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Magazine - Year 1958 - Version 2

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भारत की संसार को अमिट देन-मूर्ति पूजा

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(श्री विशनचन्द्र सेठ, सदस्य भारतीय लोक सभा)

संसार में मूर्ति पूजा तो सर्वत्र बिखरी पड़ी है, पर आश्चर्य है कि मूर्ति पूजा के नाम पर कुछ समूहों या सज्जनों द्वारा झूठा विरोध क्यों किया जाता है। मानव दैनिक जीवन में जो भी कार्य करता है या विचार करता है सर्वप्रथम उस कार्य या विचार का चित्र प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में उसके मनः पटल पर अंकित होता है। बिना किसी प्रकार के मानसिक चित्र या कल्पना के मानव संसार में कोई भी कार्य करने में समर्थ नहीं। जब यह स्थिति प्रत्यक्ष थी तभी तो भारत के महान् धार्मिक वैज्ञानिकों ने अलौकिक मूर्ति पूजा का विज्ञान जन साधारण के हितार्थ संसार के समक्ष रक्खा। भाग्यवान मानवों ने उसका स्वागत किया।

इस सत्य से मुख मोड़ा नहीं जा सकता कि मूर्ति पूजा से संसार में कोई भी जीवित व्यक्ति वैराग्य नहीं ले सकता। ईसाई तो प्रत्यक्ष श्री ईसामसीह के चित्र, मूर्ति एवं क्रास, गिरजाघर आदि को पवित्र मानकर उनके समक्ष नतमस्तक होकर अपने को सौभाग्यशाली मानते हैं। इस्लाम धर्म के मानने वाले भी किसी न किसी प्रकार से अपने पैगम्बर के, मस्जिद के तथा ताजिओं आदि के प्रति श्रद्धा प्रगट कर ईश्वर से सम्बन्धित आकारों की पूजा अपने विचारों के अनुसार कर परोक्ष रूप में साकार उपासना का प्रतिपादन करते हैं। मुसलमान अपने किसी भी धार्मिक चिन्ह का अपमान सहन नहीं कर सकता। यदि उनके दिल में आकृति के प्रति श्रद्धा नहीं है तो अपमान के प्रति विरोध भावना कहाँ से प्रगट होती है? किसी धार्मिक कृत्य पर सुगंध करना, स्वच्छ या नवीन वस्त्र पहनना, नियमित रूप से नमाज पढ़ना, रोजे रखना आदि कृत्य सब मूर्ति पूजा के ही तो परोक्ष अंग हैं।

संसार की उत्पत्ति के उपरान्त किन्हीं विभूतियों ने वस्त्र एवं सामाजिक प्रतिष्ठा की मान्यता का विधान बनाया होगा। आज नाना प्रकार के फैशनों में उसके विस्तार को देखकर आश्चर्य होता है। कितने प्रकार के कपड़े मानव ने बना डाले, कितने प्रकार के रंग ढंग देश देशान्तरों में चले और समाप्त हो गये, आज कितने प्रकार के कपड़े चल रहे हैं अथवा पहने जा रहे हैं, कोई उनकी गणना करने में भी समर्थ नहीं है। पर वाह रे सिद्धाँत तू तो अपनी जगह पर अटल खड़ा है। ठीक इसी प्रकार आध्यात्मवाद के आश्रय में बिरले ही मानव भगवान् के चरणों में पहुँचने में समर्थ थे और हैं। अतः साधारणजनों की रक्षार्थ मूर्ति-पूजन के सरल साधन द्वारा मानव को प्रभु चरणों से सम्बन्ध स्थापित करने का विधान बनाकर जिस अटूट सिद्धान्त की रचना की गई, कोई कुछ भी कहे वह अखण्ड-ज्योति की भाँति आज भी सारे संसार को प्रकाश दे रही है। संसार में अन्य देशों अथवा जातियों ने मूर्ति-पूजा का आन्तरिक महत्व नहीं समझा, वरन्, मानवी आवश्यकता के कारण उसे अनजाने ही अपना लिया। अतः उस अपनाने में मूल वस्तु तो रह गई, पर अन्य भौतिक साधन नष्ट हो गये। दूसरी ओर विशाल हिन्दू जाति ने उसके आन्तरिक महत्व और लाभ को समझते हुए उसका अनुसरण किया।

मानव, स्वभाव से अनेक प्रकार की भावनाओं के आश्रित होकर अपनी जीवन यात्रा पूरी करता है। सनातन धर्म ने वनस्पति, जल, जीव, तारागण, चन्द्र, सूर्य सारे चराचर को अपनी पवित्र पूजन पद्धति में स्थान देकर देवी देवताओं आदि की इतनी बाहुल्यता कर दी कि मानव -मात्र अपनी बुद्धि और रुचि के अनुसार पूजन शैली छाँटने में स्वतन्त्र है। भारतीय पूजन विधि में पाँचों इन्द्रियों को तृप्ति देने का सरल साधन है। चारों वर्णों की रचना को सार्थक करने हेतु सभी वर्णों की अनुकूल तृप्ति भी पूजन से बनती है। अन्त में चार अवस्थाएँ हैं। भारतीय पूजन विधि में बालकों के मनोविज्ञान की पूर्ति बाजे एवं प्रसाद पंचामृत से होती है। बड़े होने पर पाठ, शृंगार, कीर्तन आदि से मानव सन्तोष प्राप्त करता है। तृतीय अवस्था आने पर विचार, साधन, प्रवचन आदि सन्तोष के प्रत्यक्ष साधन हैं। संन्यास लेने पर सारे जगत को ब्रह्ममय मानकर मानव सेवा कर जगत को सन्मार्ग पर लगाने की सच्ची मूर्ति-पूजा का विधान है।

इस महान मूर्ति-पूजन की किस भाँति प्रशंसा की जावे। जिन महान् आत्माओं द्वारा संसार में इसका प्रादुर्भाव हुआ, संसार उनका सदैव आभारी रहेगा। मूर्ति पूजन के विज्ञान को विदेशी तो गंभीरता से समझना चाहते हैं, पर खेद है कि जिनकी वह धरोहर है, वे हिन्दू अज्ञानता वश इस अमूल्य धरोहर पर गर्व अनुभव करने की अपेक्षा अनेक प्रकार का विरोध प्रदर्शित कर अपने को गर्त में गिराते हैं। भगवान उन्हें सद्बुद्धि दे यही प्रार्थना है।

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