
सच्चा आनन्द प्राप्त कीजिए।
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(श्री प्रीतम देवी महेन्द्र)
भारतीय संस्कृति की विशेषता यह है कि वह जीव को जहाँ वंश का अंश मानती है वहाँ सृष्टि के मूल में ही आनन्द और कल्याण मानती है। जीवन का लक्ष्य प्रयोजन और आधार आनन्द है, दूसरी ओर यही सच पाश्चात्य संस्कृति में विषाद, अतृप्ति एवं निराशा है। हमारे यहाँ कला और साहित्य के माध्यम से जीवन की जय कुञ्जरित की गई है तो यूरोप में मृत्यु, सुख, नैराश्य की कालिमा बिखेरी गयी है। एक ओर आत्मा का शुभ प्रकाश है तो दूसरी ओर नास्तिकता का गहन अन्धकार।
अपने जीवन को आनन्द का आधार मानकर कार्य क्षेत्र में प्रविष्ट होने वाले भारतीय व्यक्ति के लिए जीवन उत्साह एवं प्रफुल्लता से भर जाता है।
जब आप अपने को आनन्दकन्द परमेश्वर का अंश मानते हैं तो कष्ट, कसक या वेद से आपका क्या सरोकार हो सकता है। बीज में जो गुण होते हैं वे ही अंकुरित पल्लवित पुस्थित एवं फलित होकर प्रकृति में प्रकट होते हैं आनन्दकन्द (अर्थात् जिसकी जड़ में आनन्द है) होने के कारण आपके जीवन का विस्तार आनन्द में ही होना चाहिए।
अपने जीवन को आनन्द के मापदंड से नापिये आपने कितना आनन्द प्राप्त किया है किस-किस रूप में उसे प्राप्त कर रहें हैं। आपका आनन्द किस कोटि का है जीवन को आप किस ओर चला रहें हैं।
आपने अपने आनन्द का जो आदर्श बनाया है। उसकी ओर चलने से आपको कितना उत्साह आन्तरिक शान्ति, संतुलन या स्थिरता प्राप्त हो रही है। इतने दिन इस आनन्द का उपयोग करने से आप कितनी आत्म शक्ति पा सके हैं।
आत्मिक आनन्द, उच्च विचारों एवं उद्देश्यों में रमण करने तथा उन्हें श्रम द्वारा कार्यान्वित करने का आनन्द हमारे अन्दर देश में दिव्यता का संचार करता है, उसमें सच्चे आनन्द एवं उत्साह की वर्षा करते हैं। दूसरी ओर साँसारिक वासनामूलक आनन्द क्षणिक है, जहाँ पहली प्रकार का आनन्द हमारा रक्षक है दूसरी श्रेणी का आनन्द हमारा भक्षक है।
अपने आनन्दों को देखकर उनका वर्गीकरण कीजिए जो क्षणिक और हानिकारक हैं उन्हें त्यागकर स्थायी और स्वास्थ्यकर आनन्दों से जीवन को मृदु बनाओ।