
व्यर्थ का विवाद मत किया कीजिए।
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(श्री शिकण्ठलाल शुक्ल ‘सरस’)
प्रायः यह देखने में आया है कि जब हम दूसरों को अपनी विचारधारा में बहाना चाहते हैं या उनकी राय को बदलना चाहते हैं तो बुद्धि तत्व के आधार तर्क-वितर्क का अधिक सहारा होते हैं। मानव मन की भावनाओं और अनुभूतियों की लेशमात्र भी चिन्ता न करके तर्क-शास्त्र के शुष्क धरातल पर उतर आते हैं। इस बात पर बिलकुल ध्यान नहीं दिया जाता है कि भावनाओं और विभूतियों का क्या स्थान है। सीधे अनावश्यक वाद-विवाद को छेड़ देते हैं। अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट और हृदय प्रभावी बनाने की अपेक्षा हम दूसरों के दृष्टिकोण की कटु-आलोचना करने लगते हैं। अपने विचारों की व्याख्या उनकी उपयोगिता तथा उससे अन्य लोगों के संबंध आदि बातों को आकर्षक ढंग से रखना चाहिए। पर ऐसा न करके दूसरों के विचारों पर ही अनुचित ढंग से प्रहार करना प्रारम्भ कर देते हैं। विचारों की झोंक में गंवारु ढंग से कह उठते हैं कि वह गुमराह है। इस प्रकार उसके आत्म-सम्मान और आत्म गौरव की भावनाओं पर कठोर प्रहार कर देते हैं। शीघ्र ही द्वेषपूर्ण घृणा उत्पन्न हो जाती है और आपस में अनुचित शब्दों का आदान-प्रदान होने लगता है। इस प्रकार न तो हम दूसरों के दृष्टिकोण को बदल पाते और न उनको अपना मित्र ही बना पाते वरन् उनके पूर्व विचारों को और दृढ़ करके उन्हें अपना शत्रु बना लेते हैं।
इस प्रकार की असफलता का कारण स्पष्ट है। मूल कारण यह है कि हम यह बिलकुल भूल जाते हैं कि मनुष्य तर्क शास्त्र की सृष्टि नहीं है। मनुष्य अनुभूतियों और भावनाओं, विचारों और इच्छाओं द्वेष और घृणा, अभिमान और अहंकार, भय और आदर, शक्ति और सम्मान का दास है। वह तर्कशास्त्र के वशीभूत कभी नहीं हो सकता। हमें सदैव ध्यान रखना चाहिए कि वे लोग मनुष्य हैं देवता नहीं हैं। उनके विचार और भावनाएं शिलाखण्ड पर लिखे अक्षर नहीं हैं। हम में से प्रत्येक अपने को बुद्धिमान, विचारवान तथा तर्कशास्त्री होने का दावा करता है और उसके अनुसार प्रयत्न भी करता है। परन्तु जब वही बात प्रत्यक्ष अनुभव में आती है तो हमें ज्ञात होता है कि हमारा प्रदर्शन बुद्धितत्त्व की अपेक्षा पूर्व निर्मित धारणाएं तथा कल्पनाएं अधिक करती हैं। तर्कता हमारे साथ कार्य करने में असमर्थ सिद्ध होती है।
तर्क-वितर्क से विजय बहुत कम होती है। अधिकतर व्यर्थ सिद्ध होता है। यदि कभी विजय भी हो जाए तो वह विजय पराजय से भी गई बीती होगी। मान लिया कि हमने किसी को अपने तर्क-बल से कोई बात मन वाली और उसे स्वीकार भी कर ली। पर विश्वास रखना चाहिए कि यह मान्यता बाहरी और क्षणस्था है। उसके विचारों में कोई स्थायी परिवर्तन नहीं हो सकता। वह हमारी आश्चर्यजनक प्रभावशालिनी तर्कता के सामने ठहर न सके, वह वचनबद्ध भी हो जाए, अपना आत्म-सम्मान भी कर दे और हाँ, भी कह दे। यह सब कुछ होने पर भी हृदय नहीं बदल सकता।
यह स्वाभाविक बात है कि हम उन्हीं बातों में विश्वास करना अधिक पसन्द करते जिनमें बहुत पहले से विश्वास करते आ रहे हैं। हम इस बात की बहुत कम परवाह करते हैं कि हमारा विश्वास तर्कपूर्ण या तर्कहीन है। मानव मन अपनी स्मृतियों से स्नेह करता है। जो विचार हमारे मस्तिष्क में घर कर चुके हैं उनके प्रति सम्मान की भावना अवश्य बढ़ती रहती है। उन विचारों से हमें ममता और मोह होता है अतः उनका अपहरण हमारे लिए अवहय होगा। जब हमें यह ज्ञात होगा कि कोई व्यक्ति उसको लूटना चाहते हैं, तो हृदय व्याकुल हो उठता है। हम यह कभी भी सुनने को तैयार नहीं होंगे कि हमारे विचार निरर्थक हैं। जब कोई हमारे प्रिय विचारों पर प्रहार करना चाहता है तो हम अपनी पूर्ण शक्ति के साथ उनकी रक्षा करते हैं। दूसरों की ओर से बिलकुल कान बन्द कर रक्षा के लिए शत्रुता का रुख धारण कर लेते हैं। जितना ही इस बात का प्रयत्न किया जाता कि हमारे विचार ठीक नहीं उतना ही हम अपने विश्वासों में दृढ़ होते जाते हैं। यही है मानव स्वभाव। यह बात हमारे साथ, आपके साथ और के साथ है। तर्क-वितर्क, खण्डन-मण्डन में भेदभाव अधिक बढ़ता है। इसमें घृणा के कारण ऐसा अन्तर पड़ जाता है। कि उस अन्तर को भरना कठिन हो जाता है। ऐसी अवस्था में दूसरों पर वास्तविक विजय कभी सम्भव नहीं हो सकती।
यदि हम तर्क-वितर्क, वाद-विवाद तथा खण्डन-मण्डन आदि को त्यागकर मैत्रीपूर्ण ढंग से दूसरों के विचारों के प्रति प्रेम तथा सम्मान प्रकट करें तो सफलता के प्रयोग अधिक प्राप्त होते हैं। यदि हम किसी को प्रेम और सहानुभूति के साथ सन्तुष्ट कर सकें या कोई बात मनवा सकें तो निःसन्देह हम उसके वास्तविक शुभचिन्तक तथा सच्चे मित्र बन जायेंगे। उसका हम में विश्वास होगा। यदि और कुछ नहीं तो कम से कम हमारी बात तो ध्यानपूर्वक अवश्य सुनेगा। उसके विचारों को निरर्थक कहने की अपेक्षा यदि हम अपने सुलझे विचारों से उसको प्रभावित करते हुए उसके हृदय को छूने का प्रयत्न करें तो यह निश्चय है कि वह हमारी ओर आकर्षित होने लगेगा।
तर्क-वितर्क तथा बाल की खाल निकालने से हम मित्र नहीं बना सकते। सच्चे मित्र इस ढंग से प्राप्त नहीं होते हैं। वह मार्ग दूसरा ही है। वह प्रेम और सहानुभूति का मार्ग है जिस पर मित्र ही मित्र दिखाई पड़ते हैं। प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक बात है। यदि आप किसी को गाली देंगे तो बदले में आप गाली खायेंगे। यदि आप किसी को मूर्ख कहेंगे तो आपको भी मूर्ख बनाया जायगा। आप आलोचना करेंगे तो आपको प्रत्यालोचना मिलेगी। अतः यदि आप प्रेम करेंगे तो अवश्य प्रेम प्रतिदान होगा। जैसा बोयेंगे वैसा काटेंगे यह सीधी सी बात है।
प्रेम ही ऐसी महान शक्ति है जो प्रत्येक दशा में जीवन को आगे बढ़ाने में सहायक होती है। हमें सदैव सहनशीलता तथा धैर्य का सहारा लेना चाहिये। प्रत्येक की बात को सुनने का स्वभाव होना चाहिए। कट्टरता और कायरता को त्यागकर प्रत्येक को प्रसन्न करने का प्रयत्न करना चाहिए। दूसरों की कटु आलोचना को छोड़ देना चाहिए, विश्वास रखिए कि आपकी प्रेम और सहानुभूतिपूर्ण सच्ची बातों को सुनने के लिए दुनिया विशेष होगी।
सही मान्यता प्रेम द्वारा ही हो सकती है। बिना प्रेम के मान्यता कृत्रिम होगी। शेक्सपियर के अनुसार किसी के विचारों में परिवर्तन नहीं लाया जा सकता। विचार तर्क-वितर्क की दृष्टि नहीं हैं। विचारधारणा तथा विश्वास बहुकाल के सत्संग से बनते हैं। अधिक समय की संगीत का ही परिणाम प्रेम है। इसलिए विचारधारणा अथवा विश्वास प्रेम का विषय है।
अतः यदि हम दूसरों पर विजय प्राप्त करके उनको अपनी विचारधारा में बहाना चाहते हैं, उनके दृष्टिकोण को बदलकर अपनी बात मनवाना चाहते हैं तो प्रेम का सहारा लेना चाहिए। तर्क और बुद्धि हमें आगे नहीं बढ़ा सकते। वास्तव में प्रेम ही वशीकरण का मूल मंत्र है।