
सन् 62 (Kavita)
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‘होने वाली है महाप्रलय सन् बासठ में’
ज्योतिषियों ने कर दी है यह भविष्यवाणी,
इस शस्य-श्यामला वसुधा का फिर शोितडडडडडड से;
सिंचन करने को उद्यत होगा हर प्राणी;
कहते हैं, द्वापर में जब हुआ महाभारत,
उस समय सात ग्रह शनि के घर में आये थे
साहित्यकार, वैज्ञानिक, शिल्पी, शूर-वीर
जिनके प्रभाव से एक न बचने पाये थे;
लाशों के सिंहासन पर बैठे युधिष्ठिर ने,
मरघट में अपनी जय का दीप जलाया था
मुँडों की पहिना माल, कफन का ताज बाँध,
तब रैयत ने आहों का शंख बजाया था;
लेकिन अब उससे बढ़कर होने वाला है,
हो रहे नव-ग्रह एकत्रित शनि के घर में
उस बार आग पृथ्वी तक सीमित थी, लेकिन
इस बार पहुँच लेगी सम्भवतः अम्बर में;
तो सचमुच ही उस सन् बासठ के सावन में,
क्या गा पायेगी मेरी बहिन मल्हार नहीं?
क्या सचमुच माँ का प्यार न तब मिल पायेगा,
क्या दे पायेगा कोई पिता दुलार नहीं?
यह ताजमहल, यह लालकिला, जामा मस्जिद,
यह कुतुब, सीकरी, साँची, सुन्दर गुरुद्वारे;
ये गिर्जे, ये मन्दिर, नाँगल, भाखड़ा बाँध,
ऐलोरा और अजन्ता के ये नज्जारे;
ये बन्दरगाह, म्यूजियम, पुल, ये राजमहल,
क्या इन सब पर ऐटम की बिजली बरसेगी?
क्या चन्द्रलोकगामी राकेटों की छाया,
इस उजड़ी दुनिया की हालत पर तरसेगी?
सम्भव है, यह सब हो जाये सन् बासठ में,
विज्ञान मृत्यु को खुला निमन्त्रण देता है;
हर ओर स्वार्थ के आसन पर बैठा पिशाच
फैला निज माया-जाल जमाई लेता है;
दिन-रात ढल रहे हैं उदजन बम, एटमबम,
दिन-रात बढ़ रही है संख्या राकेटों की;
दिन-रात विविध देशों की सीमा, कर्म भूमि-
बनती जाती है इन सबके आखेटों की;
‘हम आज रात सोयेंगे’-शायद सच हो,
पर ‘कल जागेंगे’-इसका कौन ठिकाना है?
बन रहा आदमी स्वयं मृत्यु का कृपा-पात्र,
अपना जीवन उसने कर दिया बिराना है;
इसलिए जवानों! उठो और देर मत करो,
बुड्ढों से राहत तुम्हें नहीं मिल पायेगी;
यदि आज तनिक भी चूक गये इस अवसर पर,
तो भरी जवानी प्यासी ही मिट जायेगी;
है चार वर्ष की अवधि बहुत, तुम चाहो तो-
दो दिन में ही सब कुछ कर दिखला सकते हो
जन्मेजय बन, कर नाग-यज्ञ का आयोजन,
इन सभी भुजंगों को वश में ला सकते हो!
आधुनिक विश्व का वेद व्यास यह कहता है,
मत मुझे महाभारत लिखने का अवसर दो!
तक्षक डंस जाय परीक्षत को-इससे पहले,
जितने भी विषधर हों सब को निर्विष कर दो।
केवल इन नवग्रहों से ही मत बात करो,
जितने भी नभचर हैं, सबको बतला दो तुम
सन् बासठ तो आयेगा चार वर्ष पीछे,
इनको तो आज, इसी क्षण ही जतला दो तुम;-
तैंतीस कोटि सम्पूर्ण खडडडडडड-मण्डल में तुम हो
छत्तीस कोटि हम इस भारत के वासी हैं;
तुम एक सूर्य के सम्मुख सब छिप जाते हो
हम यहाँ सूर्य से शत-शत गुने प्रकाशी हैं?
यदि कभी भूल कर अब पृथ्वी की ओर बढ़े
तो तुम सब का अस्तित्व न रहने पायेगा;
अब तक पृथ्वी पर हमने झण्डा फहराया,
फिर तुम सबके घर-घर में जा फहरायेगा।
“सैनिक” से
*समाप्त* (श्री राजेश दीक्षित)