
नीति पर चलना मनुष्य का प्रथम कर्त्तव्य है।
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(महात्मा गाँधी)
आजकल संसार में पाखंड बहुत बढ़ गया है। मनुष्य-चाहे वह किसी भी धर्म का हो-धर्म की ऊपरी बातों का ही विचार करता है, और अपने वास्तविक कर्त्तव्य को भूल जाता है। हम इस बात का ध्यान नहीं रखते कि धन की अति लालसा से दूसरों को क्या दुःख होता है या क्या दुःख होगा। योरोप की स्त्रियाँ ऐसे मोजों के पहनने में जरा भी नहीं हिचकिचाती जो अत्यन्त कोमल छोटे-छोटे जानवरों को मार कर उनके रोओं से बनाये जाते हैं। इस प्रकार चारों ओर देखने से विदित होता है कि योरोप और अमेरिका में ऐसे बहुत से मनुष्य हैं जो धर्म विरुद्ध व्यवहार कर रहे हैं। साथ ही वे यह भी कहते हैं कि यदि संसार में धर्म होता तो आज जो दुराचार बढ़ रहा है वह न बढ़ता। परन्तु उनके ये विचार मिथ्या हैं। प्रायः मनुष्यों की आदत होती है कि वे अपनी भूल न देखकर हथियारों को दोष दिया करते हैं। इसी तरह वे मनुष्य भी अपने दुराचारों का विचार न करके धर्म को बुरा बताते हैं और स्वच्छन्दता से जैसा उनको अच्छा लगता है आचरण करते हैं।
इस तरह की स्वच्छन्द प्रवृत्ति को बढ़ती हुई देखकर कुछ लोग इसके विरुद्ध उठ खड़े हुये हैं। उन्हें भय है कि यदि इस प्रकार सारे धर्म उठ जायेंगे, तो संसार को भारी हानि पहुँचेगी, लोग नीति का सर्वथा त्याग कर देंगे और पशु-तुल्य व्यवहार करने लगेंगे। इसलिये वे भिन्न-भिन्न मार्गों से नीति पर चलाने का प्रयत्न कर रहे हैं। इस उद्देश्य से उन लोगों ने एक ऐसे मंडल की स्थापना की, जिसने जगत के प्रायः सभी धर्मों की जाँच करके यह बतलाया कि संसार के प्रायः सभी धर्म नीति पर चलने की शिक्षा देते हैं। इतना ही नहीं, किन्तु उन धर्मों का आधार बहुत करके नीति के नियमों पर ही रहता है। अतएव कोई मनुष्य किसी धर्म-विशेष का पालन करे या न करे तो भी नीति के नियमों का पालन करना तो उसका धर्म है। और जो लोग नीति के नियमों का पालन नहीं कर सकते, वे इस लोक में या परलोक में अपनी या दूसरों की भलाई भी नहीं कर सकते। इन लोगों ने समस्त धर्मों का सार लेकर उनके आधार पर नीति के नियमों का ही प्रतिपादन किया है। वे किसी धर्म का खंडन नहीं करते, इसलिये उनके मंडल में प्रत्येक धर्म के व्यक्ति शामिल हो सकते हैं। यह मंडल दृढ़ता के साथ इस बात को मानता है कि प्रत्येक मनुष्य को नीति का पालन करना चाहिये। यदि नीति को भंग किया जायगा तो संसार की सब योजनाएँ छिन्न-भिन्न हो जायेंगी और मानव जाति को बड़ी भारी हानि उठानी पड़ेगी।
नीति पर चलने का मुख्य परिणाम यह होता है कि उससे हम अच्छे विचारों को ग्रहण कर लेते हैं। दुनिया के अधिकाँश शास्त्र तो यह बतलाते हैं कि “दुनिया कैसी है?” पर नीति शास्त्र बतलाता है कि “दुनिया कैसी होनी चाहिये?” इससे इस बात की जानकारी होती है कि मनुष्य को किस प्रकार का आचरण करना चाहिये? मनुष्य के हृदय में दो खिड़कियाँ हैं। एक में से उसे दिखाई देता है कि वह खुद कैसा है और दूसरी में से दिखाई देता है कि उसे कैसा होना चाहिये।
मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह शरीर, मन और मस्तिष्क, इन तीनों की अलग-अलग जाँच करे, परन्तु उसे इतने पर ही निर्भर न रह जाना चाहिये। यदि वह केवल जाँच पर ही निर्भर रह जाय तो उसने जो कुछ ज्ञान-लाभ किया है उससे वह कुछ लाभ नहीं उठा सकता। उसे जानना चाहिये कि अन्याय, दुष्टता, अभिमान आदि के कैसे दुष्परिणाम होते हैं। इतना ही नहीं, उसे यह भी जानना चाहिये कि इन तीनों के एकत्र मिल जाने से कैसी खराबियाँ होती हैं। केवल इनको जानकर बैठने से ही कुछ लाभ नहीं है। तदनुसार आचरण भी करना चाहिये। नीति का विचार मकान के नक्शे जैसा है। नक्शा बतलाता है कि घर किस तरह बनाना चाहिये, पर जिस प्रकार नक्शे के अनुसार मकान न चिनवाने पर नक्शा व्यर्थ हो जाता है-उसका कोई उपयोग नहीं होता-उसी भाँति नीति के विचारों के अनुसार जो आचरण न किया गया हो तो नीति के विचार भी व्यर्थ हो जाते हैं। बहुत से मनुष्य नीति के वाक्य याद करते हैं, उन पर भाषण देते हैं और बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, परन्तु वे उसके अनुसार चलते नहीं और चलने की इच्छा भी नहीं रखते। और कुछ लोग ऐसे हैं जो कहते हैं कि नीति के विचार इस दुनिया में आचरण करने के लिये नहीं होते, मरने के बाद जिस दुनिया में हम जाते हैं उसमें करने के लिये होते हैं। मगर उनका यह कथन प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता। एक विचारक व्यक्ति ने कहा है कि “हमें सम्पूर्ण मनुष्य बनना हो तो आज ही से-चाहे जितना कष्ट उठाकर भी नीति के अनुसार आचरण करने लग जाना चाहिये। ऐसे विचारों से हमें भड़कना नहीं चाहिये, किन्तु अपनी जवाबदारी समझ कर उसके अनुसार चलने में प्रसन्नता माननी चाहिये।
ईश्वर सर्व शक्तिमान है-सम्पूर्ण है। उसके स्नेह की, उसकी दया की और उसके न्याय की कोई सीमा नहीं। यदि ऐसा है तो हम जो उसके बंदे-सेवक गिने जाते हैं, कैसे नीति मार्ग को छोड़ सकते हैं? नीति मार्ग पर चलने वाले को सफलता न हो तो उसमें नीति का कोई दोष नहीं है, किन्तु दोष उसी का है जिसने नीति का भंग किया है। नीति-मार्ग पर चल कर जो नीति की रक्षा की जाती है वह इसलिये नहीं कि उसका बदला मिले। मनुष्य शाबाशी के लिये भलाई नहीं करता है, बल्कि इसलिये करता है कि वह भलाई किये बिना रह नहीं सकता। उसके लिये भोजन और कार्य की तुलना करने पर अच्छा कार्य ही उच्च प्रकार का भोजन प्रमाणित होगा। उसको यदि कोई दूसरा मनुष्य भलाई करने का मौका देता है तो वह उसका उपकार मानता है, जिस प्रकार कि भूखा मनुष्य भोजन देने वाले को आशीर्वाद देता है।
ऊपर जिस नीति-मार्ग के विषय में कहा गया है, वह मार्ग ऐसा नहीं है जिससे दिखाऊ मनुष्यता प्राप्त की जाय। उसका अर्थ यह भी नहीं है कि विशेष परिश्रमी बनना, विशेष शिक्षा प्राप्त करना, विशेष स्वच्छ रहना आदि। ये सब बातें तो उसमें आ ही जाती हैं, इनका आचरण मात्र नीति की सरहद पर पहुँचने के समान है। इसके सिवा भी इस मार्ग में मनुष्य के करने लायक बहुत कुछ रह जाता है, और वह कर्त्तव्य रूप से रहता है इसलिये कि वैसा करना मनुष्य का स्वभाव है। वह उसे यह समझ कर नहीं करता कि उससे उसे कुछ लाभ उठाना है।