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Magazine - Year 1953 - Version 2

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आप किसी से मत डरिये

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(प्रो. रामचरण महेन्द्र, एम.ए.)

यदि तुम अपनी निर्बलताओं से भयभीत होगे, तो स्मरण रखो वह भय द्विगुणित होकर तुम्हें अधिकाधिक क्षुब्ध करेगा। अप्रत्यक्ष रूप से, अपनी कमजोरियों का चिन्तन तुम्हारी इच्छा, संकल्प, सामर्थ्य की शक्तियों का क्षय करेगा। दिन रात अपनी निर्बलताओं के चिन्तन का घातक प्रभाव मानव मन पर पड़ता है। अपने विपक्ष में सोचना, विचारना अपने पतन का मार्ग तैयार करना है।

यदि तुम अपने शत्रुओं से डरोगे, तो तुम्हें तुम्हारे विपक्ष में युद्ध करने का बल प्राप्त होगा और तुम्हारी त्रुटियाँ स्वतः तुम्हारे ही विपक्ष में प्रतिकूलता में कटिबद्ध हो जायेंगी। शत्रु भय की दूषित कल्पना कितने ही उदीयमान पुरुषों के अन्तःकरण को श्मशान भूमि में परिणत कर देती हैं।

मैं ऐसे अनेक व्यक्तियों को जानता हूँ जो अर्ध विकसित, मानसिक अवस्था में कल्पित शत्रुओं या अपनी कमजोरी की मिथ्या भावना के चंगुल में फंसकर क्रमशः अपनी कार्य-शक्तियों का क्षय कर रहे हैं। वे चुपचाप किसी के डर से परेशान हैं। प्रायः कभी न आने वाली विपत्तियों तथा कल्पित भय की भावना से वशीभूत होकर अपने साहस पूर्ण प्रयत्नों एवं महत्वाकाँक्षाओं को चूर्ण-चूर्ण कर बैठे हैं।

हमारे मन की निर्बल आदतों को जन्म देने वाला सबसे बड़ा विकार भय देने वाला है। हम यों ही डरा करते हैं। भय हमारे गुप्त मन में संस्कारों के रूप में बस जाता है। फलतः अन्धविश्वास, अकर्मण्यता, अधैर्य, ईर्ष्या, असन्तोष, मन की चंचलता इत्यादि मनोविकार उत्पन्न होते हैं। कल्पित भय की भावना मन से निकाल देने पर ये विकार स्वतः नष्ट हो जाते हैं। मूलोच्छेदन करने पर विषवृक्ष की शाखा-शाखाएं स्वतः शुष्क एवं निर्जीव हो जाती हैं।

कितने ही व्यक्ति साधारण सी बातों या स्वयं अपने कार्य, चरित्र, या योजनाओं के बारे में दूसरों की राय लेने के बड़े इच्छुक होते हैं। अमुक व्यक्ति के मेरे विषय में क्या-क्या विचार हैं? अमुक व्यक्ति मेरे चरित्र के बारे में क्या सोचता होगा? साधारण जनता ने मुझे कैसा समझा है? जब मैं बाजार में से निकलता हूँ तो वो मेरी साख की बाबत क्या सोचते हैं? मेरे बाल बच्चों, पुत्रों, परिवार आदि की शक्ति के विषय में क्या-क्या फैला है? जब मनुष्य इस प्रकार के तर्क वितर्कों में फंस जाता है, तो समझना चाहिये वह कल्पित मानसिक शत्रुओं के भय से ग्रसित है। उसके मन में निर्बलता की भावना गुत्थी छिपी है और वह तज्जनित भय-मित्रों की प्रतिच्छाया मा मात्र यत्र-तत्र देख रहा है। जिस प्रकार दूसरों के दोष दर्शन एक प्रकार का मानसिक विकार है, उसी प्रकार निरन्तर स्व-दोषों का चिंतन भी घृणित कार्य है।

बाईबल में एक बड़ा उपयोगी मनोवैज्ञानिक सूत्र मिलता है- “तुम्हारे पास जो वस्तु अधिक है, वह और भी अधिक तुम्हें प्राप्त होगी, जिस चीज की कमी है, वह जो थोड़ी बहुत है वह भी छीन ली जायेगी।”

यदि तुम्हारे पास कमजोरी का आधिक्य है, तो वह कमजोरी (निरन्तर चिन्तन द्वारा) तुम्हें और अधिक प्राप्त हो सकती है। यदि तुम्हारे पास साहस की पूँजी है तो उसके संपर्क से शुभ पौरुष पूर्ण विचारों की और भी अभिवृद्धि होगी। जैसा मन में बीज रहेगा, वैसा ही वृक्ष एवं फल प्राप्त होगा। तो चीज थोड़ी है, उसका कारण यह है कि उसका तुम उपयोग नहीं कर रहे हो। अतः एक समय ऐसा आ सकता है, जब इसका पूर्ण रूप से क्षय हो जाय।

यदि तुम दिव्य प्रकाश से अपना अन्तरिक्ष आलोकित करना चाहते हो, तो हृदय के गहनतम स्थल में भव्य विचार स्थिर करो। उज्ज्वल भविष्य की भावना करो। “हमारा भविष्य प्रकाशमय होगा, हमें यश, प्रतिष्ठा एवं नेतृत्व का गौरव प्राप्त होगा, हम श्रेष्ठतम नागरिकों जैसे कार्य करेंगे, हम निश्चित एवं निःशंक होकर जीवन -निर्वाह कर सकेंगे, हमारा अन्तःकरण श्रद्धा एवं उत्साह से परिपूर्ण रहेगा और हम परिपुष्ट भावना में रमण करेंगे।” ऐसी पवित्र संकल्पमयी विचारधारा में निवास करने से कल्पित भयों का समग्र नाश हो जाता है।

तुम्हारी व्यर्थ की चिन्ताएं, तुम्हारे कल्पित भय, तुम्हारा क्षोभ स्वयं तुम्हारे अपने उत्पन्न किये हुये मानसिक विकास हैं। प्राकृतिक रूप से, इन दुष्ट भावनाओं से तुम्हारा कोई साहचर्य नहीं है। तुम पूर्ण निर्भय हो। तुम्हें अपने सत्पथ पर आरुढ़ रहना चाहिए। खिल्ली उड़ाने वाले थोथे व्यक्तियों से तनिक भी विचलित नहीं होना चाहिए। तुम चाहो तो इन कंटकों को गले में हार की तरह धारण कर सकते हो।

तुम्हारा वास्तविक स्वरूप अत्यन्त पवित्र है। तुम सत् चित्त आनन्द स्वरूप हो। किसी प्रकार के अनिष्ट विचार की दूषित छाया तुम्हारे कार्यों पर नहीं पड़नी चाहिए। तुम्हारा अन्तःकरण रूपी दर्पण स्वच्छ रहना चाहिए। जिसमें तुम अपना अकलुष स्वरूप देख सको। उसे आत्मश्रद्धा, विवेक और निष्ठा की रेत से रगड़कर प्रशस्त कर डालो। तत्पश्चात् किसी प्रतिकूल भावना का उस पर प्रभाव न पड़ेगा।

मन में आत्म-श्रद्धा, विश्वास और अपनी महानता के विचार दृढ़ता से स्थिर कर लो, तो तुम अपने जीवन में एक नया पृष्ठ खोल सकोगे। तभी तुम मानव जीवन का दिव्य उद्देश्य समझोगे और उसका उचित आदर करना सीखोगे।

विज्ञान का अकाट्य सिद्धान्त है कि एक स्थान पर दो परस्पर विरोधी वस्तुएं नहीं टिक सकती, जब तुम आत्म विश्वास के दिव्य विचारों से मनो मंदिर को भर लोगे, उसी भावना में तन्मय हो जाओगे, तो कल्पित भयों का अन्धकार किस प्रकार टिका रह सकता है?

निर्भय होकर जिओ। अपनी दुर्बल भावनाओं को अपने ऊपर विजय न प्राप्त करने दो। तुम ईश्वर के दिव्य अंश हो, परमपिता परमेश्वर के राज्य में तुम पूर्ण निर्भय हो।

यदि तुम कभी हताश होकर डरपोकपन का एक शब्द भी बोलोगे, या स्थान दोगे, तो तुम्हारे विपक्षियों को मानों तुम्हारे ऊपर आधी विजय प्राप्त हो चुकी होगी। मन का वातायन खोलो और धैर्य, दृढ़ता, आत्म श्रद्धा का निर्मल प्रकाश अन्तःकरण में प्रविष्ट कर दो। प्रकाश-तुम्हें दिव्य प्रकाश चाहिए।

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