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Magazine - Year 1953 - Version 2

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गौमाता की रक्षा की जानी चाहिए।

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(पं. ठाकुरदास भार्गव)

गोवंश से हमारे देश का ऐसा ही सम्बन्ध है जैसे शरीर का प्राण से। हमारे शरीरों को स्थिर और ताकतवर रखने के लिए अन्न शाक, सब्जी, दूध, घृत आदि जिन पदार्थों की आवश्यकता है उन्हें उत्पादन करने का मुख्य आधार गोवंश से ही है। संसार के अन्य देशों में खेती का काम थोड़ा और मशीनों से लिया जाता है पर हमारे देश में मुख्यतः हल चलाने रहट के द्वारा कुएं आदि से सिंचाई करने, भार वहन आदि का काम बैलों से ही लिया जाता है। भूमि को उपजाऊ रखने के लिए गोबर और गोमूत्र सर्वश्रेष्ठ तथा सुलभ खाद हैं। देश के करोड़ों लोग जो निरामिषभोजी हैं उनकी शारीरिक शक्ति दूध ही पर निर्भर है। यद्यपि भोजन करने वालों के लिए भी स्वास्थ्य अच्छा रखने के लिए दूध तथा दूध से बने पदार्थ आवश्यक हैं। दरअसल हमारे देश के लोगों की आर्थिक तथा शारीरिक उन्नति गोवंश पर ही निर्भर है। इसलिए सदैव से भारत में राजा और प्रजा दोनों ने गोवंश की उन्नति पर ध्यान दिया। हिन्दू राज्यकाल में ही नहीं मुसलमान बादशाहों ने भी गाय के महत्व को समझा। नवाब झझर ने देश की सर्वप्रसिद्ध गायों की हरियाणा नस्ल को तथा टीपू सुलतान ने अमृतमहल को उन्नत किया। बादशाह बाबर ने अपने पुत्र हुमायूं को गौवध बन्द रखने की नसीहत दी तथा प्रायः मुसलमान बादशाहों के समय में गौहत्या नहीं हुई। मुस्लिम काल में गोवध की उन्नति के कारण एक पैसे सेर दूध तथा एक आने सेर तक घी बिका है।

अंग्रेजी राज्य के साथ-साथ गोवंश का ह्रास तथा विनाश आरम्भ हुआ। नस्ल सुधार और उन्नत करने की प्राचीन प्रथाएं खत्म हुईं। चमड़े,चर्बी,हड्डी, आदि का विदेशों में निर्यात करने के लिए वृद्ध तथा अपंग ही नहीं बल्कि अधिक से अधिक दूध देने वाली गायों का वध होने लगा। 1950 में ही कलकत्ता के बन्दरगाहों से 40 लाख से अधिक पशुओं की खालें बाहर भेजी गयीं। और यह व्यापार यहाँ तक बढ़ा कि आज संसार भर में भारत गाय की हलकी खाले आवश्यक निर्यात करने में सर्वप्रथम स्थान रखता है। विदेशों में भी प्रायः अच्छे चमड़े और माँस की ही माँग रहती है जो वृद्ध अपंग पशुओं से नहीं नए जवान और स्वस्थ पशुओं से ही प्राप्त किया जा सकता है। खालों के निर्यात के लिए बछड़े भी मारे जाते हैं। संसार भर में किसी भी देश में उपयोगी पशुओं का वध नहीं होता। पर हमारे देश में बड़े नगर उपयोगी गाय, भैंस, बछड़े और बछड़ियों की वध भूमि बने हुए हैं। सरकार ने कुछ प्रान्तों में उपयोगी पशुओं का वध बन्द करने के कानून बनाये हैं। और उनसे जितना लाभ होना चाहिए उनसे उतना लाभ नहीं होता है।

गोवंश के विनाश के अतिरिक्त अंग्रेजी राज्यकाल में नस्ल सुधार के काम में बहुत नुकसान पहुँचा। सरकार और जनता दोनों की उपेक्षा के कारण गायों की अच्छी-अच्छी नस्लें खराब हो गयी। हिसार और रोहतक के जिला में 50 वर्ष पहले ऐसी गायें थी जो बीस-बीस सेर दूध देती थीं। बैल भी मजबूत थे पर आज वहाँ दस सेर वाली गाय का मिलना कठिन हो गया है तथा ऐसी हालत प्रायः देश भर की है। आज हरियाणा की साधारण गाय 6-7 सेर से अधिक दूध नहीं देती। कुछ लोगों का ख्याल है कि हिसार के सरकारी फार्म के जो सन् 1809 में स्थापित किया गया था, तैयार किए साँडों ने इस प्रसिद्ध नस्ल को खराब किया है। यह विशेषज्ञों का काम है कि वे इस फार्म के काम की जाँच करे। हिसार का सरकारी फार्म भारत की ही नहीं, एशिया की सबसे बड़ी पशुशाला है। इसका प्रभाव देश भर पर पड़ता है। इसलिए इसकी हानि और लाभ के साथ-साथ देश के बहुत बड़े भाग के हिताहित का सम्बन्ध है।

चारे की कमी

अंग्रेजी राज्य से पहले लोग अधिकतर ऐसी ही चीजों का उत्पादन किया करते थे जो जीवन के लिए उपयोगी हों। अतः उन दिनों देश में खाने पीने की चीजों की कमी नहीं थी। पर अंग्रेजी राज्य की उन्नति के साथ-साथ केवल मात्र धन पैदा करने वाली फसलों की उन्नति हुई जिसके कारण पशुओं के लिए आवश्यक चारा मिलना मुश्किल हो गया। जंगलों में पशुओं के चरने पर प्रतिबन्ध लगने के कारण भी समस्या उत्पन्न हुई। उनमें गौवंश के ह्रास और विनाश की भी एक समस्या है। गौवध की अवनति के कारण आज देश के लोगों को न पर्याप्त दूध, घी ही मिलता है न बैल। भोजन में विशेषज्ञों के मतानुसार कम से कम प्रति मनुष्य नित्य 10 औंस या 5 छटाँक दूध मिलना चाहिए। 1935 में 7 औंस के करीब मिलता था पर आज 4 औंस से अधिक नहीं। आवश्यक दूध या दूध के पदार्थ न मिलने से जनता की शारीरिक शक्ति दिन−प्रतिदिन कम होती जा रही है और बीमारी की समस्या बढ़ती जा रही है। खेती के लिए आवश्यक तथा अच्छा बैल न होने के कारण जितनी पैदावार होनी चाहिए उतनी नहीं होती।

हमारे देश की आर्थिक तथा शारीरिक उन्नति का मुख्य आधार गोवंश है। अतः हमें किसी और दृष्टि से नहीं राष्ट्रीय दृष्टि से विचार करना है। इसीलिए महात्मा गाँधी ने बेलगाँव में गोरक्षा परिषद के अध्यक्ष की हैसियत से कहा था कि मैं गोरक्षा के सवाल को स्वराज्य के प्रश्न से भी बड़ा मानता हूँ। जो सज्जन गोरक्षा के प्रश्न को गौण समझते हैं या महत्व नहीं देते है उन्हें गाँधी जी के वचनों पर ध्यान देना चाहिए।

गौरक्षा कैसे होगी

मनुष्य कई काम केवल मात्र भावना वश करता है। कितने ही कार्यों में ज्ञान को महत्व दिया है पर गोरक्षा का प्रश्न केवल मात्र भावना से हल नहीं होगा। भावना, ज्ञान और कर्म तीनों की आवश्यकता है। हमारे देश के करोड़ों लोग गोरक्षा की भावना रखते हैं। बार-बार जनता की ओर से कानूनी तौर पर गौहत्या बन्द करने की माँग की जाती है। इस माँग का समर्थन सन्त बिनोवा भावे जैसे महापुरुष ने किया है। राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने भी अखिल भारतीय गो प्रदर्शनी हिसार के भाषण में गौहत्या निषेध को महत्व दिया है। यह स्पष्ट देखा है कि गौहत्या बन्द किये बिना भारत की आत्मा को शान्ति नहीं मिलेगी, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि गोवध बन्द के कानून से गोरक्षा नहीं होगी।

पशुओं से खाद

दुःख है कि आज हमारे देश में वृद्ध तथा अपंग ही नहीं उपयोगी पशुओं की भी हत्या होती है। उपयोगी पशुओं की हत्या बन्द करने के लिए सन 1944 ई. से सरकार जिक्र कर रही है पर अब तक कोई सफलता नहीं मिली। इसका मुख्य कारण है कि उपयोगी और निरुपयोगी में अधिक भेद और भिन्नता का न होना। देश के कितने ही भागों में लाखों पशु, दूध बैल नहीं, गोबर, गोमूत्र की खाद के लिये ही रखे जाते हैं। और वे भी उपयोगी हैं। प्रसिद्ध विशेषज्ञों के अनुमान के अनुसार हर एक पशु उपयोगी और लाभदायक है। भारत सरकार के प्रसिद्ध डॉक्टर राईट तथा कर्नल ओलीवर के मतानुसार सन 1930 में प्रति पशु गोबर गोमूत्र के खाद का मूल्य अनुमान से 13 रुपये था। अन्न तथा अन्य चीजों का भाव देखते हुए आज यह लाभ 30 रुपया वार्षिक प्रति पशु से कम नहीं। भारत सरकार के विशेषज्ञों के अनुसार जबकि गोसदनों में रखने वाले वृद्ध तथा अपंग पशु की औसत आयु पाँच वर्ष की हो तो प्रति अनुपयोगी या वृद्ध पशु पर 15 या 20 रुपये वार्षिक खर्च होगा। दस पन्द्रह रुपये सालाना की बचत होगी जिससे अनुपयोगी कहलाये जाने वाले पशुओं से भी देश को करोड़ों रुपये सालाना का लाभ होगा। क्योंकि गाय, बैल, जीते-जागते खाद के छोटे-छोटे कारखाने के रूप में सर्वत्र फैले हुए हैं। यह ठीक है कि गोबर गोमूत्र से होने वाला लाभ चाँदी सोने या कागज की शक्ल में नजर नहीं आता है। लाभ अवश्य है। यदि हम गोबर गोमूत्र का ठीक-ठीक उपयोग करें तो स्वयं निरुपयोगी कहलाने पशु उपयोगी बन सकते हैं। खाद के लिए कृत्रिम कारखाने की आवश्यकता नहीं होती है। यदि हम लाभ नहीं उठाते तो यह हमारा दोष है गाय का नहीं।

गोरक्षा का नैतिक पक्ष

गोरक्षा का प्रश्न आर्थिक ही नहीं नैतिक भी है। भारत में जीव को पालने वाला वृद्ध होने पर उसकी हत्या नहीं करता। अच्छा मालिक वृद्ध नौकर को पेंशन देता है फिर जिस गाय ने हमारे जीवन को कायम रखने के लिए सैकड़ों मन दूध दिया, जिस बैल ने हजारों मन अन्न उत्पन्न किया, वृद्ध होने पर हम उन्हें कत्ल करने की बात कहें तो यह कृतघ्नता है, नैतिक पतन है। भारतीय संस्कृति नैतिकता तथा कृतज्ञता प्रधान नहीं है और हमें गोरक्षा के विषय में भी इस संस्कृति को कायम रखना चाहिये। अतः हर प्रकार से गौहत्या कतई बन्द होनी आवश्यक है। इसीलिए सरकार द्वारा स्थापित की गई शिशु विशेषज्ञ कमेटी ने कानून से गौहत्या बन्द करने की सिफारिश की थी।

गोवध बन्दी की माँग मानी जाय

उचित होगा कि भारतीय परम्परा जनता की माँग आर्थिक तथा नैतिक लाभ और देश हित को दृष्टि में रखते हुए गौहत्या कतई बन्द की जाय। मैं फिर इस बात को दुहराता हूँ कि कानून के द्वारा गौहत्या बन्द भी कर दी जाय तो जब तक सरकार और जनता दोनों मिलकर नस्ल सुधार, चारे का उत्पादन आदि गोवंश की उन्नति के कार्यों पर पूरा ध्यान न देंगे तो पशु वध की हालत और खराब हो जायेगी।

हमारे देश में गोवंश की संख्या 15 करोड़ है। इतनी बड़ी संख्या की उन्नति और रक्षा के लिए बहुत अधिक रुपये और कार्यकर्ता तथा अन्य साधन चाहिये। देश की उन्नति के लिए भारत सरकार ने जो पंचवर्षीय योजना बनाई है उसमें 20 लाख से अधिक खर्च का अनुमान लगाया गया है पर गोवंश की उन्नति के लिये रखे गये हैं केवल चार करोड़ रुपये। यह रकम पशु संख्या और पशुओं से होने वाली आमदनी को दृष्टि में रखते हुए बहुत कम है। सरकार के अतिरिक्त यदि वर्तमान गोशालाओं को प्रोत्साहन दिया जाय तो थोड़े खर्चे से और थोड़े समय में अधिक लाभ हो सकता है। सरकार के अनुमान के अनुसार गोशालाओं की संख्या 3000 हजार है। गोशालाओं के पास निज के मकान तथा अन्य साधन हैं। कितनी ही गोशालाओं की अपनी जमीन है। प्रभावशाली तथा अनुभवी कार्यकर्ता हैं। जनता का सहयोग भी है। यदि सरकार सहयोग तथा सहायता दे तो गोशालाएं नस्ल सुधार के केन्द्र ही नहीं अच्छी दुग्धशालाएं भी बन सकती हैं।

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