
सेवा में और श्रम की महानता
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(श्री स्वामी सत्यभक्त जी)
जीवन-निर्वाह के लिए जिस विशेष सामग्री की जरूरत पड़ती है वह धन है। इसलिए हमें धन की सख्त जरूरत है पर आज जीवन के लिए धन नहीं रह गया है, धन के लिए जीवन हो गया है! हर आदमी जीवन खोकर, भाईचारा खोकर, सुख-शान्ति खोकर, ईमान खोकर जिस किसी भी तरह धन कमाने के पीछे पागल बना फिरता है। पर इससे दुनिया में धन नहीं बढ़ा, धन का नशा बढ़ा, धन का पागलपन बढ़ा, इससे दुःख बढ़ा, अशान्ति बढ़ी, बैर और घमण्ड बढ़ा, क्रूरता बढ़ी, बेईमानी बढ़ी और हमारी शैतानियत बढ़ी। मनुष्य धन न खा सका, धन ने मनुष्य को खा लिया।
यह ठीक है कि धन के बिना काम नहीं चल सकता। थोड़ा बहुत धन तो हमें चाहिये ही, पर जितना चाहिये उसी के पीछे यह सब अनर्थ नहीं हो रहा है। अनर्थ वे ही लोग कर रहे हैं जिनके पास जरूरत से अधिक धन है। आखिर सवाल होता है कि ‘जरूरत’ से अधिक धन का लोग क्या करते हैं? क्यों मनुष्य उसके पीछे पागल हो रहा है?
मनुष्य को भोजन चाहिये, रहने को मकान चाहिये, यहाँ तक किसी की धन लालसा हो तो वह ठीक कही जा सकती है पर देखा जाता है कि इनकी पूर्ति होने पर भी मनुष्य अपने को दीन समझता है और उनके सामने गिड़गिड़ाने को तैयार हो जाता है, जिनके सामने झुकने को उसकी अन्तरात्मा तैयार नहीं होती। वह सदाचारियों, जनसेवकों और गुणियों को उतना महत्व नहीं देता, जितना अपने से अधिक धनियों को। इसलिए प्रत्येक मनुष्य धन-संग्रह की ओर बढ़ता चला जा रहा है। उतने धन की आवश्यकता है या नहीं इसका विचार वह नहीं करता क्योंकि जीवन के लिये जरूरत हो या न हो किन्तु महान बनने के लिए तो जरूरत है ही।
मनुष्य में महान कहलाने की लालसा तीव्र से तीव्र है और महत्ता का माप धन बन गया है इसलिये मनुष्य धन के पीछे पड़ा हुआ है। यह बिलकुल स्वाभाविक है। अगर दुनिया में धन से महत्ता मिलेगी तो लोग धन की ओर झुकेंगे, अगर गुण, सेवा सदाचार आदि से मिलेगी तो उसकी तरफ झुकेंगे। मनुष्य को महान बनना चाहिये और दुनिया को महान बनाने वालों की कद्र करना चाहिये। पर धन और अधिकार से महान बनने वाले की कद्र करना समाज के कष्टों को बढ़ा लेना तथा सच्चे सेवकों को नष्ट कर देना है। किसी आदमी की कद्र करने का अर्थ ही यह है कि वह समाज की ऐसी सेवा कर रहा है जिसका बदला हम भौतिक दृष्टि से नहीं चुका पा रहे हैं इसलिये उसे महान कहकर उसका आदर, यश बढ़ाकर हम दिला देना चाहते हैं। इसलिए जिस मनुष्य की जितनी निःस्वार्थ जन-सेवा हो उसी के अनुरूप उसे महान मानना चाहिये।
आम जनता महत्ता की यह परिभाषा भूली हुई है। वह समझती है कि जिसने किसी भी तरह धन पैदा कर लिया वह महान है और उसकी हमें इज्जत करनी चाहिये। जो जितने विलास का प्रदर्शन कर सकता है वह उतना ही महान है इसलिए हमें उसकी इज्जत करनी चाहिये। इसका परिणाम यह हुआ है कि लोग धन और विलास की तरफ झुकते हैं। सच्ची सेवा, सदाचार और गुण नष्ट होते जाते हैं।
किसी जमाने में अधिक सेवा के बदले में अधिक धन को देखकर उसकी वास्तविक महत्ता का अंदाज बाँधना भी ठीक रहा होगा, पर वह समय हमारी कल्पना का ही विषय है, इतिहास के पन्नों में वह नहीं दिखाई देता। आज तो सैकड़ों हजारों में ऐसा एकाध आदमी होता है जो अपनी वास्तविक सेवा या महत्ता के कारण धनी बना हो। अधिकाँश धनी तो बाप-दादों की जायदाद से धनी बने हैं या सट्टे से, या किसी बेईमानी से या अकस्मात् किसी की सम्पत्ति हाथ आ जाने से, या दम्भ ठगी आदि से बने हैं, उनके इन कामों से जगत का नुकसान ही हुआ है। ऐसी हालत में उन्हें किसी तरह का महत्व क्यों दिया जाय? उन्हें महान क्यों माना जाय?
हाँ, हर एक तरह के विनयम् का आधार धन ही है इसलिये धनी महत्ता खरीद सकता है। आप गुणी सेवक होने पर भी धूल फाँकते हुए पैदल चलते हो और वह आपकी बगल से सर्राटे से चमचमाती मोटर में निकल जाय। आप थर्ड क्लास में सिकुड़कर बैठे हों और वह फर्स्ट क्लास में आराम से लेटा हुआ हो। आप सादा भोजन कर रहे हों और वह तरह तरह की विलायती चीजें उड़ा रहा हो। आप अपने घर में झाडू लगाते हो और वह नौकरों से सब काम कराता हो। इस प्रकार के अन्तर से वह आप पर महत्ता की छाप मार रहा हो यह सब हो सकता है पर इन सब बातों से आपमें दीनता पैदा होनी चाहिये। जब आप जानते है कि दुनिया सौ में निन्यानवे लोग अयोग्य होने पर भी, जनसेवक न होने पर भी दम्भ, अनीति, बेईमानी, शोषण आदि से धनी बन जाते हैं तब आप में दीनता का क्या कारण है? पाप, आलस्य, मूर्खता आदि ही दीनता के कारण कहे जा सकते हैं। अगर आप में ये नहीं हैं तो आप दीन नहीं हैं और अगर आप दुनिया की उपयोगी सेवा करके उसका बदला धन से पूरा नहीं ले रहे हैं तो आप महान हैं। फिर भले ही आप थर्ड क्लास में सफर करें, झोपड़ी में रहें, साधारण भोजन करें, घर के छोटे-मोटे काम अपने हाथ से करें। इन बातों से आप में किसी तरह की दीनता न आनी चाहिए। न आप खुद को दीन समझें, न आप धन और विलास देखकर किसी जगह महान समझें। जब आपका दृष्टिकोण बदल जाएगा और धीरे-धीरे समाज का दृष्टिकोण भी बदल जायेगा, तब व्यक्तियों का झुकाव धन संग्रह की तरफ इतना न होगा जितना सदाचार, परोपकार तथा गुणों की तरफ होगा। इस प्रकार दुनिया से पाप और दुःख की जड़ उखड़ जायेगी।
धन और धनियों के बारे में आपको अपना विचार, व्यवहार और शिष्टाचार सुधारना चाहिये। इससे इस पाप के उखाड़ने में काफी मदद मिलेगी। इस विषय में कुछ सूचनाएं यहाँ दी जाती हैं।
1- किसी भी धनवान को देखकर यह न सोचिए कि वह महान है। अगर वह वंश परम्परा से धनवान है जब यही सोचिये कि इसमें उसकी कोई बहादुरी नहीं है, यह तो उत्तराधिकारी सम्बन्धी सामाजिक पाप का परिणाम है, जिसमें उत्तराधिकारी की योग्यता से कोई मतलब नहीं। अगर पूँजीवाद के कारण धनवान है, तो यह सोचिये कि यह भी समाज के पाप का परिणाम है। अगर विद्या कला आदि के कारण वह धनी है तब यह सोचिये कि यह तो अकस्मात की बात है, नहीं तो सैकड़ों विद्वान और कलाकार मारे-मारे फिरते हैं, अकस्मात किसी को विद्या कला के कारण अन्य विद्वानों और कलाकारों से अधिक प्राप्ति हो गई है तो इसी से वह अन्य विद्वानों आदि से महान नहीं हो सकता, संभव है इस ऊपरी सफलता के लिये उसने दम्भ आदि से काम लिया हो, ईमानदारी की हत्या की हो ऐसी हालत में उसे महान कैसे कह सकते हैं?
2- जो विद्वान किसी कलाकार किसी धनी के आश्रित हैं और इससे कुछ विलास कर रहे हैं इससे उन्हें महान न समझिये। क्या कुत्ते भी धनियों के साथ उनकी मोटर में बैठकर नहीं निकलते?
3- सैकड़ों में एकाध के हिसाब से ऐसे भी धनी हैं या हो सकते हैं जो धन का घमण्ड नहीं दिखाते, जरूरत होने पर सेवा के लिये गरीबों, असहायों की झोपड़ियों में जाते हैं, दम्भ नहीं करते, विलास का प्रदर्शन नहीं करते, सम्पत्ति जगहित के काम में लगाते हैं, नम्र रहते हैं, गुणानुरागी हैं, उनकी प्रशंसा उनके धनी होने के कारण न कीजिये किन्तु उनके गुणों के कारण कीजिये। सदा गुणों को ही महत्ता दीजिये। ऐसे आदमी अगर लखपति हैं तो उनकी इज्जत साधारण करोड़पतियों से भी अधिक कीजिए।
4- दानी का सम्मान करते समय सिर्फ यह नहीं देखिए कि उसने कितना दान किया है किन्तु यह देखिये कि उसने अपनी सम्पत्ति का कौन सा हिस्सा दान किया है, सेवा और जनहित की दृष्टि से किया है या आत्मश्लाघा के लिए?
5- धन विनयम् का आधार बना हुआ है, धनी आदमी हर तरह धन के द्वारा मनचाही चीजें ले लेता है इसलिये उसका ध्यान रखने की जरूरत नहीं है, जरूरत है उसका ध्यान रखने की, जो अपनी सेवाएं आर्थिक विनियम के बिना या उसका ख्याल रखें बिना देते रहते हैं वे समाज के सच्चे साहूकार हैं। यश, आदर, सुविधाएं देकर समाज को उनका ऋण चुकाना चाहिये और आपको भी चुकाने में हिस्सा लेना चाहिये।
6- श्रम को नीची नजर से न देखिये। एक श्रीमान ने नौकर के हाथ से गुलाबजल मिला हुआ शरबत पिला दिया, इसकी अपेक्षा अपने हाथ से मामूली पानी पिलाने वाले का आदर अधिक कीमती है, उसे आप ऊंची निगाह से देखिये। श्रम-विभाग की बात दूसरी है। घर में श्रम का बंटवारा होने से किसी को कोई एक श्रम करना पड़ता हो, किसी को कोई दूसरा श्रम। इसमें कोई हर्ज नहीं, पर इस बात की शेखी मारें कि मुझे मेहनत नहीं करनी पड़ती इसलिये मैं महान हूँ तो उसे महान न समझ कर हरामखोर समझिये।
7- सदाचारी, गुणी, परोपकारी आदि का विनय आप करते हैं उससे अधिक या उतना विनय धनी का कदापि न कीजिये। हाँ, धनी में उपयुक्त गुण हैं तो गुणी की हैसियत से सम्मान करना उचित ही है।
8- धनियों-धनियों में इस बात का विवेक रखिये कि किसने किस तरह धन कमाया है। बेईमानी, विश्वासघात, दुराचार आदि से धन कमाने वाले धनी की अपेक्षा उस छोटे धनी को अधिक महत्व दीजिये जिसने इस प्रकार पाप नहीं किये हैं।
9- धन के ही कारण जो लोग सार्वजनिक सेवा क्षेत्र के या राजनैतिक क्षेत्र के पद हथिया लेते हैं उनका विरोध कीजिये। धनियों को राजनैतिक पदों पर नियुक्त न होने दीजिये। ये पद विद्वान सत्सेवकों के लिए निश्चित करने की कोशिश कीजिये। धनियों के पास धन ही काफी बड़ी शक्ति और सुविधा है अब अगर उनके हाथ में ब्राह्मण तथा शासक की सुविधा भी आ जाय तो शैतानियत और हैवानियत का नंगा नाच होने लगे। इससे बचने बचाने की यथाशक्ति कोशिश कीजिए।
10- स्वार्थ की दृष्टि से नहीं किन्तु परमार्थ की दृष्टि से आप अपना व्यवहार शिष्टाचार आदि ऐसा बनाइए जिससे मालूम हो कि आप धनी कि अपेक्षा सदाचारी परोपकारी गुणी की अधिक इज्जत करते हैं।
आज धन का मनुष्य के ऊपर भयंकर आक्रमण हो रहा है। इसके लिये कोई निन्दा करने की जरूरत नहीं है। यह मनुष्य मात्र की या समाज की कमजोरी है। जो गरीब है वे भी धन में और विलास में महत्ता देखते हैं, उसी की तरफ झुकते हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि सत्य, अहिंसा, सेवा, सदाचार, विद्या कला आदि सभी लक्ष्मी के द्वारा कुचले जा रहे हैं। इससे मनुष्य, मनुष्य का घातक बन गया है और जब तक हम धन को महत्ता देंगे तब तक ऐसा होगा ही। आप धनियों को पीठ पीछे गालियाँ दें पर मुँह पर चापलूसी करें, गुणी जनसेवकों की अपेक्षा अधिक इज्जत करें, आप उनके गीत गायें, खुद भी धनी बनने के लिए हजार कार्य करने को तैयार रहें तो समाज का प्रवाह नहीं बदल सकता। धन की तरफ झुकना धनी की या व्यक्ति की ही कमजोरी नहीं है वह समाज की कमजोरी है। समाज को धन की कद्रदानी घटानी होगी, दूर करनी होगी, तब मनुष्यता की हत्या होने से बचेगी। समाज एक दिन में एक साथ ही यह पाप दूर करेगा नहीं, वह तो एक-एक व्यक्ति को धीरे-धीरे हटाना होगा सो उसके लिए हर एक व्यक्ति को तैयार होना चाहिये। हाँ, छोटे-छोटे संगठनों के जरिये इस आवाज को बुलन्द किया जा सकता है।