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Magazine - Year 1958 - Version 2

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अखण्ड-ज्योति की ओर चलो

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(श्री सुदर्शनदेव शास्त्री ‘उपाध्याय’ गुरुकुल झज्जर)

विश्व में प्राणिमात्र ज्योति से प्रेम करता है। अन्धकार से प्राणी की स्वाभाविक घृणा दृष्टि देखने में आती है। अन्धकारप्रिय प्राणी लोक में असुर पद से व्यवहृत होते हैं। ज्योति को देखकर पतंग भी उस ज्योति में लीन हो जाता है। अवसर पाकर पतंग भी उस ज्योति में गिरकर अपने आपको स्वाहा कर देता है। पतंग की ज्योतिप्रियता अति प्रशंसनीय है। अंधकार में भूला-भटका मानव एक टिमटिमाते दीपक को पाकर ही अपने आपको सौभाग्यशाली समझता है। ज्योति की महिमा अपार है। वास्तव में ज्योति ही जीवन है।

आप लोक में अनेक प्रकार की ज्योतियाँ देख रहे हैं। आज के वैज्ञानिक युग में तो ज्योतिर्गमय पदार्थों की संख्या अपरिसंख्येय है। सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि प्राकृतिक ज्योतिर्गमय पदार्थ हैं, जिनकी सत्ता से ही प्राणिमात्र जीवन प्राप्त कर रहा है। यदि एक सूर्य की ज्योति सर्वथा लुप्त हो जाये तो सब लोक व्यवस्था धूल में मिल जाए। अस्तु।

हाँ। तो मैं आपका एक ऐसी ज्योति की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ जो ज्योति अनादिकाल से लेकर चली आ रही है और अनन्त काल तक अपने स्वरूप में विद्यमान रहेगी, जिसको आप अखंड-ज्योति नाम दे सकते हैं।

आज के वैज्ञानिक युग की चकाचौंध उस अखंड ज्योति की एक किरण के तुल्य भी नहीं है। जितने ज्योतिर्मय पदार्थ विश्व में देखने को मिलते हैं वे उसी अखण्ड ज्योति से ही प्रकाशमान हैं। दुर्जन तोष न्याय से उसके अभाव में सकल संसार असार है। प्राणिमात्र में भी जो गति तथा ज्योति दृष्टिगोचर हो रही है वह भी उसी अखण्ड ज्योति से ही बल पाकर सत्तारूढ़ है।

आज का भोला संसार उस अखण्ड ज्योति की सत्ता के सम्बन्ध में पूछने पर ‘नेति’-’नेति’ का उत्तर प्रदान करता है, किन्तु ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ’ जो गम्भीरतापूर्वक सूक्ष्म ईक्षिका से उस अखण्ड ज्योति की खोज करता है वह एक दिन उसे पाकर अथाह आनंद सागर में गोते लगाता है। “तमसो मा ज्योतिर्गमय” का संकेत उसी अखण्ड ज्योति की ओर है।

आप अवश्य समझ गए होंगे कि वह अखण्ड ज्योति क्या है? उसे मनुष्य ब्रह्म, भगवान् विष्णु, ओऽम्, खुदा, शक्ति, कुदरत आदि-आदि नामों से अपने विश्वास अनुसार पुकारते हैं। एक मात्र सभी का अंगुलि निर्देश उस दिव्य अखण्ड ज्योति भगवान् की ही ओर है। वास्तव में प्राणिमात्र का, विशेषतः मानव समाज का कल्याण एवं मंगल उस अखण्ड ज्योति की प्राप्ति में ही है। अतः वेद भगवान कहता है “ऋतस्यपथा प्रेत” उस अखण्ड ज्योति की ओर चलो।

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