति न होती तो बगीचे में से फूल तोड़कर मनुष्य अपने नाक में उसको लगाता। लेकिन भगवान की मूर्ति पर फूल चढ़ाकर जोकि फूल के लिए सर्वोत्तम स्थान है-मनुष्य ने अपनी गन्ध वासना संयत और उन्नत की। अपनी वासना मिटाने के लिए भगवान के समर्पण की युक्ति मनुष्य ने निकाली। रामदास स्वामी ने लिखा है- देवाचें वैभव बाढ़वावें’-(भगवान का वैभव बढ़ाओ।)
हम क्या भगवान का वैभव बढ़ावेंगे? वह महान है, हम रंक हैं। परमेश्वर का वैभव बढ़ाने की कोशिश करने में हम अपना जीवन उन्नत करते हैं। रामदास स्वामी की सीख शिवाजी ने समझ ली। उन्होंने रायगढ़ में-जो शिवाजी की राजधानी थी- अपने लिए उसने मकान बनाये जिनकी निशानी तक बाकी नहीं रही। और प्रतापगढ़ में जो देवी का मंदिर बनाया है जिसे कि 250 साल के बाद मैंने अच्छी हालत में देखा। रामदास स्वामी की शिक्षा का यह प्रदर्शन था।
भगवान का वैभव बढ़ाना, मानव-देह से करने लायक यही चीज है। वाणी से भगवान का गुणगान करें, हाथों से उसकी सेवा करें और अपनी बुद्धि को शुद्धि बनायें। बुद्धि की शुद्धि के लिए भगवान की भक्ति से बढ़कर कोई भी साधन आज तक अनुभव में नहीं आया। शंकराचार्य महान ज्ञानी हुए। अद्वैत की गर्जना करते थे। लेकिन मलावार से चलकर हिमालय की तरफ जाते हुए रास्ते में जो बड़े-बड़े मन्दिर मिले उन पर उन्होंने स्तोत्र रचे हैं। कितने नम्र वे बने? क्या वे नहीं जानते थे कि यह पत्थर की मूर्ति मनुष्य की बनाई हुई है? यह भगवान कैसे हो सकती है? लेकिन मूर्ति के सामने उनका सिर झुक जाता था। नदियों पर भी उन्होंने सुन्दर स्तोत्र रचे। सार इतना ही है। किसी तरह भगवान की भक्ति करो और चित्त शुद्धि साथ। मानव देह का यही अधिकार है। यह जिन्होंने समझा उनका जीवन धन्य हुआ।
-जीवन का चरम लक्ष्य होना चाहिये भगवान के श्री चरणों की प्राप्ति और उसी को मानना चाहिये परम पुरुषार्थ। जितने भी पुरुषार्थ हैं-प्राप्त करने के पदार्थ हैं, वे सभी गिराने वाले हैं। जब तक यह निश्चय नहीं होता कि भगवान को प्राप्त करना ही परमपुरुषार्थ है तथा यही जीवन का लक्ष्य है, तब तक मनुष्य कहीं भी शान्ति प्राप्ति नहीं करता।