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Magazine - Year 1965 - Version 2

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उतना बोलिए जितना आवश्यक हो

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मौन वाणी की शक्ति को संशोधित और संवर्धित करने की साधना है। वाणी के दुरुपयोग से हमारी शक्ति का एक बहुत बड़ा अंश नष्ट हो जाता है। इसलिए जिस तरह इन्द्रिय संयम के लिए ब्रह्मचर्य आदि का विधान है, उसी तरह वाणी के संयम के लिए मौन की साधना बताई गई है। महात्मा गाँधी ने कहा है “मौन सर्वोत्तम भाषण है, अगर बोलना ही हो तो कम-से-कम बोलो। एक शब्द से भी काम चल जाय तो दो न बोलो।” फैंकलिन के शब्दों में “चींटी से अच्छा कोई उपदेश नहीं देता और वह मौन रहती है।” कालाइल ने कहा है, “मौन में शब्दों की अपेक्षा अधिक वाक्शक्ति होती है।”

मौन प्रकृति का शाश्वत नियम है। चाँद, सूरज, तारे सब बिना कुछ कहे- सुने चल रहे हैं। संसार का सबसे महत्वपूर्ण कार्य मौन के साथ ही पूर्ण होता है। इसी तरह मनुष्य भी जीवन में कोई महान कार्य करना चाहे तो उसे एक लम्बे समय तक मौन का अवलम्बन लेना पड़ेगा, क्योंकि मौन से ही शक्ति का संग्रह और उद्रेक होता है।

आध्यात्मिक जीवन के विकास के लिए तो मौन बहुत ही आवश्यक है। योगी अरविन्द ने कहा है “आध्यात्मिक जीवन अपने भीतर ईश्वरीय चेतना को प्रतिष्ठित करने और उसे सहज रूप में व्यक्त होने देने की साधना है और इस साधना में सबसे बड़ी बाधा हमारी वाचालता ही है, जो विश्वात्मा की सूक्ष्म वाणी और उसके आदेशों को नहीं सुनने देती। मौन की अवस्था में ही हम आत्मा की वाणी सुन सकते हैं। कितनी ही उत्तम भाषा, बोली क्यों न हो, वाणी से आत्मा को नहीं समझा जा सकता, मौन ही आत्मा की भाषा है।”

शास्त्रकार ने कहा है- “मौन उस अवस्था को कहते हैं जो वाक्य और विचार से परे है। यह एक शून्य ध्यानावस्था है, जहाँ अनन्त वाणी की ध्वनि सुनी जा सकती है।” अध्यात्म जगत का साधक तो मौन के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता। आत्मा से और विश्वव्यापी सूक्ष्मशक्ति से मनुष्य तब तक सम्बंध स्थापित नहीं कर सकता, जब तक वह बाह्य कोलाहल में उलझा रहेगा, बहिर्मुखी बना रहेगा। अन्तर्मुखी होने और अपनी सम्पूर्ण शक्तियों को एकाग्र और संगठित करने के लिए मौन का अवलम्बन श्रेयार्थी के लिए आवश्यक है।

व्यवहारिक जीवन में भी मौन अनर्थों को पैदा होने से रोकता है। मौन कभी भी दूसरों को हानि नहीं पहुँचा सकता। समाज में विग्रह, लड़ाई, झगड़े, कलह, आदि को शुरुआत वाणी से ही होती है। एक दूसरे को भला बुरा कहने पर ही लोग उत्तेजित होकर अनर्थ करते हैं। लेकिन जब मौन का अवलम्बन लिया जाय, तो बुरे शब्द मुख से नहीं निकलेंगे और विग्रह की स्थिति ही पैदा होगी। इतना ही नहीं कोई व्यक्ति लड़ना चाहे, चलाकर छेड़छाड़ करे, झगड़ने लगे, ऐसी स्थिति में दूसरा पक्ष यदि मौन का अवलम्बन ले ले तो झगड़ा कभी हो ही नहीं सकता।

मौन की स्थिति में ही हम दूसरों को अधिक सुन सकते हैं और अपने ज्ञानकोष को बढ़ा सकते हैं। लोगों को समझने, उनका अध्ययन करने के लिए भी मौन की आवश्यकता होती है। एक कहावत के अनुसार- “मौन बुद्धिमानी है और अच्छे मित्र बनाता है।” सचमुच जो वाचाल होते है उनसे भले आदमी दूर रहने की ही प्रयत्न करते हैं। मौन की स्थिति में हम अपने अज्ञान, मूर्खता फूहड़पन को भी प्रकाशित होने से रोक सकते हैं। भर्तृहरि ने कहा है- “विधाता ने मौन अर्थात् चुप रहना अज्ञानता का ढक्कन बनाया है। ज्ञानियों की सभा में अज्ञानियों के लिए मौन ही सर्वोत्तम आभूषण और रक्षक कवच है।” अज्ञानी आदमी यदि वाचाल होगा तो जल्दी ही अपनी मूर्खता प्रकट कर देगा लेकिन मौन का अवलंबन लेकर वह अज्ञान-प्रदर्शन से अपने आपको रोक सकता है। जिस तरह गन्दगी के दुष्प्रभाव और बदबू को दूर करने के लिये उसे ढक देना आवश्यक है, उसी तरह अज्ञान, मूर्खता, फूहड़पन को छिपाये रखने के लिए मौन अपेक्षित है।

शास्त्रों में तीन तरह के पाप बताए हैं। वाणी, कर्म और मन से किए गये दुष्कृत्य ही ये त्रिपाप हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मौन के अवलम्बन से हम वाणीकृत पापों से तो निश्चित रूप से बच ही सकते हैं। किसी को अप्रिय, कठोर वचन बोलना, गाली देना, झूठ बोलना, चुगलखोरी, आलोचना, आदि वाचिक पापों से मौन ही हमें बचा सकता है। इस तरह मौन का अवलम्बन लेने से हम जीवन में किए जाने वाले एक तिहाई पापों से बच जाते हैं।

हम जीवन में जितना अनर्थक प्रलाप करते हैं, निरर्थक शब्द बोलते हैं, यदि उतने समय में कुछ काम किया जाय, तो उतने से एक नया हिमालय पहाड़ बन जाय। शब्दों की इस अथाह शक्ति को व्यर्थ ही नष्टकर क्या हम दीन नहीं बन रहे? यदि इन शब्दों का उपयोग हम किसी को सांत्वना देने में भगवद् भजन, प्रभु नाम स्मरण, संगीत, जप कीर्तन आदि में, करें तो हमारा और समाज का कितना भला हो? साथ ही हम वाचालता से उत्पन्न दोष, जिनसे लड़ाई, झगड़े, क्लेश, ईर्ष्या, द्वेष आदि का उदय होता है, उनसे बच जायें।

वाचालता, व्यर्थ प्रलाप, चाहे वह किसी प्रेरणा से क्यों न हो हानिकर है। इस सम्बन्ध में एक्रेन रिवले से लिखा है “अण्डे देने के बाद मुर्गी यह मूर्खता करती है कि वह चहचहाने लगती है। उसकी चहचहाहट सुन कर डोमकौवा आ जाता है, वह उसके अण्डे भी छीन लेता है तथा उन वस्तुओं को भी खा जाता है, जो उसने अपनी भावी सन्तान के लिए रखी थीं।” कहावत है “वह कुत्ता अच्छा नहीं होता जो ज्यादा भौंकता है। इसी तरह वाचाल व्यक्ति को भला नहीं कहा जा सकता।”

संत ईसा ने कहा था “अपने द्वारा बोले गए प्रत्येक बुरे शब्द के लिए मनुष्य को फैसले के दिन सफाई देनी होगी।” और बुरे शब्दों से हम मौन के द्वारा ही बच सकते है।

स्मरण रहे, सहज मौन ही हमारे ज्ञान की कसौटी है। “जानने वाला बोलता नहीं और बोलने वाला जानता नहीं।” इस कहावत के अनुसार जब हम सूक्ष्म रहस्यों को जान लेते हैं तो हमारी वाणी बन्द हो जाती है। ज्ञान की सर्वोच्च भूमिका में सहज मौन स्वयमेव पैदा हो जाता है। स्थिर जल बड़ा गहरा होता है। उसी तरह मौन मनुष्य के ज्ञान की गम्भीरता का चिन्ह है।

वाचालता पांडित्य की कसौटी नहीं है, वरन् गहन गम्भीर मौन ही मनुष्य के पण्डित, ज्ञानी होने का प्रमाण है।

मौन ही मनुष्य की विपत्ति का सच्चा साथी है, जो अनेक कठिनाइयों से उसे बचा लेता है। ड्राईडेन ने विपत्ति में मौन रहना सच्चा उपाय बताया है। सन्त रहीम ने भी फिरे दिनों में चुप होकर बैठने की सलाह दी है-

रहिमन चुप ह्वै बैठिए देखि दिनन को फेर

सन्त कबीर ने भी वादविवाद को मिटाने को गुरुमन्त्र बताते हुए कहा है-

“वाद विवाह विषधना बोले बहुत उपाध। मौन गहे सबकी सहे सुमिरे नाम अगाध ॥”

आत्मा की वाणी सुनने के लिए, जीवन और जगत के रहस्यों को जानने के लिये, लड़ाई झगड़े, वाद-विवादों को नष्ट करने के लिए, वाचिक पाप से बचने के लिए, ज्ञान की साधना के लिए, विपत्तियों के दिनों को गुजारने के लिये, वाणी के तप के लिए तथा अन्यान्य हितकर परिणामों के लिए हमें मौन का अवलम्बन लेना चाहिए।

दैनिक जीवन में मित भाषण और हित भाषण की आदत डालकर हम लौकिक और आध्यात्मिक प्रगति का द्वार ही प्रशस्त कर सकते हैं।

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Version 2
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