
योग का साधन मार्ग
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(श्री शिवरतन लाल त्रिपाठी, गोलागोकरनाथ)
योग साधकों को अपने भोजन और शयन पर पूरा ध्यान रखना चाहिए क्योंकि शरीर धारी के समस्त कार्य उसके आहार-विहार पर निर्भर हैं। भगवान श्रीकृष्ण जी ने गीता में कहा है-
नात्वश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्त मनश्नतः।
न चाति स्वप्न शीलस्य जाग्रतो नैवचार्जुन॥
गीता अ. 6 श्लोक 16
हे अर्जुन! यह योग न तो बहुत खाने वाले का सिद्ध होता है और न बिलकुल न खाने वाले का तथा न अति शयन करने के स्वभाव वाले का और न अत्यन्त जागने वाले का ही (सिद्ध होता है) फिर कहा है।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्त स्वप्नाव बोधस्य योगो भवति दुःखहा॥
गीता अ. 6 श्लोक 17
यह दुःखों का नाश करने वाला योग तो यथा योग्य आहार और विहार करने वाले का तथा कर्मों में यथा चेष्टा करने वाले का और यथा योग्य शयन करने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।
लघु पाक प्रियं स्निग्धं यथा धातु प्रपोषणम्।
मनोभिलषितं भोज्यं योगी भोजन माचरेत॥
दूध भात हलकी रोटी (फुलके) इत्यादि प्रकार का शीघ्र पचने वाला और अपनी इच्छा के अनुसार प्रिय तथा स्निग्ध रक्त वृद्धि करने वाला, ऐसा भोजन योगाभ्यासी को करना चाहिए “अभ्यास काल प्रथमें शस्तं क्षीराज्य भोजनम” अभ्यास के आरम्भ काल में भोजन में दूध और घृत विशेष होना चाहिये। पश्चात न्यून होने पर भी काम चल सकेगा।
साधकों को चाहिये कि जब दाहिना स्वर चले तो भोजन करें और जब बायाँ स्वर चले तब शयन करें। जब मनुष्य कोई भी शुभ कर्म करना आरम्भ करता है तब उस के सामने नाना प्रकार के विघ्न उपस्थित होते हैं। जो उन विघ्नों को देखकर घबड़ा जाता है अथवा भयभीत हो जाता है वह सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता है। इसलिए शुभ कर्म आरम्भ करते ही विघ्नों से सतर्क रहना चाहिए और पूर्ण दृढ़ता और धैर्य के साथ विघ्नों की किंचित् भी परवाह न करते हुए कर्म में लगा रहना चाहिये। समस्त विघ्न जो भी उपस्थित होते हैं वे वास्तव में वह हैं कुछ भी नहीं केवल दिखाई ही भयंकर पड़ते हैं। जब कर्म निष्ठ पुरुष दृढ़तापूर्वक धैर्य के साथ अपने कर्म में लगा रहता है और विघ्नों की किंचित् परवाह भी नहीं करता तो विघ्न अपनी प्रबल शक्ति से उपस्थित होकर बड़ा भय दिखाता है और प्रयत्न करता है कि कर्म निष्ठ पुरुष कर्म भ्रष्ट हो जाय परन्तु जब देखता है कि कर्म निष्ठ पुरुष अपने कर्म में ही लगता है तो फिर तत्काल ही विलीन हो जाता है और कर्म पुरुष सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।
आलस्यं प्रथमों विघ्न उपभोगों द्वितीयकः।
कीर्ति स्तृतीयकः प्रोक्तं औदासिन्यं चतुर्थकः ॥1॥
विघ्नाश्वत्वार एवंहि प्राप्नुवन्ति पुनः पुनः।
तस्मात्प्रवल धैर्येण योगी विघ्नान्निवारयेत् ॥2।
आलस्य पहला विघ्न है, विषय भोग दूसरा, लोक में यशी होना तीसरा, सिद्धि में देर होने से उदासीनता होना चौथा विघ्न है। यह चारों विघ्न बार-बार आते हैं। इसलिये योगी बड़े धैर्य से इन विघ्नों की परवाह न करके योगाभ्यास करता रहे।
‘वह्नि स्त्री पति सेवानामादौ वर्जन माचरेत्”
अग्नि सेवन, स्त्री सेवन (स्त्रियों से संग, एकान्त में भाषण आदि) एवं राह चलना मना है।
अत्याहारः प्रयासश्च प्रबल्यों नियम ग्रहः।
जन संगश्ब लौत्यंच षद्भिर्योगो विनश्यति॥
(ह.प्र.)
बहुत आहार करना, विशेष श्रम होने का काम करना, अधिक बोलना, उपवास करना (आवश्यक उपवास छोड़ के) जो योगाभ्यासी नहीं हैं ऐसे लोगों से विशेष संग करना और मन को चंचल करना इन 6 बातों के करने से योगी का योगाभ्यास नष्ट होता है इसलिए योगी को इन उपरोक्त बातों से दूर रहना चाहिए।
उत्साहात्साहसा द्धैर्यात्तत्व ज्ञानाञ्च निश्चयात्।
जन संग परित्यागात्षड़ भिर्योगः प्रसिद्हयति॥
(ह.प्र.)
उत्साह रखने से, साहस करने से , धैर्य धरने से, तत्वज्ञान (योग से मोक्ष मिलेगा ऐसी भावना) करने से, योग जीवन अभ्यास चलाने का निश्चय रखने से और विषयी लोगों के संग का त्याग करने, इन 6 बातों से योगाभ्यास में सिद्धि प्राप्त होती है। महाभारत में लिखा है कि एक समय धर्मात्मा युधिष्ठिर के पूछने पर भीष्म जी ने कहा कि -
नैवास्याग्नि न चारिष्टो न मृत्युर्नंच दस्यवः।
प्रभवन्ति धनत्यागाद्विमुक्तस्य निराशिषः॥
-शा.गी.
रत्नादि वैभवों के त्यागी एवं आशारहित और मुक्ति स्वरूप मनुष्य को अग्नि, चोर, डाकू और मृत्यु का भय नहीं होता। अर्थात् योग साधक में त्याग गुण अवश्य आना चाहिये। क्योंकि -
नात्यक्ता सुख माम्नोति नात्यक्ता निन्दते परम्।
नात्यक्ता चा भयः शेतेत्यक्ता सर्व सुखीभव ॥
-शी.गी.
त्याग के बिना सुख, निर्भयता, परमपद की प्राप्ति नहीं होती, इसलिये मनुष्य को चाहिये कि साँसारिक वैभवों को छोड़ त्याग को धारण करे।
मोक्ष धर्मेषु निरतो लहवाहारो जितेन्द्रियः।
प्रम्नोति परम स्थानं यत्परं प्रकृते ध्रुर्वम्॥
-हा.गी.
मोक्ष धर्म में रत स्वल्पाहारी और जितेन्द्रिय पुरुष ही प्रकृति से पृथक परब्रह्म की प्राप्ति कर सकता है।
मध्यस्थ एव तिष्ठेत प्रशंसा निंदयोः समः।
एतत्पवित्रं परमं परिव्राजक आश्रयेत॥
-हा.गी.
संन्यासियों का परम पवित्र मार्ग प्रशंसा और निन्दा में समदर्शी होकर रहना ही है।
‘आत्मना यः प्रशान्तात्मा लघ्वाहारी जितेन्द्रियः’ वाचो वेगं मनसः क्रोध वेगं, हिंसा बेग मुदरोपस्य वेगम्।
एतान्वेगान्विनये द्वैतपस्वी,
निन्दा चास्य हृदय नोपहन्यात॥
-हा.गी.
समदर्शी हो, फलादि खाकर जीवन बितावे, स्वभाव से शान्ति चित्त, लघु भोजी और जितेन्द्रिय मन वचन कर्म से हिंसा न करे और उपस्थेन्द्रिय के वेगों को सहन करने वाला हो, यह तप है। जो तपस्वी है उन्हीं के हृदय को लोक निन्दा दुःखी नहीं कर सकती इसीलिए सबको पहले गृहस्थाश्रम में ही फल की इच्छा को छोड़ कर कार्य करने का अभ्यास करना चाहिये।
शैशवेभ्यस्तु विद्यानाँ, योवने विषयैषिणाम्।
वर्द्धके मुनि वृत्तिनाँ, योगेनानते तनुत्यजाम॥
-रघुवंश
बालकपन में विद्याध्ययन करे, यौवन काल में विषय का सेवन अर्थात् सन्तान उत्पत्ति करे, तत्पश्चात अन्त में योग से शरीर को त्याग दें (ताकि पुनः शरीर प्राप्त करके नष्ट भोग न करना पड़ें यही मनुष्य जीवन का लाभ है। सुख दुःख की किंचित भी परवाह न करते हुए योग में लगा हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त करके फिर सदैव उसी में निवास करता है। जो सुख दुःख के वेग को सहन नहीं कर पाता वही अनन्त काल तक दुःख ही दुःख भोगता रहता है। अर्थात् जीवन मरण का कार्य कभी समाप्त नहीं होता।
सुखं वा यदि वा दुखं, प्रियं वा यदिवाऽप्रियम्।
प्राप्तं प्राप्त मुपासीत, हृदये ना पराजितः॥
-पि.गी.
सुख दुःख प्रिय अप्रिय इनमें से जो भी जिस समय आ प्राप्त हो उसको बड़ी सावधानी से सहन करें।
यज्ञकाम सुखं लोके यच्चदिव्यं महन्सुखम्।
तृष्णाक्षय सुखस्यैते, नार्हतः षोडशी कलाम्॥
-पि.गी.
संसार में विषय एवं अन्य जो बड़े बड़े सुख हैं तृष्णा के नष्ट हो जाने से सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं रह जाते हैं।
सदा संहरते कामान, कर्मोऽगाँनीवं सर्वशः।
तदात्म ज्योतिरात्माय मात्मन्येब प्रयश्यति॥
-पि.गी.
कछुए के अंग की तरह समेटने से यह आत्मा जिस समय सम्पूर्ण कर्मों का संहार कर देता है उस समय उसको आत्म ज्योति स्वयं दीखने लगती है।
नास्ति विद्या समं चक्षुः, नास्ति सत्य समं तपः।
नास्ति रागऽसमं दुःखं नास्ति त्याग समंसुखम्।
-म.भा.
विद्या के समान नेत्र नहीं, सत्य के समान तप नहीं, राग के समान दुःख नहीं, और त्याग के समान सुख नहीं है।
नवि भेति यदा चायं, यदा चास्मान्न विन्यति।
यदा नेच्छति न द्वेष्टि, ब्रह्म संपद्यते तदा॥
-पिं.गी.
यह आत्मा जब किसी से नहीं डरता तथा न इससे कोई भयभीत होता है और इच्छा द्वेष से रहित होता है तभी इस आत्मा को ब्रह्मा की प्राप्ति होती है।
उभे सत्याघृतेत्यक्ता, शोकानन्दो भयाभये।
प्रियाऽप्रिये परित्यज्य प्रशान्ता भविष्यति॥
-पि.गी.
सत्य, झूठ, शोक, हर्ष, भय, अभय, प्रिय, अप्रिय इन सबका परित्याग करने से ही चित्त को शान्ति होती है।
“सुखं निराशः स्वपिति नैराश्य परमं सुखम्”
जो कोई किसी वस्तु की आशा (इच्छा) नहीं करता है वही सुख की नींद सोता है।