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Magazine - Year 1953 - Version 2

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ईश्वर प्रार्थना और आत्मोन्नति

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(पं. श्रीरामजी उपाध्याय, एम.ए.)

संसार में कदाचित ही कोई मनुष्य होगा जो सुख न चाहता हो। ऐसा होने पर भी हममें से इने-गिने व्यक्ति ऐसे मिलेंगे, जिनको वास्तव में सुखी कहा जा सके। सभी लोग अधिक से अधिक परिश्रम करते हैं, किन्तु प्रायः पचास प्रतिशत जनसंख्या के सन्मुख प्रातः और सायंकाल के भोजन की समस्या गम्भीर रूप से खड़ी रहती है, पारस्परिक वैर-विरोध का तो कुछ पूछता ही नहीं। कोई किसी का विश्वास नहीं करता। पुत्र का माता-पिता के प्रति, भृत्य का स्वामी के प्रति, स्त्री के पुरुष के प्रति-उपेक्षा का भाव है। मानव-समाज घृणा के रोग से बुरी तरह पीड़ित है। सर्वत्र दुःख का ही प्रसार है। कहीं शान्ति देखने को नहीं मिलती। सौजन्य, सहानुभूति, त्याग और सत्य का दर्शन भी दुर्लभ है। मानव-मस्तिष्क की जितनी भी बुराइयाँ कोई देखना चाहें, अपने में ही देख ले, अथवा घर से बाहर निकलकर भी सर्वत्र देख सकेगा।

अब प्रश्न यह उठता है कि हमारी ऐसी दुर्दशा क्यों हैं? क्या हम इन बुराइयों के प्रेमी हैं? क्या हम जानते नहीं कि इस भयंकर परिस्थिति से संसार को किस प्रकार मुक्त किया जा सकता है? इसमें कोई सन्देह नहीं कि हम अपनी दुर्दशा से पूर्णतया परिचित हैं और उससे मुक्त होना चाहते हैं। इससे मुक्त होने के उपायों से भी हम अनभिज्ञ नहीं हैं। दर्शन और उपनिषद्-ग्रन्थों में सर्वत्र इसके उपायों का उल्लेख मिलता है, किन्तु ऐसा होने पर भी हम उस कुंए के मेढ़क की तरह आचरण करते हैं, जो कभी किसी के पात्र में पड़कर बाहर तो चला आता है किन्तु बाहर के प्रकाश को मूर्खतावश दुःखमय जानकर पुनः उसी कुंए में कूद जाता है। हमें सभी अच्छे साधन ज्ञात हैं, किन्तु उनका उपयोग हम इसलिये नहीं करते कि हमें विश्वास नहीं है कि वे साधन वास्तव में हमारे परम कल्याण के लिये हैं।

हम में से कुछ लोग दर्शन-शास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित है, किन्तु उनका भी आचरण साधारण मनुष्यों की तरह ही है। वे धन और विषय-वासनाओं में लिप्त हैं। यदि कोई उनसे बातचीत करे तो वे गीता उपनिषद् और पुराणों के श्लोक धड़ाधड़ कहते जायेंगे। उनका ज्ञान यदि उनके आचरण पर तनिक भी प्रभाव डालता तो वे महापुरुष हो जाते। किन्तु लज्जा की बात तो यही है कि सन्मार्ग जानते हुए भी उस पर आजकल के वाचनिक ज्ञानी चलते नहीं। यही दशा साधारण जनों की भी है। हम अपने सद्ज्ञान के आधार पर आचरण करने से डरते हैं। परिणाम यह होता है कि ऊँचे उठने के बदले हम प्रतिदिन गिरते जा रहे हैं। हमें विश्वास नहीं होता कि हमारे सद्ग्रन्थों में जिन मार्गों का आदेश किया गया है वे वास्तव में हमें सुख दे सकते हैं। संसार के महापुरुषों में भी हमारा वैसा ही अविश्वास है। कृष्ण और राम की शिक्षाओं और आदर्शों पर चलने वाला हम में से कदाचित ही कोई हो। आज भी हम राम और कृष्ण की पूजा करते हैं, किसी महान संन्यासी के सामने नतमस्तक हो जाते हैं और उसका आदर करते हैं किन्तु उसका आदर हम तभी तक करते हैं जब तक उसके सामने रहते हैं, उसकी नजर से हटते ही फिर पहले की ही भाँति गिर जाते हैं। ऐसी दशा में मनुष्य को क्षणिक श्रद्धा न करने के शाश्वत श्रद्धा करने के लिए अपना जीवन महापुरुषों के जीवन के समान ही बनाने की चेष्टा करनी चाहिये, यही मनुष्यत्व का प्रथम लक्षण है। ऊँचा उठने के लिए महापुरुषों में शाश्वत श्रद्धा रखना पहली सीढ़ी पर चढ़ जाना है, इसके पश्चात तो इस मार्ग से पीछे हटने को जी ही न चाहेगा।

हम सभी लोग कहते हैं कि हम मनुष्य हैं, हिन्दू हैं, ब्राह्मण या क्षत्रिय आदि हैं, किन्तु वास्तव में हम में कोई गुण नहीं, जिसके आधार पर हम अपने को मनुष्य भी कह सकें। व्यर्थ के लिये ही हम अपने को हिन्दू और ब्राह्मण आदि नामों से पुकारते हैं। किसी भी धर्म का अनुयायी होने के पहले अपने को मनुष्य बना लेना आवश्यक है। मनुष्यता के आधार सत्य और सहानुभूति हैं। यदि किसी में सत्य और सहानुभूति हो तो वह अवश्य ही मनुष्य कहलाने योग्य है। यदि उसमें ये दो रत्न नहीं चमकते तो वह मनुष्य नहीं है।

सत्य के अभाव में ही मानव-समाज का यह विकृत स्वरूप हो गया है। जितने लड़ाई - झगड़े, कलह और वैमनस्य मनुष्य-समाज में हैं, उनकी जड़ असत्य ही है। हम यहाँ सत्य का व्यापक रूप नहीं लेते, क्योंकि सत्य के व्यापक रूप में तो माननीय उन्नति का निःशेष तत्व ही निहित है। मेरा तात्पर्य सत्य से पारस्परिक व्यवहार के सत्य से है हम वो हैं, वही अपने को बाहर से भी दिख जाने की चेष्टा करें। बाह्याडम्बर से हम दूसरों को धोखा देते हुए अपनी आत्मा को भी कलुषित करते हैं। जो बात हृदय में हो वही मुख से भी निकलनी चाहिये। इस प्रकार सत्य का आचरण करते हुए मनुष्य अपने उत्साह को बढ़ाता है और अपने सहवासियों का भी परम उपकार करता है। हमें परमात्मा से प्रतिदिन विनय करनी चाहिये कि हमें नित्यप्रति सत्य का ही दर्शन हो।

सहानुभूति का सिद्धान्त सत्य की ही भाँति मनुष्यता का परिचायक है। जिस पुरुष में सहानुभूति होगी उसके व्यवहार में घृणा और क्रोध को स्थान नहीं मिलेगा। आधुनिक युग में मनुष्य अपने को दूसरों से अलग समझने लगा है। उसके मन में स्वार्थ की भावना ही प्रधान रूप से कार्यशील है। परिणाम यह होता है कि वह दूसरों के सुख-दुःख का विचार न करके अपना स्वार्थ साधने की चेष्टा करता है। इस स्वार्थ-साधना के लिए उसे दूसरों की हानि करनी पड़ती है-दूसरों को वह अपना शत्रु मान लेता है, किन्तु वह गलत मार्ग पर है। मनुष्य को अपने को दूसरों से भिन्न व्यक्ति न समझना चाहिये। जिसका स्वार्थ परार्थ ही हो, वही पुरुष वास्तव में ‘पुरुष’ नाम को सार्थक करता है। हम सभी लोग एक परमात्मा के अंश हैं- यही भावना हमको सदैव अपने मन में रखनी चाहिए। यह भावना प्रत्येक मनुष्य को इस योग्य बना देगी कि वह दूसरों को सुख दे सके। जैसे कोई फूल किसी से कुछ नहीं लेता किन्तु सबको समान रूप से आनन्द देता है, उसी प्रकार सज्जन अपने सदाचार से सबको प्रसन्न करता है। यदि किसी मनुष्य को रोटी न मिलती हो तो इस बात को यह समझकर नहीं टाल देना चाहिए कि इससे मेरा क्या सरोकार है। दूसरों की कठिनाईयों को अपनी ही कठिनाई समझना चाहिए। दूसरों के दुःख को अपना ही दुःख समझकर उसे दूर करने की चेष्टा करनी चाहिए। यह दया केवल मनुष्य के ही प्रति नहीं, किन्तु पशु-पक्षियों के प्रति भी होनी चाहिए। जो ईश्वर हमारा पिता है, वह उनका भी पिता है।

आध्यात्मिक उन्नति के लिए हमें श्रद्धापूर्वक ईश्वर की प्रार्थना करनी चाहिए कि वह हमें सत्मार्ग पर प्रवृत्त करें। अपनी सारी शक्तियों को परमात्मा के ही अर्पण कर देना सबसे बड़ी बात है। वही जो कुछ चाहे, हमसे कराये। हम जो कुछ करें, उसे ईश्वर का कार्य समझकर करें। ऐसी दशा में हम कोई भी बुरा काम कर ही नहीं सकते। ईश्वर सदैव हमारे पास है। वह हमारे कार्यों की परीक्षा करता है। हमारा सहायक है वह सबसे अधिक सहायता तभी करता है, जब हम सतत उनको अपने पास समझें। यदि ऐसा हमने समझ लिया तो हमारी आध्यात्मिक उन्नति होकर रहेगी और हम संसार के सुख और शान्ति का कारण बन सकेंगे।

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