
सन्तति-निग्रह और नैतिकता
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(एक विचारक)
संतति निग्रह वर्तमान समय की एक बहुत बड़ी समस्या है इसकी आवश्यकता और उपयोगिता तो इतनी स्पष्ट है कि उसका विरोध शायद ही कोई विचारशील व्यक्ति करेगा। आजकल दुनिया में जो अनेकों विपत्तियाँ दिखलाई पड़ रही हैं और स्वार्थ तथा संघर्ष की वृद्धि हो रही है, उसका एक बहुत बड़ा कारण जल-संख्या की अनियन्त्रित वृद्धि ही है। मनुष्यों के पेट भरने के लिए पैदावार बढ़ाने के तरह-तरह के उपाय किये जाते हैं और जब उनसे काम पूरा नहीं पड़ता तब खाद्य पदार्थों में कई तरह की मिलावट की जाती है और नकली पदार्थ बनाये जाते हैं। जन-समूह में तरह-तरह की धूर्तता, छल, कपट और अनैतिकता की वृद्धि का मूल कारण भी यही है। इसलिए लोकमत संतान-निग्रह के पक्ष में आता जाता है और सरकार भी उसके प्रचार में सक्रिय सहयोग देने लगी है।
पर सन्तान निग्रह किस प्रकार किया जाय, इस सम्बन्ध में बहुत मतभेद है। ‘अखण्ड ज्योति’ के किसी पिछले अंक में इस विषय पर काफी प्रकाश डाला गया था। वर्तमान समय में संतति-निग्रह का जो प्रचार किया जा रहा है उसमें प्रधानतः कृत्रिम साधनों का प्रयोग ही बतलाया जा रहा है। पर इसी कारण अनेक व्यक्ति इसके विरोधी भी बन जाते हैं। इस सम्बन्ध में महात्मा गाँधी ने भी कई लेख लिखे थे और संतति-निग्रह के सिद्धान्त को मानते हुए भी उसके लिए प्रयुक्त होने वाले कृत्रिम साधनों की निंदा की थी। महात्माजी के लेख का मुख्य अंश नीचे दिया जाता है।
‘बहुत झिझक और अनिच्छा के साथ मैं इस विषय पर कलम उठा रहा हूँ मैं जबसे दक्षिण अफ्रीका से लौटा तभी से मुझे कितने ही पत्र मिलते रहे हैं, जिनमें जनन-नियमन के कृत्रिम साधनों से काम लेने के बारे में मेरी राय पूछी जाती है। उन पत्रों के उत्तर निजी तौर पर तो मैंने दिए हैं, पर सार्वजनिक रूप में अब तक इस विषय की चर्चा नहीं की थी। इस विषय ने आज से 35 साल पहले, जब मैं विलायत में पढ़ता था, अपनी ओर मेरा ध्यान खींचा था। उन दिनों वहाँ एक संयमवादी और एक डॉक्टर के बीच गहरी बहस चल रही थी। संयमवादी प्राकृतिक उपाय-इन्द्रिय-संयम के सिवा और किसी उपाय को जायज न मानता था और डॉक्टर बनावटी साधनों का प्रबल समर्थक था। उस कच्ची उम्र में कृत्रिम उपायों की ओर थोड़े दिन झुकने के बाद मैं उनका कट्टर विरोधी हो गया। अब मैं देखता हूँ कि कुछ हिन्दी-पत्रों में इन उपायों का वर्णन इतने नग्न रूप में हो रहा है कि उसे देखकर हमारी शिष्टता की भावना को गहरा धक्का लगता है। मैं यह भी देख रहा हूँ कि एक लेखक को कृत्रिम उपायों के समर्थकों में मेरा नाम लेते हुए भी संकोच नहीं हो रहा है। मुझे एक भी अवसर याद नहीं आता जब मैंने इन उपायों के समर्थन में कुछ कहा या लिखा हो। उनके समर्थकों में दो प्रतिष्ठित पुरुषों के नाम लिए जाते भी मैंने देखा है। पर उनकी इजाजत के बिना उनके नाम प्रकट करते मुझे हिचक होती है।
जनन-नियमन की आवश्यकता के विषय में तो दो मत हो ही नहीं सकते। पर युगों से इसका एक ही उपाय हमें बताया गया है और वह है इन्द्रिय-निग्रह या ब्रह्मचर्य। यह अचूक रामबाण उपाय है, जिससे काम लेने वाले की हर तरह भलाई होती है। चिकित्सा-शास्त्र के जानकार गर्भ-निरोध के अप्राकृतिक साधन ढूँढ़ने के बदले अगर मन-इन्द्रियों को काबू में रखने के उपाय ढूंढ़े तो मानव-जाति उनकी चिर-ऋणी होगी। स्त्री पुरुष के समागम का उद्देश्य इन्द्रिय सुख नहीं बल्कि सन्तानोत्पादन है और जहाँ सन्तान की इच्छा न हो वहाँ सम्भोग पाप है।
बनावटी साधनों का उपयोग तो बुराइयों को बढ़ावा देता है। वे स्त्री-पुरुष को नतीजे की ओर से बिल्कुल लापरवाह बना देते हैं। और इन उपायों को जो प्रतिष्ठा दी जा रही है उसका फल यह होगा कि लोकमत व्यक्ति पर अभी जो थोड़ा दाब-अंकुश रखता है वह जल्दी ही गायब हो जायगा अप्राकृतिक उपायों से काम लेने का निश्चित परिणाम मानसिक दुर्बलता और नाड़ी-मण्डल का शिथिल हो जाना है। दवा मर्ज से महंगी पड़ेगी। अपने कर्म के फल से बचने की कोशिश ना-समझी और पाप है। जरूरत से ज्यादा खा लेने वाले के लिए यही अच्छा है कि उसके पेट में दर्द हो और उसे उपवास करना पड़े। ठूँस-ठूँसकर खाना और फिर चूरन खाकर उसके स्वाभाविक फल से बच जाना उसके लिए बुरा है। काम-वासना की मनमानी तृप्ति करना और उसके नतीजों से बचना तो और भी बुरा है। प्रकृति के हृदय में दया माया नहीं है, जो कोई उसके नियमों को तोड़ेगा उससे वह पूरा बदला लेगी। नीति-संगत फल तो नीति-संगत संयम से ही प्राप्त हो सकते हैं और तरह के प्रतिबन्ध तो जिस बुराई से बचने के लिए लगाए जाते हैं उसको उलटा और बढ़ा देते हैं।
कृत्रिम उपायों के उपयोग के समर्थकों की बुनियादी दलील यह है कि सम्भोग जीवन की आवश्यक क्रिया है। इससे बड़ा भ्रम और कोई हो नहीं सकता। जो लोग चाहते हैं कि जितने बच्चों की हमें जरूरत है उससे ज्यादा बच्चे पैदा न हों, उन्हें चाहिए कि उन नीति-संगत उपायों की खोज करें जो हमारे पूर्व पुरुषों ने ढूंढ़ निकाले थे और उनका चलन फिर कैसे चल सकता है इसका उपाय मालूम करें। उनके सामने बहुत-सा आरम्भिक कार्य करने को पड़ा है। बाल विवाह जन-संख्या की वृद्धि का एक प्रधान कारण है। रहन-सहन का वर्तमान ढंग भी बच्चों की बेरोक बाढ़ में बहुत सहायक होता है। इन कारणों की खोज करके इन्हें दूर करने का उपाय किया जाय तो समाज सदाचार की एक-दो सीढ़ियाँ और चढ़ जायगा और अगर जनन-निरोध के उत्साही समर्थकों ने उनकी उपेक्षा की, कृत्रिम साधनों का चलन आम हो गया तो नतीजा पतन के सिवा और कुछ नहीं हो सकता।
जो समाज विविध कारणों से पहले ही बल-वीर्य रहित हो चुका है वह जन्म-निरोध के कृत्रिम उपायों को अपनाकर अपने आपको और भी निर्बल बना देगा अतः जो लोग बिना सोचे विचारे कृत्रिम साधनों से काम लेने का समर्थन कर रहे हैं उनके लिए इससे अच्छी बात दूसरी नहीं हो सकती कि इस विषय का नये सिरे से अध्ययन करें, अपने हानिकर प्रचार को रोकें और विवाहित-अविवाहित दोनों को ब्रह्मचर्य के रास्ते पर चलाने की कोशिश करें।
महात्माजी के विचार निस्सन्देह मनन करने योग्य हैं। इसमें तो कुछ सन्देह ही नहीं कि कृत्रिम उपाय पूर्ण रूप से निर्दोष नहीं होते और उनसे प्रायः कुछ न कुछ हानि होती ही है। संयम का मार्ग उससे कहीं अधिक श्रेष्ठ है इसे मानने से भी कोई समझदार व्यक्ति इनकार नहीं कर सकते। फिर भी अगर हम कृत्रिम साधनों को थोड़े या अधिक अंशों में स्वीकार करें तो उसका एक मात्र कारण विवशता ही समझना चाहिए। कृत्रिम उपाय उन्हीं लोगों के लिए किसी हद तक क्षम्य माने जा सकते हैं, जो संयम करने की शक्ति नहीं रखते। फिर भी महात्माजी के इस मत को हम शिरोधार्य करते हैं कि संयम और इन्द्रिय-निग्रह का मार्ग ही सर्वश्रेष्ठ और प्रशंसनीय है।