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Magazine - Year 1958 - Version 2

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यजुर्वेद के सम्बन्ध में कुछ ज्ञातव्य बातें

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(श्री रामदास गौड़)

महापुराण और अन्य अनेक प्राचीन शास्त्रों में कहा गया है कि त्रेतायुग में केवल एक ही वेद था- यजुर्वेद। ‘यजुर्वेद’ में मुख्य रूप से यज्ञों का विधान है और यही कारण है कि उस काल में सर्वत्र यज्ञों की बात ही सुनने में आती थी और यज्ञ-कर्म की ही प्रधानता थी। हरिशचन्द्र को पुत्र चाहिये तो वे यज्ञ करते हैं, त्रिशंकु स्वर्ग जाना चाहते हैं तो उनको भी यज्ञ का आश्रय लेना पड़ता है, दशरथ को पुत्रों की अभिलाषा है तो वशिष्ठ जी पुत्रेष्टि यज्ञ की व्यवस्था करते हैं। इतना ही नहीं ऋषियों के यज्ञों में विघ्न डालने वाले रावण, मेघनाद जैसे राक्षस भी अपनी विजय के लिये यज्ञ करते थे। राज्याभिषेक यज्ञ से होता था, और रामचन्द्रजी का विवाह भी धनुष यज्ञ से हुआ प्रत्येक प्रतापशाली राजा अश्वमेध यज्ञ करके सार्वभौम का पद पाने की अभिलाषा करता था। इस प्रकार ‘यजुर्वेद’ यज्ञ-कर्म का ही वेद है। ऋग्वेद के मंत्र यज्ञ में काम आते हैं, सामवेद के मंत्रों का यज्ञ में गान होता है, व्यक्तिगत अभिलाषाओं के यज्ञों में अथर्ववेद के मंत्रों का प्रयोग किया जाता है। इस दृष्टि से ‘यजुर्वेद’ का प्रभाव और सर्वग्राह्यता स्पष्ट है।

‘यजुर्वेद’ के दो संस्करण या दो पाठ हैं। एक का नाम ‘शुक्ल यजुर्वेद’ है और दूसरे का नाम ‘कृष्ण यजुर्वेद’ है। शुक्ल यजुर्वेद में 15 शाखाएँ हैं- काणव, माध्यंदिन, जाबाल, बुधेय, शाकेय, तापनीय, कापीस, पौड्रवहा, आवर्तिक, परमावर्तिक, पाराशरीय, वैनेय, बौधेय और गालव। इन समस्त शाखाओं को एकत्रित रूप में वाजसनेयी शाखा भी कहते हैं। शुक्ल यजुर्वेद संहिता में कुल मिलाकर 1990 मंत्र हैं। इस से चार गुना अधिक इसके ‘ब्राह्मण’ ग्रन्थ का परिमाण है।

‘कृष्ण यजुर्वेद’ का दूसरा नाम तैत्तिरीय संहिता है। इसमें काठक, कपिस्थल-कंठ, मैत्रायणी और तैत्तिरीय- ये चार शाखायें हैं। शुक्ल और कृष्ण यजुर्वेद में कहीं-कहीं पाठभेद है, पर मुख्य भेद उच्चारण का है। वेद मंत्रों में उच्चारण की ही प्रधानता होने से गुरुमुख से श्रवण करना अनिवार्य था। इस प्रणाली के अनुसार शिक्षा प्राप्त करने से कई सौ या हजारों वर्षों में भेद पड़ जाना कुछ आश्चर्य की बात न थी। दोनों पाठों में ऋचाएँ वहीं हैं, गद्य और पद्य दोनों अंश एक से ही हैं परन्तु विषयक्रम और उच्चारण में अन्तर हो जाने से दो अलग-अलग शाखायें बन गई हैं। इस परम्परा-भेद के साथ देश-भेद होना भी अनिवार्य था और भारतवर्ष जैसे विशाल देश में यह बात स्वाभाविक भी थी। आज यह बात प्रसिद्ध है कि बंगाल सामवेदी, मध्यप्रदेश यजुर्वेदी और महाराष्ट्र आदि दक्षिण देश ऋग्वेदी हैं। अर्थात् इन देशों में इन वेदों की प्रधानता है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि और वेदों की परम्पराओं वाले लोग इन देशों में नहीं रहते।

‘शुक्ल यजुर्वेद संहिता’ में चालीस अध्याय हैं, जिनमें से उन्तालीस अध्याओं में तो यज्ञों का वर्णन है और चालीसवें अध्याय में समस्त संहिता का उपसंहार है, जिसे ‘ईशावास्योपनिषद्’ भी कहते हैं। नीचे हम यजुर्वेद के इन उन्तालीस अध्यायों में वर्णित मुख्य-मुख्य विषयों का उल्लेख करते हैं जिससे पाठक को इस संहिता के स्वरूप का सामान्य परिचय मिल जायगा।

(1) पहले अध्याय में ये विषय दिये गये हैं- अमावस और पूर्णिमा के यज्ञों का विधान, वत्सों का लगाना, दूध दुहना, दूध की शुद्धि, त्याग-व्रत, चावलों का पिण्ड अग्नि को, हविष्यान्न, यज्ञ के लिये जल लाना और पवित्र करना, कृष्ण मृग-चर्म को बिछाना, अन्न कूट कर पाक करना, पाषाण का मृगछाला पर रखना, हविष्यान्न का विभाग, असुर अररुका-निवारण, वेदी के तीनों और रेखायें खींचना, प्रेतों-पिशाचों का निवारण, यजमान-पत्नी का ग्रन्थि बंधन।

(2) दूसरे अध्याय में समिधा, वेदी और कुशों का मार्जन, कुशों पर प्रस्तर संनिधान, समिधा को वेदी पर रख कर अग्नि का आरम्भ, असुरों का निवारण, प्रस्तर और युवाओं का रखना, अग्नि को होता नियुक्त करना, यज्ञ रक्षार्थ प्रार्थना, समिधा का अभिषेक और अग्नि निक्षेप, यजमान-पत्नि की ग्रन्थि खोलना, वेदी का जल सिंचन, राक्षसों का भाग, विष्णु-त्रिविक्रम, व्रत समाप्ति, पिण्ड, पितृयज्ञ, प्रेत निवारणार्थ रेखा खींचना, पितरों के लिये सूत, ऊन या केश का वस्त्रार्थ प्रदान, यजमान पत्नी का पुत्रार्थ मंत्रोच्चारण, हविष्यान्न पर जलधारा।

(3) अन्याधान, अग्निहोत्र, प्रातः तथा सायं का गोदोहन, गार्हपत्य अग्निपूजन, गोगुण-गान, गार्हपत्य तथा आह्वनीय अग्नियों का पूजन, अग्नि पुरिष्यका पूजन, पाक्षिक-यज्ञ, यजमान की दीक्षा, पत्नी की दीक्षा यजमान का यज्ञार्थ मुँडन।

(4)सोमयाग, आपसुदीक्षा औदग्रभण, कटिबन्धन, कृष्ण मृगशिर बन्धन, वृतान्नपाक, गोक्रम, सोमस्तुति, सोमक्रम, सोम प्रवेश।

(5) सोमातिथ्य, आह्वान, सोमाध्यापन, सोमवेदी की तैयारी और कुण्ड के चतुष्कोण अभिषेचन, हविर्धान का निर्माण, होत्र्याधान का निर्माण, धिष्णाधिका निर्माण, होत्र्याधन का आवरण, सोमकुण्ड, सोम पत्रादि का रखना, कृष्णसार चर्म पर सोम की स्थापना, पशु-यज्ञ, पूर्व-निर्माण।

(6) यूप (खंभे) को खड़ा करना, बालिपशु का बन्धन तथा बध, माँस वलि, विभक्ताँश का पुनः संयोग, पुनरुज्जीवित पशु का स्वर्ग गमन, सोमयाग।

(7-8) ग्रह, ग्रहण, उपाँशुग्रह, अन्तर्याम ग्रह, मैत्रावरुण प्रह, आश्रित ग्रह, शुद्धग्रह, मन्थन ग्रह, ऋतुग्रह, मरुतीय ग्रह, माहेन्द्रग्रह, दक्षिणा होम, साँय ग्रहण, आदित्यप्रद, सावित्रीग्रह, महाब्रत्याग्रह, रात्रोत्थाना।

(9-10) वाजपेय, सोमग्रह, सुरग्रह, घोड़ों का मार्जन और जोतना, दुन्दुभिवाद, यजमान का राज्याभिषेक, राजसूय, प्रारम्भिक तर्पण, राजाभिवादन, अभिषेक जल-संग्रह, व्याघ्रचर्म प्रसारण, तीनों वाणों का प्रदान, राजागमन यजु, अभिषेचन, गोग्रहण, रथ विमोचनीय।

(11-16) अग्निचयन, मृत्तिका-ग्रहण, खनन, गार्ह्यपत्य निर्माण, भूशोधन, इष्टिकानयन, सीताकरण, जल सिंचन, अग्निस्तवन, कमलखण्ड, हिरण्यस्तवन, इष्टिका, कूर्म, मुसल-ऊखल, अपूर्ण कुण्ड यजन गाहपत्यानि।

(17) वेदी पर अधिकार, वेदी पर आरोहन, अग्नि का आवाहन, मधुपर्क, अग्निस्तवन, इन्द्रस्तवन, श्वेत वत्स वाली श्यामा गौ के दुग्ध से तर्पण घृत प्रशंसा।

(18-21) अश्विनीकुमार, इन्द्र और सरस्वती को दूध, यजमान की शुद्धि, सुरा का परिवर्तन, दक्षिणाग्नि में सुरा का हवन, पितरों का सावन, शताछिद्र सुराधार, यजमान का प्रसादपान, इन्द्र की पुनरुत्पत्ति, यज्ञ में इन्द्र का आवाहन. अश्विनीकुमारों और सरस्वती का स्तवन, वरुण-स्तवन, मित्रावरुण का हवन।

(22 से 29) वें अध्याय तक अश्वमेध यज्ञ का विधान है। 30 और 31 में पुरुषमेध का वर्णन है- फिर उसके लिये उपयुक्त उन स्त्रियों और पुरुषों का वर्णन है जो विविध देवताओं के लिये बलि दिये जा सकते हैं। 32 और 33 में सर्वमेध यज्ञ का विधान है। 34 में साधारण यज्ञों के विधान हैं और 35 में अंत्येष्टि संस्कार के समय होने वाले पितृयज्ञ मंत्र हैं। 36 से 38 तक महावीर की यात्रा. धेन्वावाहन दोहन, महावीराभिषेक, महावीर के रूप में अग्नि स्तवन, देवताओं का महावीर द्वारा प्रतिनिधित्व, सातों मरुतों के नाम, विविध देवताओं की पूजा आदि है।

यजुर्वेद में ऋग्वेद के 1000 मंत्र और अथर्व वेद के बहुत से मंत्र जगह-जगह आये हैं। पश्चिमी विद्वानों का मत है कि यजुर्वेद में ये मंत्र इन दोनों वेदों से ग्रहण किये गये हैं। पर भारतीय विद्वान इसे स्वीकार नहीं करते वे चारों वेदों को एक ही स्त्रोत से उत्पन्न अनादि मानते हैं। मंत्रों का विभाजन बाद के विद्वानों ने सुविधानुसार किया है।

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