
भारतीय संस्कृति का एक आधार-दानशीलता
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(श्री रामचरण महेन्द्र एम.ए.)
भारतीय संस्कृति परमार्थ और परोपकार को प्रचुर महत्त्व देती है। जब अपनी सात्त्विक आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाय, तो लोक-कल्याण के लिए दूसरों की उन्नति के लिए दान देना चाहिए। प्राचीन काल में ऐसे निस्वार्थी लोक-हित-निरत ऋषि, मुनि, ब्राह्मण, पुरोहित, योगी, संन्यासी होते थे, जो समस्त आयु लोक-हित के लिए दे डालते थे। कुछ विद्यादान, पठन-पाठन में ही आयु व्यतीत करते थे। उपदेश द्वारा जनता की शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग, सहयोग, सुख, सुविधा, विवेक, धर्मपरायणता आदि सद्गुणों को बढ़ाने का प्रयत्न किया करते थे। मानवीय स्वभाव में जो सत तत्व हैं, उसी की वृद्धि में वे अपने अधिकाँश दिन व्यतीत करते थे। ये ज्ञानी उदार महात्मा अपने आप में जीवित-कल्याण की संस्थाएं थे, यज्ञ रूप थे। जब ये जनता की इतनी सेवा करते थे, तो जनता भी अपना कर्त्तव्य समझ कर इनके भोजन, निवास, वस्त्र, सन्तान का पालन-पोषण का प्रबन्ध करती थी। जैसे लोक हितकारी संस्थाएँ आज भी सार्वजनिक चन्दे से चलाई जाती हैं, उसी प्रकार ये ऋषि, मुनि, ब्राह्मण भी दान, पुण्य आदि द्वारा निर्वाह करते थे। प्राचीन भारतीय ऋषि-मुनियों का व्यक्तित्व इतना उच्च, पवित्र और प्रवृत्ति इतनी सात्त्विक होती थी कि उनके सम्बन्ध में किसी प्रकार के सन्देह की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी, क्योंकि उन्हें पैसा देकर जनता उसके सदुपयोग के विषय में निश्चित रहती थी। हिसाब जाँचने की आवश्यकता तक न समझती थी। इस प्रकार हमारे पुरोहित, विद्यादान देने वाले ब्राह्मण, मुनि, ऋषि दान दक्षिणा द्वारा जनता की सर्वतोमुखी उन्नति का प्रबन्ध किया करते थे। दान द्वारा उनके जीवन की आवश्यकताएँ पूरी करने का विधान उचित था। जो परमार्थ और लोक-हित, जनता की सेवा सहायता में इतना तन्मय हो जाय कि अपने व्यक्तिगत लाभ की बात सोच ही न सके, उसके भरण-पोषण की चिंता जनता को करनी ही चाहिए।
इस प्रकार दान देने की परिपाटी चली। कालान्तर में उस व्यक्ति को भी दान दिया जाने लगा जो अपंग, अंधा, लंगड़ा, लूला, अपाहिज या हर प्रकार से लाचार हो, जीविका उपार्जन न कर सके। उन्हें भिक्षा ग्रहण करनी भी चाहिए, क्योंकि जीवन धारण करने के लिए अन्य कोई साधन ही शेष नहीं रहता। इस प्रकार दो रूपों में दूसरों को देने की प्रणाली प्रचलित रही है 1-मुनियों, ब्राह्मणों, पुरोहितों, आचार्यों, संन्यासियों को दी जाने वाली आर्थिक सहायता का नाम रखा गया दान, 2-अपंग, लँगड़े, लूले, कुछ भी कार्य न कर सकने वाले व्यक्तियों को दी जाने वाली सहायता को भिक्षा कहा गया। दान और भिक्षा दोनों का ही तात्पर्य दूसरे की सहायता करना है। पुण्य, परोपकार, सत्कार्य, लोक-कल्याण, सुख-शान्ति की वृद्धि, सात्त्विकता का उन्नयन तथा समष्टि की, जनता की सेवा के लिए ही इन दोनों का उपयोग होना चाहिए।
दूसरों को देने का क्या तात्पर्य है? भारतीय दान परंपरा और कुछ नहीं, उधार देने की एक वैज्ञानिक पद्धति है। जो कुछ हम दूसरों को देते हैं, वह हमारी रक्षित पूँजी की तरह जमा हो जाता है। अच्छा दान वह है जो जरूरतमंदों को दिया जाता है बिना जरूरतमंदों को देना कुछ विशेष महत्व नहीं रखता। कुपात्रों को धन देना व्यर्थ है। जिसका पेट भरा हुआ हो, उसे और भोजन कराया जाय, तो वह बीमार पड़ेगा और अपने साथ दाता को भी अधोगति के लिए घसीटेगा। भारतीय संस्कृति के अनुसार दान देना बहुत ही उत्तम धर्म कार्य है। जो, अपनी रोटी दूसरों को बाँट कर खाता है, उसको किसी बात की कमी नहीं रहेगी। जो अपने पैसे को जोड़-जोड़कर जमीन में गाढ़ते हैं, उन पाषाण हृदयों को क्या मालूम होगा कि दान देने में कितना आत्मसंतोष, कितनी मानसिक तृप्ति मिलती है। आत्मा प्रफुल्ल हो जाती है। मृत्यु बड़ी बुरी लगती है, पर मौत से बुरी बात यह है कि कोई व्यक्ति दूसरे को दुःखी देखे, और उसकी किसी प्रकार भी सहायता करने में अपने आपको असमर्थ पावे। हिन्दू शास्त्र एक स्वर से कहते हैं कि मनुष्य जीवन में परोपकार ही सार है। हमें जितना भी संभव हो सदैव परोपकार में रत रहना चाहिए। किन्तु यह दान अभिमान, दम्भ, कीर्ति के लिए नहीं, आत्मकल्याण के लिए ही होना चाहिए। मेरे कारण दूसरों का भला हुआ है, यह सोचना उचित नहीं हैं। दान देने से स्वयं हमारी ही भलाई होती है। हमें संयम का पाठ मिलता है। यदि आप दान न भी दें, तब भी संसार का काम तो चलता ही रहेगा। परमात्मा इतना विपुल भंडार लुटा रहे हैं कि हमारी छोटी-सी सहायता के बिना भी जनता का कार्य चल ही जायेगा। आप यदि न देंगे, तो कोई भिखारी भूखा नहीं मर जायगा। किसी प्रकार उसके भोजन का प्रबन्ध हो ही जायगा। लेकिन आपके हाथ से दूसरों के उपकार को करने का एक अवसर जाता रहेगा। हमारी उपकार भावना कुँठित हो जायगी। दान से जो मानसिक उन्नति होती, आत्मा को जो शक्ति प्राप्त होती, वह दान लेने वाले को नहीं, वरन् देने वाले को प्राप्त होती है। दूसरों का उपकार करना मानो एक प्रकार से अपना ही कल्याण करना है। किसी को थोड़ा-सा पैसा देकर भला हम उसका कितना भला कर सकते हैं। किन्तु उसकी अपेक्षा हम अपना भला हजार गुना कर लेते हैं। हमारी उदारता का विकास हो जाता है। आनन्द-स्त्रोत खुल जाता है।
दान आत्मा का दिव्य गुण है। दानशीलता की सात्त्विक भावना जिस पुरुष के अन्तःकरण में प्रवेश करती है, उसे उदार बना देती है। उसे प्रकाश का पुँज बना देती है। दान रुपये पैसे या रोटी भोजन कपड़े का ही नहीं, श्रम का भी हो सकता है। सच्चा दानी लोक-उपकार को प्रमुखता देता है। वह दधीचि की तरह अपनी हड्डियाँ लोक-उपकार के लिए दान दे देता है। व्यास जी की तरह अपनी आयु सद्ग्रन्थों की रचना में लगा देता है? द्रोणाचार्य की तरह शास्त्र-विद्या का प्रचार करता है। पाणिनी की तरह व्याकरण बनाता है, बुद्ध की तरह प्रेम धर्म का उपदेश देता है। इस प्रकार सच्चा दानी समय और देश की आवश्यकताओं के अनुसार अपनी बुद्धि, योग्यता, कला, प्रतिभा शक्तियों का दान करता रहता है।
यह तो दान देने वाले पक्ष का विवेचन हुआ। अब लेने वाले के पक्ष को देखिए। भिक्षावृत्ति या दान लेना एक बड़ा उत्तरदायित्व है, जिसका भार उठाने का साहस बहुत कम व्यक्तियों में होता है। शास्त्रकारों ने भिक्षा की उपमा अग्नि से दी है। जैसे अग्नि का प्रयोग बड़ी सावधानी से करना चाहिए वह बड़ी हानि और उत्पात कर सकती है; इसी प्रकार भिक्षा या दान लेने से पूर्व खूब सोच-समझ लेना चाहिए। जिससे आप कुछ भी दान लेते हैं, उसको अपने श्रम, या बुद्धि द्वारा दुगुने रूप में लौटाने को प्रस्तुत रहना चाहिए। अपनी आवश्यकताएँ बहुत ही कम रखनी चाहिए। दाता की सेवा, सहायता कठिनाइयाँ हल करने का उद्योग करना चाहिये या सद्भावना और आशीर्वाद के रूप में बहुमूल्य उपदेश देते रहना चाहिए।
आचार्य पं. श्री राम शर्मा ने भिक्षा के दो प्रयोजन बताये हैं- एक तो यह कि दान देने से देने वाले को त्याग का परोपकार का, आत्म-सन्तोष प्राप्त होता है। दूसरा यह कि उन ऋषिकल्प ब्राह्मणों को अपने अभिमान और अहंकार का परिमार्जन करते रहने का अवसर प्राप्त होता है। प्राचीन काल में लोक-सेवक, परोपकारी तथा महात्मा अहंमन्यता उत्पन्न न होने देने के लिए भिक्षुक की तुच्छ स्थिति ग्रहण करते थे। ऐसे भिक्षुकों को दान देते हुए देने वाले अपना मान अनुभव करते थे और लेने वाले निरभिमान बनते थे। उससे उन दोनों के बीच सुदृढ़ सौहार्द बढ़ता था। भिक्षावृत्ति करने वाले की अपेक्षा देने वाले को ही अधिक लाभ रहता था। इस परमार्थ की भावना से ब्रह्मजीवी महात्माओं के लिए भिक्षा का विधान किया गया था। यथार्थ में यह भिक्षा उचित भी थी, शास्त्र सम्मत भी।
आजकल दान-वृत्ति से अनुचित लाभ उठाने वाले अनेक अकर्मण्य भिखमंगे, ठग, दुष्ट व्यक्ति लोगों को ठगते फिरते हैं। वह स्वयं तो परिश्रम करना नहीं चाहते, मुफ्त का माल उड़ाना चाहते हैं। पिछले वर्ष भिखारियों की संख्या 56 लाख के लगभग पहुँच गई थी। इसमें कष्ट पीड़ितों की संख्या तो अल्प है, अधिकतर तो वे ही व्यक्ति हैं, जो दूसरों के श्रम का अनुचित लाभ उठाते हैं; धर्म के नाम पर नाना प्रकार के आडम्बर, घृणित मायाचार और असत्य व्यवहार कर भिक्षावृत्ति करते हैं। इससे समाज में विषैला, अनिष्टकारी वातावरण फैलता है। ऐसा करने से झूठ, पाखण्ड, ढोंग, नशेबाजी फैलती है। अतः हमारा यह कर्त्तव्य है कि धर्म के नाम पर मुफ्त का माल उड़ाने वाले इन लुटेरों से सावधान रहें।
सत्पात्र को, जरूरतमंद को अपंग अपाहिज कुछ काम न कर सकने वाले बीमार को दान करें। जितना संभव हो, जैसे संभव हो सहायता करें। हमारे यहाँ कहा गया है-
“दानशूरो विशिष्यते”
“दानवीर पुरुष ही अन्य सब पुरुषों से विशिष्ट है।”