
गायत्री तीर्थ का उद्देश्य
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गायत्री तपोभूमि की स्थापना तथा पूर्णाहुति यज्ञ आयोजन का वृत्तांत पाठ पिछले अंक में पढ़ चुके हैं यह सब सर्वशक्तिमान सत्ता की इच्छा का छोटा सा चिन्ह मात्र था। उसे जो काम कराना होता है उसके वैसे ही साधन बन जाते हैं। मनुष्य का अपना प्रयत्न और पुरुषार्थ सीमित है। एक आकस्मिक बाधा उत्पन्न हो जाने पर उसके सारे मनसूबे धूल में मिल जाते हैं और प्रभु की कृपा की सहायता से हवा चलने लगे तो भंवरों में उलझा हुआ जहाज आसानी से किनारे पर लगता है। भगवती की इच्छा और प्रेरणा ही है जिसने एक आवश्यक कार्य का शुभ आरम्भ कर दिया।
भारतीय संस्कृति धर्म और भाषा विज्ञान की आधारशिला गायत्री है। इस महामन्त्र में वह सब रत्न भरे हुए हैं जिनकी आवश्यकता मनुष्य जाति को रहती है। प्राचीन काल में ऋषियों ने इसी महाशक्ति की उपासना करके संसार को ज्ञान-विज्ञान की भाषा से आलोकित किया था। प्राचीन भारत की जो महानता थी उसके मूल में उसकी आत्म शक्ति ही प्रधान थी। भौतिक सम्पन्नता भी उसे जो कुछ उपलब्ध थी वह भी आत्मिक योग्यताओं के आधार पर थी। आजकल छल, बनावट शोषण, अपहरण एवं अन्याय के आधार पर सुख सम्पदाएं एकत्रित की जाती हैं। प्राचीन काल में ऐसी कोई आवश्यकता न होती थी। योग्यता, शक्ति, सामर्थ्य, विद्या और बुद्धि जहाँ होती हैं वहाँ सुख शान्ति का साधन सामग्री बड़ी आसानी से इकट्ठी हो जाती है। पूर्व काल में भारत की जो अनन्त सम्पन्नता थी वह ऐसी ही थी।
आज हम सब प्रकार से दीन−हीन हैं। सब दृष्टियों से पिछड़े हुए हैं। उठने का प्रयत्न करते हैं तो गलत दिशा में पैर पड़ते हैं। केवल भौतिक आधार पर जो उन्नति होती है उसकी जड़ कमजोर रहती है, वह न तो स्थिर होती है और न ही सुरक्षित रहती है। अमेरिका ने किसी प्रकार बहुत सम्पत्ति संचित कर दी है पर नैतिक या आत्मिक आधार न होने के कारण अब उस सम्पत्ति की रक्षा के लिए परमाणु बमों का आश्रय लेना पड़ रहा है। फिर भी वह सुरक्षित दिखाई नहीं पड़ती। हमारे तत्वज्ञानी पूर्वज इस बात को भली प्रकार जानते थे इसलिए उनने आत्म बल के विकास पर सबसे अधिक जोर दिया था। क्योंकि इसी बल के आधार पर मनुष्य आन्तरिक शान्ति प्राप्त करता है। इसी के आधार पर सामाजिक शान्ति स्थिर रहती है। आपसी प्रेमभाव, स्नेह, अच्छाई, सहयोग बढ़ता है और इसी आधार पर स्वास्थ्य, दीर्घ जीवन, धन, वैभव आदि सुख आने की उपलब्धी होती है।
आजकल आत्मबल तिरस्कार करके लोग केवल भौतिक आधार पर सुखी एवं सम्पन्न बनना चाहते हैं। फलस्वरूप सम्पत्ति तो नाम मात्र की ही बढ़ती दीखती है पर नाना प्रकार के भय, क्लेश, द्वेष, उलझन, संघर्ष, छल,कपट द्रुत वेग से उलझते चले आ रहे हैं। गरीबी दूर नहीं होती परेशानी बढ़ती चलती है।
ऋषियों को इस फलितार्थ का पहले से ही पता था, इसलिए उन्होंने संसार की सर्वतोमुखी उन्नति का एकमात्र मार्ग ‘आत्मबल’ बढ़ाना बताया था। इसी धन के धनी वे स्वयं बने और इसी धन का धनी उन्होंने सम्पूर्ण देश को बनाया। अनाज की खेती के साथ-साथ जैसे घास फूस बिना प्रयत्न के ही उत्पन्न हो जाते हैं वैसे ही जहाँ आध्यात्मिक धन होता है वहाँ भौतिक धन का कोई अभाव नहीं रहता। इस तथ्य को उन्होंने प्रत्येक भारतीय के मन में बिठा दिया था। फलस्वरूप यह देश अपने आचरण और आन्तरिक बल के कारण संसार का प्रकाश स्तम्भ, ध्रुवतारा बना हुआ था, जगतगुरु कहलाता था।
समय के कुप्रभाव से अन्धकार का युग आया और हम अपना सम्बन्ध छोड़कर पथ भ्रष्ट हो गये। कहने की आवश्यकता नहीं कि पिछले दिनों विदेशियों द्वारा जिस प्रकार हम पददलित किये गये और नानाप्रकार की मूर्खताओं एवं दुर्बुद्धियों में प्रसिद्ध होकर किस प्रकार त्रास पाते रहे। समय सदा एक समान नहीं रहता। प्रभु की इच्छा फिर ऐसी दिखाई पड़ती है कि जिसकी प्रिय क्रीड़ा स्थली भारत भूमि पुनः अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त करे, पुनः आत्म धन से धनी होकर अपने और अपने संसार के दुखों को दूर करे। भारत के आध्यात्मिक उत्कर्ष की दशा में जैसी प्रेरणा के अनेक चिन्ह यत्र तत्र दिखाई पड़ रहे हैं, अनेक दिव्य धाराएं भगवत् प्रेरणा के अनुरूप अपने-अपने ढंग से अपनी अपनी स्थिति के अनुरूप कार्य कर रही हैं। विश्वास करना चाहिए कि समय पलटेगा और हमारी व्यक्तिगत तथा सामूहिक समस्याएं सुलझेंगी। विध्वंस और निर्माण का उभय पक्षीय कार्यक्रम हमारा कायापलट करने ही वाला है।
गायत्री विद्या का पुनः प्रकाश भी विश्व कल्याण के आयोजनों का एक प्रमुख कार्य है। तप के बिना शक्ति उत्पन्न नहीं होती। कथा, कीर्तन, प्रवचन, दान, पुण्य, तीर्थयात्रा, ब्रह्मभोज आदि सभी कार्य शुभ हैं। इनके परिणाम भी उत्तम हैं। पर आत्मबल केवल तप द्वारा ही प्राप्त होता है। इतिहास साक्षी है कि जिस देव-दानव ने जब भी कोई अलौकिक शक्ति पाई है, महत्वपूर्ण वरदान पाया है तब उसे तप अवश्य करना पड़ा है। तप से ही तपी हुई आत्मा में ही वह गर्मी होती है जिसमें पाप, ताप, कलुष, कषाय, दुर्भाव एवं कुसंस्कार जल सकें। तप से तृप्त आत्मा में ही यह प्रकाश उत्पन्न होता है जिससे अविद्या और माया का अन्धकार नष्ट होकर सत्य तथा परमात्मा का साक्षात्कार हो सके।
तप का प्रधान मार्ग गायत्री है। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा से लेकर आधुनिक काल तक के ऋषियों तक का एक मात्र अवलंबन गायत्री रहा है। एक भी ऋषि ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता जिसने गायत्री उपासना के बिना ऋषित्व प्राप्त किया है। तप का निश्चित आधार गायत्री है। यह उस आत्म बल को गर्मी तथा प्रकाश को उत्पन्न करती है जिससे तपस्वी में प्रभाव, तेज, ब्रह्मचर्य-तड़ित द्युति एवं आवृत्ति का संचार होता है। तपस्वी ही किसी राष्ट्र की सच्ची सम्पत्ति होते हैं। करोड़ मन धोने की अपेक्षा एक तपस्वी का मूल अधिक है। असंख्य लीडरों, वैज्ञानिकों, इंजीनियरों, डाक्टरों, मास्टरों की सम्मिलित शक्ति से जो कार्य नहीं हो सकता वह तपस्वियों के सूक्ष्म तप प्रभाव से हो सकता है। उसका स्थूल श्रेय बहुधा किन्हीं सौभाग्यशाली व्यक्तियों या संस्थाओं को प्राप्त होता है। इस रहस्य को बहुत कम लोग जानते हैं कि सूक्ष्म वातावरण बनाने एवं प्रकट शक्तियों को उत्पन्न करने में प्रायः अज्ञान, भय, कष्ट एवं जनसाधारण की आंखों से ओझल रहने वाले तपस्वी ही प्रमुख कार्य करते हैं। महात्मा गाँधी और काँग्रेस को राष्ट्र निर्माता होने का श्रेय प्राप्त है पर कौन जानता है कि योगी अरविन्द, महर्षि रमण, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी राम आदि अनेक तपस्वियों द्वारा भारत को अच्छी स्थिति में लाने के लिए क्या कुछ किया होगा।
छत्रपति शिवाजी के पीछे समर्थगुरु रामदास की शक्ति काम करती थी। ऐसी अज्ञात शक्तियाँ पूर्व काल में हमारे राष्ट्र में प्रचुर परिणाम में थी। फलस्वरूप अनेक वीर योद्धा, चक्रवर्ती विद्वान, वाग्मी श्रीमन्त भरे पड़े हैं। आज वे शक्तियाँ लुप्त हो गयी हैं तो सब ओर से खोखलापन ही नजर आ रहा है। राष्ट्र सच्चे अर्थों में सबल एवं सम्पन्न बनाने के लिए तप एक आवश्यक तत्व है। इस तत्व के बिना अनेकों प्रवृत्तियाँ अधूरी ही रहती हैं।
तपोबल के द्वारा आत्मबल की वृद्धि यह आज की एक महानतम एवं अत्यन्त महत्वपूर्ण आवश्यकता है। प्रतीत होता है कि प्रभु इस आवश्यकता को भी अपूर्ण न रहने देंगे। उनकी इच्छा और प्रेरणा के अनुसार जहाँ अनेक उत्तम आयोजन यंत्र तंत्र हो रहे हैं, वहाँ गायत्री तपोवन का निर्माण भी एक ऐसी घटना है। जिसे बड़े से बड़े रचनात्मक कार्यों से कम महत्व नहीं दिया जा सकता। इस तीर्थ का स्थूल रूप बहुत ही साधारण है। इमारत व प्रदर्शन की दृष्टि से इसका कोई बड़ा महत्व नहीं है। पर इसके साथ जो सूक्ष्म शृंखला सब सुसंबद्ध है उसे असामान्य ही कहा जायेगा। भारतवर्ष के तपस्वियों, गायत्री उपासकों का यह एक ऐसा केन्द्रीय संगठन बिन्दु है जहाँ उनका पारस्परिक सम्बन्ध, सहयोग एवं सम्मिलन होता है। आपसी आदान प्रदान से तपश्चर्या में वृद्धि होती है। नये तपस्वियों को प्रेरणा, पथ प्रदर्शन एवं प्रोत्साहन की उपलब्धि होती है। जन साधारण में इस संख्या द्वारा व्यापक प्रचार करके गायत्री उपासना का अधिकाधिक विस्तार करने का जो आयोजन है, उससे राष्ट्र में एक तपोमयी भूमिका का सूक्ष्म वायुमण्डल बनेगा और उस वातावरण में अनेक मनोरथ पुष्प प्रस्फुटित होंगे।
अस्पताल खोलने से बीमारी दूर होती है यह एक समझ अधूरी है इस प्रकार का व्यवहार विचार को अपनाने या वातावरण यदि घर घर में उत्पन्न हो जाये तो बीमारियों की पीड़ा और अस्पताल खोलने की खर्चीली योजना का भार बहुत कुछ हलका होता है। शान्ति स्थापना और रक्षा का जो कार्य अफसर मिलकर भी नहीं कर सकते वह कार्य नैतिक वातावरण उत्पन्न होने से सहज ही हो सकता है और इतने कर्मचारियों के समय तथा व्रत को किसी रचनात्मक कार्य में लगाया जा सकता है। राष्ट्र निर्माण की सही आधारशिला यह है कि नैतिक एवं धार्मिक वातावरण उत्पन्न किया जाये। यह कार्य सरकारें नहीं कर सकती यह तो बन्दों और तपस्वियों द्वारा होता है। इन्हीं वर्गों की अभिवृद्धि करने के लिए गायत्री तपोभूमि का निर्माण हुआ है। हम विश्वासपूर्वक यह आशा करते हैं कि यह संख्या इस महान आवश्यकता को पूरा करने के अपने प्रयत्न में असफल न रहेगी।
हमें समय समय पर ऐसे आध्यात्मिक अनुभव हुए हैं जिनमें आवश्यकता पूर्ति की ओर संकेत मिला है। गायत्री महाशक्ति को भारत पुनः प्राप्त करेगा। इस महाविद्या के आधार पर हम अपने खोये हुए अनेक रत्न भण्डारों को खोज सकेंगे। तप की राष्ट्रव्यापी अभिवृद्धि होने से ऐसे नर रत्न उत्पन्न होंगे जो व्यापक समस्याओं को आसानी से हल कर सकेंगे। यह गायत्री तीर्थ अपने स्थानीय क्षेत्र में जो आयोजन कर रहा है और देशभर में फैले हुए जिज्ञासुओं, साधकों, तपस्वियों तथा सिद्ध पुरुषों के उपयोग से जो कार्य करने में संलग्न है वह स्वर्ण युग का पूर्ण संकेत है। प्रभु की इच्छा एवं प्रेरणा को विश्व की एक महान आवश्यकता की पूर्ति के लिए यह शुभ आरम्भ हुआ है। इसका अन्त कितना महान है इसकी कल्पना करनी तो आज भी कठिन होगी।
गायत्री तपोभूमि का निर्माण हो गया। इसमें जिन लोगों का जितना सहयोग, सद्भाव श्रम एवं धन लगा है वह निश्चित रूप से धन्य हुआ है क्योंकि यह चारों ही दान वहीं सफल होते हैं जहाँ उनका सदुपयोग होता है। कार्य की महत्ता, श्रेष्ठता एवं सात्विकता के अनुरूप ही उसमें लगा हुआ दान सफल माना जाता है। इस तीर्थ की उपयोगिता में जिस प्रकार सन्देह की गुंजाइश नहीं उसी प्रकार इसमें लगा हुए सहयोग की सफलता में कोई सन्देह नहीं है। इस तीर्थ की स्थापना एवं उद्घाटन का समारोह जिस असाधारण पवित्रता के आध्यात्मिक वातावरण में हुआ वह एक शुभ लक्षण है। ऐसे शुभ सुयोग मानवी प्रयत्नों से नहीं दैवी प्रेरणा से ही उपलब्ध होते हैं। प्रभु तेरी इच्छा पूर्ण हो इस भावना के साथ विश्व कल्याण के इस महान कार्य को पूरा करना चाहिए।
मंत्र लेखन यज्ञ
गायत्री मन्त्र लेखन यज्ञ चालू रहेगा। जिन सज्जनों ने गत वर्ष इस यज्ञ में भाग लिया है उनसे प्रार्थना है कि लेखन कार्य इस वर्ष भी चालू रखें और इस बात का प्रयत्न करें कि लेखन कार्य में कम से कम दो नये साधकों को सम्मिलित कर सकें। इससे मन को वश में करने में बड़ी सहायता मिलती है साथ ही जप की अपेक्षा पुण्य फल भी अनेक गुना अधिक होता है।
सामूहिक यज्ञ आयोजन
अगला विशेष कार्य सामूहिक हवन करने का है। गत वर्ष गायत्री संस्था के सदस्यों द्वारा सहस्राँशु ब्रह्मयज्ञ के अंतर्गत 125 करोड़ जप, 125 लाख आहुतियों का हवन 125 हजार उपवास, 24 करोड़ गायत्री मन्त्र लेखन का कार्यक्रम पूरा किया था। इस वर्ष 125 करोड़ आहुतियों का हवन करना है।
गायत्री प्रेमियों को अपने-अपने स्थानों में एक वर्ष के लिए यह कार्यक्रम आरम्भ करना चाहिए। जहाँ सुविधा हो सके वहाँ प्रतिदिन का और जहाँ सुविधा न हो वहाँ साप्ताहिक कार्यक्रम रखना चाहिए। रविवार विशेष उत्तम है पर सुविधानुसार अन्य दिन भी रखा जा सकता है। अकेला व्यक्ति 24 आहुतियों का हवन भी कर सकता है।
हवन का कार्यक्रम कुछ विशेष कठिन व खर्चीला नहीं है। 2 रु. के लगभग खर्च में 108 आहुतियों का हवन हो सकता है। साल भर में 100 रु. के लगभग खर्च पड़ेगा। इसे एक व्यक्ति न उठा सके तो बारी बारी कई व्यक्तियों के यहाँ किया जा सकता है अथवा किसी सम्मिलित स्थान पर सामूहिक सहयोग से हवन हो सकता है। इसमें सभी गायत्री प्रेमी एकत्रित हों। आरम्भ में सन्ध्या फिर प्रार्थना फिर हवन करें अन्त में आरती एवं कीर्तन किया जाय। यज्ञान्त में पंचामृत आदि का प्रसाद वितरण कर दिया जाय। गायत्री की महत्ता सम्बन्धी प्रवचन हों या गायत्री साहित्य की पुस्तकें पढ़कर सुनाई जायं।
हवन सम्बन्धी विस्तृत जानकारी और विधि अगले अंक में छाप दी जायेगी। तब तक गायत्री प्रेमियों को इस आयोजन के लिए तैयारी करनी चाहिए। स्थान-स्थान पर यज्ञ समितियां बनें और देश भर में पुनः यज्ञमय वातावरण उत्पन्न किया जाय।
समय दान
केवल अकेले एकान्त में थोड़ी बहुत साधना करने की अपेक्षा अनेक व्यक्तियों को गायत्री उपासना के महत्व को समझाना एवं उपासना के मार्ग पर लगा देना अधिक महत्वपूर्ण है। थोड़े से व्यक्ति आत्म लाभ कर लें या मुक्ति प्राप्त कर लें इसमें केवल उन थोड़े से व्यक्तियों का ही लाभ है पर यदि अनेक व्यक्ति सन्मार्ग गामी हों तो संसार के गन्दे वातावरण को ही बदल सकते हैं। इसलिए गायत्री प्रेमियों को अपनी साधना के साथ साथ गायत्री प्रचार के लिए भी विशेष रूप से प्रयत्न करना चाहिये। जिसके प्रयत्न से लोग सन्मार्ग गामी होते हैं उस प्रयत्नकर्ता को भी विशेष पुण्य-फल प्राप्त होता है। इस प्रकार अनेक व्यक्तियों को सन्मार्ग पर लगाने का पुण्य फल, अपनी थोड़ी सी एकान्त साधना की अपेक्षा कहीं अधिक मिल जाता है। हमारी प्रार्थना है कि प्रत्येक गायत्री प्रेमी अपना कुछ न कुछ समय इस कार्य में लगाकर गायत्री माता को श्रम एवं समय का दान करे। धन दान की अपेक्षा समय दान का मूल्य अनेक गुना अधिक होता है।
सेवा के लिए आत्म समर्पण
जो सज्जन अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त हो चुके हैं तथा जिन्हें कमाने की चिन्ता नहीं है ऐसे लोगों को अपना आत्म कल्याण करने तथा संसार की आध्यात्मिक सेवा करने के लिए अपने को लगा देना चाहिए। ऐसे लोगों की सेवाओं का गायत्री तपोभूमि में स्वागत किया जायगा।