
दिखावटी और वास्तविक नैतिकता
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(श्री लालजी राम शुक्ल)
मनुष्य का स्वभाव दो तत्वों का बना हुआ है- एक पाशविक और दूसरा दैविक। पाशविक स्वभाव के कारण वह वैसा ही आचरण करता है जिस प्रकार संसार के दूसरे प्राणी आचरण करते हैं। जिस प्रकार संसार के अन्य प्राणियों में अनेक प्रकार की शरीर पोषण और सुख की इच्छायें हैं, उसी प्रकार मनुष्य में भी ये इच्छायें हैं। शरीर की रक्षा और उसके सुख की वृद्धि करने वाली जन्म जात प्रवृत्तियों को मूल प्रवृत्तियाँ कहा जाता है। ये प्रवृत्तियाँ प्रकृति की प्राणी मात्र को देन हैं। इनकी उत्पत्ति जीवन के परंपरागत अभ्यास से होती है। मूल प्रवृत्ति प्राणी मात्र की रक्षा करती और उनकी वृद्धि करती है। इन मूल प्रवृत्तियों का मुख्य ध्येय वैयक्तिक जीवन की वृद्धि है।
नैतिकता का हेतु मनुष्य को अपने व्यापक स्वभाव का ज्ञान कराना है। नैतिकता अपने आपको वैयक्तिक जीवन से ऊपर उठाने का साधन है। नैतिकता का आधार प्राकृतिक प्रवृत्तियाँ बताई जाती हैं। प्रवृत्तिवादी मानव-आचरण को दूसरे प्राणियों के आचरण से भिन्न नहीं मानते। जिस प्रकार दूसरे प्राणियों के आचरण का मूल स्रोत उन प्राणियों को सुख की चाह और दुःख से बचाव है उसी प्रकार मनुष्य के आचरण का भी मूल प्रेरक सुख की चाह और दुःख से बचाव होता है। पर इस प्रकार मनुष्य के आचरण को समझाना मनुष्य स्वभाव की विशेषता को दृष्टि से ओझल करना है। मनुष्य विवेकयुक्त प्राणी है मनुष्य का विवेक उसके व्यक्तित्व का प्रसार करता है। विवेक के कारण मनुष्य दूसरे व्यक्तियों के सुख में अपना सुख देखने लगता है और वह अपने आपकी पूर्णता को तब तक अनुभव नहीं करता जब तक दूसरे लोगों का उससे लाभ न हो।
पशुओं में अपने आवेश को रोकने की शक्ति नहीं रहती; उसे जिस ओर प्रकृति ले जाती है अर्थात् जिस ओर उसकी मूल प्रवृत्तियाँ प्रेरित करती हैं उसी ओर वह जाने लगता है। मनुष्य अपने आपको रोक सकता है, वह जन्म जात प्रकृति के प्रतिकूल आचरण कर सकता है, वह अपने वैयक्तिक स्वार्थ का त्याग करके परमार्थ के काम में अपने आपको लगा सकता है। नैतिकता का आधार मनुष्य की यही आत्म-नियंत्रण की शक्ति है। मनुष्य में यह शक्ति उसी प्रकार जन्म के साथ आती है जिस प्रकार उसकी मूल प्रवृत्तियाँ उसके जन्म के साथ आती हैं। इसका विकास अनुभव की वृद्धि के साथ अवश्य होता है, पर यह अनुभव से उत्पन्न नहीं होती। बहुत से मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि मनुष्य की अपने आपको रोकने की शक्ति उसी प्रकार प्राकृतिक शक्ति है जिस प्रकार उसकी मूल प्रवृत्तियाँ प्राकृतिक शक्ति हैं। मूल प्रवृत्तियों से ही आत्म-नियंत्रण की शक्ति का विकास होता है और इस विकास का साधन व्यक्ति का अनुभव है। एक मूल प्रवृत्ति दूसरी मूल प्रवृत्ति की सहायता करती है अथवा उसे रोकती है। मूल प्रवृत्तियों को रोकने वाली मूल प्रवृत्तियों से अतिरिक्त कोई सत्ता नहीं।
यदि हम उक्त सिद्धाँत को मान लें तो नैतिकता को एक प्रकार की चतुराई के अतिरिक्त और कुछ नहीं मानना पड़ेगा। नैतिकता व्यक्ति के प्रसार का हेतु भले ही हो, उसकी सीमा को पार करने का साधन नहीं माना जा सकता। पर नैतिकता को मूल प्रवृत्तियों का परिवर्तित रूप मानना न्याय संगत नहीं। यदि नैतिकता मूल प्रवृत्तियों का परिवर्तित रूप मात्र होती तो वह प्राकृतिक आचरण से भिन्न वस्तु न होती। पर वास्तव में नैतिकता प्राकृतिक आचरण से भिन्न वस्तु है। यह मनुष्य की नैतिकता के लिये अपने आपका बलिदान कर देने से प्रमाणित होता है। नैतिकता चतुराई का नाम नहीं, वरन् आत्मसमर्पण का नाम है।
डॉक्टर फ्रायड और उनके कुछ अनुयायी नैतिकता को कृत्रिम वस्तु मानते हैं। इसका आधार न तो मनुष्य की मूल प्रवृत्तियाँ हैं और न कोई दूसरा जन्म जात तत्व। इसका आधार समाज में प्रचलित भावनायें ही हैं। ये भावनायें मनुष्य के प्राकृतिक स्वभाव पर नियंत्रण करती हैं और उसका दमन करती हैं। मनुष्य के व्यक्तित्व में अनेक प्रकार के रोग इसी दमन के कारण उत्पन्न होते हैं। मनुष्य में शम का भाव नैतिकता के कारण ही आता है नैतिकता मानव स्वभाव पर ऊपर से लादी गई वस्तु है। पहले पहले नैतिकता प्रलोभन और दण्ड की सहायता से लादी जाती है पीछे वह स्वभाव का अंग बन जाती है। मनुष्य के मन में मानसिक द्वन्द्व तब तक रहता है, जब तक उसके मन में नैतिकता के भाव प्रबल होते हैं। नैतिक भावना, ही अन्तर्प्रेरणा का रूप धारण कर लेती है और मनुष्य में आत्मभर्त्सना की मनोवृत्ति उत्पन्न करती है। यदि नैतिकता का प्रतिबन्ध मनुष्य के मन से उठा लिया जाय तो उसके मानसिक अन्तर्द्वन्द्व का अन्त हो जाय।
उक्त सिद्धाँत उसी प्रकार विवेचना युक्त बुद्धि से रहित है जैसा प्रकृतिवाद का सिद्धान्त। यदि मनुष्य के स्वभाव में नैतिकता न होती तो वह समाज में कैसे आ जाती है? मानव-समाज व्यक्तियों का ही बना है। अतएव मानव-समाज में उस तत्व की उपस्थिति की सम्भावना नहीं जो समाज के प्रत्येक व्यक्ति में न हो। यह सम्भव है कि हम समाज के किसी विशेष व्यक्ति को बड़ा मानते हों पर बड़े मानने की प्रवृत्ति जब तक हमारे स्वभाव में पहले से ही न हो तब तक हम किसी को बड़ा और छोटा न मानेंगे। वास्तव में अपने आपके भाव ही हम समाज पर आरोपित करते हैं और फिर समाज से हम अपनी ही उधार दी हुई वस्तु वापस लेते हैं। मनुष्य का मन एक भारी भूल-भुलैया है। मनुष्य अपने आपको सीधे प्रकाशित नहीं करता। वह अपने आपको भूला हुआ रहता है, और अपने ही गुण अथवा दोषों को दूसरों पर आरोपित करके उनसे परिचित होता है। सत्य, सौंदर्य और नैतिकता का उदय मनुष्य के मन से ही होता है पर वह यह नहीं जानता है। वह इन्हें किसी बाह्य पदार्थ के ऊपर आरोपित करके पहचानता है। जिस प्रकार मनुष्य अपने चरित्र के दोषों को दूसरों पर आरोपित करता है, इसी प्रकार वह अपनी पूर्णता को भी दूसरों पर आरोपित करता है, और जिस प्रकार अपने में आये दोषों के लिये वह दूसरे व्यक्तियों को कारण मानता है, इसी प्रकार अपने आप में पैदा हुई खूबियों का कारण भी वह किसी बाह्य सत्ता को जान लेता है। धार्मिक लोग ईश्वर को इसका कारण मानते हैं, प्रकृतिवादी प्रकृति को और मनोवैज्ञानिक समाज को कारण मान लेते हैं इस प्रकार की मनोवृत्ति को अध्यास (इन्ट्रोजेक्शन) कहा जाता है। हम अपनी बड़ाई को दूसरे को देकर फिर हम उससे उधार लेते हैं। यह एक विस्मयजनक मानसिक व्यापार है। इस प्रकार का भ्रम अपने आन्तरिक स्वभाव को न जानने के कारण ही होता है।
पर कुछ लोग नैतिकता को भली वस्तु न मान कर उसे बुरी वस्तु ही मानते हैं। इसी कारण समाज में अनेक प्रकार की झंझटें उत्पन्न होती हैं और वैयक्तिक अन्तर्द्वन्द्व होता है। पर यदि उसे बुरा माना जाय तो भी उसे मानव स्वभाव का आवश्यक अंग ही मानना होगा और उसकी जड़ अपने आन्तरिक मन में माननी पड़ेगी। नैतिकता के प्रतिकूल आचरण करने से जो कार्य का भाव अथवा आत्मग्लानि उत्पन्न होती है वह मनोविश्लेषण के विद्वानों के कथनानुसार पिछले दण्ड के संस्कारों के कारण ही होती है। जैसे बचपन में अनुचित काम के लिये पिता दण्ड देता है उसी प्रकार प्रौढ़ावस्था के अनुचित आचरण के लिये हमारी अन्तरात्मा दण्ड देने लगती है, पर नैतिकता का आधार दण्ड का भय, चाहे वह बाहरी भय का दण्ड हो अथवा भीतरी दण्ड का, नैतिकता को वास्तव में निकृष्ट वस्तु बना देता है। भय मनुष्य की इच्छा शक्ति को कमजोर करता है और यदि नैतिकता का आधार भय है तो मनुष्य में किसी भी चरित्र के भले गुण का विकास कैसे हो सकता है? चरित्र के गुणों का आधार भय नहीं वरन् प्रेम है। भय प्रेम का विनाशक है और यदि नैतिकता का आधार भय है तो वह त्याज्य वस्तु है।
हमारा विचार है कि सच्ची नैतिकता का आधार प्रेम ही है। नैतिकता में त्याग की आवश्यकता होती है। यह त्याग बिना प्रेम के सम्भव नहीं। भय वश किया गया स्थायी त्याग नहीं होता, प्रेम वश किया गया त्याग स्थायी त्याग होता है। ठोस चरित्र की नींव भी प्रेम है, प्रेम से इच्छा शक्ति बलवती होती और भय से कमजोर होती है। जिस व्यक्ति की इच्छा शक्ति बलवान नहीं उसका चरित्र ऊँचा कैसे हो सकता है? जहाँ प्रेम है वहीं बल है और वहाँ भय का अभाव होता है, चाहे यह भय समाज का हो, ईश्वर का हो अथवा अन्तरात्मा का, सभी प्रकार के भय बुरे होते हैं।
भय के ऊपर जिन लोगों का सदाचार निर्भर करता है, वे भय के चले जाने पर दुराचारी बन जाते हैं। यही कारण है कि अपने आपको कठोर नियंत्रण में रखने वाले व्यक्तियों के मन में भारी मानसिक अन्तर्द्वन्द्व रहता है जो बाहरी संघर्ष में आरोपण के रूप में प्रकाशित होती है। अपने आप पर अत्याचार करने वाला और अपने आपको डरा कर सदाचारी बनाये रखने वाला व्यक्ति कभी भी आन्तरिक मन में सुखी नहीं रहता। उसे किसी न किसी प्रकार की शारीरिक अथवा मानसिक परेशानी बनी ही रहती है। जब तक मनुष्य के भीतरी और बाहरी मन में एकता का भाव नहीं आ जाता, तब तक उसकी परेशानियों का अन्त नहीं होता। यह एकता का भाव मनुष्य की नैतिक धारणाओं और उसकी सुख की प्रवृत्तियों में सौम्य स्थापित करने से आता है। कठोर तप का जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति के मन में आन्तरिक शान्ति नहीं रहती। इस आन्तरिक अशान्ति को वह किसी प्रकार भुलाने की चेष्टा करता है। जब तपस्वी व्यक्ति की संसार के लोग प्रशंसा करने लगते हैं तो वह मिथ्या आत्म संतोष प्राप्त करता है। फिर जगत की प्रशंसा प्राप्त करने का भाव ही घोर तप का कारण बन जाता है।
सच्ची नैतिकता की नीति प्रेम और आत्म-संतोष है जब किसी भोग का त्याग कोई मनुष्य आन्तरिक अथवा बाह्य भय के कारण नहीं वरन् प्रेम के कारण अथवा प्रेम जनित आत्म-संतोष के कारण करता है तो उसे दूसरे किसी प्रकार के पुरस्कार की अपेक्षा नहीं रहती। प्रेम की भावना ही उस सुख को देती है जो वह भोगेच्छाओं को संतुष्ट न करने के कारण खो देता है। प्रेम पर आधारित नैतिकता में इच्छाओं का दमन नहीं होता, वे प्रेम के प्रवाह से ही तृप्त हो जाती हैं। प्रेम से प्रेरित नैतिकता में किसी प्रकार का दिखावटीपन अथवा अतिक्रम नहीं होता। मनुष्य धीरे-धीरे अपने आप पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा करता है। वास्तव में यह विजय-विजय ही नहीं है। यह तो नैतिक और ऐच्छिक मन में प्रेम व्यवहार है। मनुष्य अपने आपको भुला कर अथवा उसकी अवहेलना करके अपने आप पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता; वह अपने आपको जानकर ही अपने आप पर विजय प्राप्त कर सकता है।