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Magazine - Year 1965 - Version 2

Media: TEXT
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बच्चों को डराया न करें

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बच्चों के साथ अपने दैनिक व्यवहार में हम बहुत-सी भूलें कर बैठते हैं और उनका बच्चों के सम्पूर्ण जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। बहुत से माँ-बाप अपने लाभ के लिए या बच्चों को सुधारने के लिए उन्हें तरह-तरह के भय दिखाया करते हैं। अबोध बच्चों को अक्सर ‘हौवा’ से डराया जाता है। “मुन्ना जल्दी सोजा, दुबक जा, नहीं ‘हौवा’ आ जायगा” ऐसे भय-प्रधान संकेत बच्चों को दिए जाते हैं। अबोध बालक समझने लगता है कि ‘हौवा’ नाम की कोई भयानक वस्तु है जो उसे खा जायगी या पकड़ ले जायगी।

कुछ बड़ा हो जाने पर जब वह चलने- फिरने लायक होता है तो कुत्ता, शेर, पकड़ ले जाने वाले साधु बाबा का डर दिखाया जाता है। प्रत्यक्ष डर दिखाने के साथ साथ ही घर में कहे जाने वाले किस्से, कहानी जिनमें राक्षस, भूत, प्रेत, चुड़ैल आदि की प्रधानता रहती है, बच्चों में कुछ कम भय पैदा नहीं करते । बहुत से घर वाले तो अमुक स्थान, पीपल का पेड़, मरघट, कब आदि पर भूत-प्रेत का निवास बता कर बच्चों को वहाँ जाने, चौराहा लाँघने से रोकते हैं।

किसी भी रूप में बच्चे को डराने की प्रवृत्ति बहुत ही हानिकारक सिद्ध होती है। इन बातों से बालक के कोमल मन पर भय की भावना इतनी दृढ़ता से जम जाती है कि वह जीवन-भर नहीं छूट पाती। वह अँधेरे में, अकेले में डर महसूस करता है। अँधेरे में कोई कपड़ा या वस्तु हवा से हिलती-डुलती देख कर उसकी घिग्घी बँध जाती है। जिन वस्तुओं का नाम लेकर डराया जाता है, यथा कुत्ता, बिल्ली, बन्दर, भालू, साँप, छिपकली, इनके संपर्क में आते ही बालक होश-हवाश खो बैठता है। भयावनी कहानियाँ उसकी विचारधारा और कल्पनाओं को उसी दिशा में मोड़ देती हैं, जिससे बालक अकारण ही भयभीत होता रहता है, कई भयप्रद कल्पनाओं और विचारों उलझ कर।

एक दूसरे ढंग से भी माँ-बाप बच्चों में भय की भावना पैदा करते हैं। बात-चीत में, व्यवहार में, बच्चों के साथ सख्ती से पेश आना, उन्हें झिड़क देना भी बच्चों को दूसरे ढंग से भयभीत बना देता है। ऐसा बालक बात बात में दूसरों से डरने लगता है। कुछ करने से पूर्व झिझकता है। धीरे-धीरे यह भय इतना बढ़ जाता है कि वह कुछ नहीं कर पाता ।

कई बार किसी पराजय अथवा कटु अनुभव होने पर बालक को चिढ़ाना, धिक्कारना, उस पर व्यंग कसना भी उसके साहस को कमजोर करता है। कुछ करने से पहले ही असफलता की, हानि की भविष्यवाणी कर देना भी बच्चों में एक प्रकार का भय पैदा करता है, जिससे बालक फिर इस तरह के कार्यों में हाथ डालने पर सहम जाता है और वह अपना बढ़ा हुआ पैर तक पीछे हटा लेता है। दिन भर दिये जाने वाले भय प्रधान संकेत “देख ऐसा मत करना, अमुक वस्तु को मत छूना, शीशा मत तोड़ देना” आदि आदेश जो भय दिखाते हुए दिए जाते हैं और भूल हो जाने पर जब बच्चे को डाँट-फटकार सुननी पड़ती है, तो बालक निर्भय हो कर कुछ नहीं कर पाता। वस्तु के टूट जाने, नुकसान हो जाने के भय से बालक इतना दब जाता है कि बात-बात में बहम करने लगता है-हिचकता है। किसी महत्वपूर्ण एवं जोखिम भरे काम में हाथ डालने की उसकी हिम्मत ही नहीं होती और जो व्यक्ति जीवन में कोई जोखिम नहीं उठा सकता, वह कुछ कर भी नहीं सकता ।

किसी भी रूप में क्यों न हो बच्चों में भय के संस्कार पैदा कर देना उनके स्वाभाविक जीवन विकास-क्रम में अवरोध पैदा कर देना है। निर्द्वन्द्व, निर्भय बालक जल्दी प्रगति करता है, बजाय एक भयभीत मनः स्थिति के बच्चे के । जो बालक कुत्ते, बिल्ली, छिपकली, हौवा , भूत चुड़ैल के नाम से घिघियाते हैं, अँधेरे में, अकेले में रहने से परेशान हो जाते हैं, जो नाना भयप्रद कल्पनाओं में डूबते उतराते रहते हैं, उनसे क्या आशा की जा सकती है कि ये जीवन में कोई महत्वपूर्ण काम कर सकेंगे? आवश्यकता इस बात की है कि बच्चों में भय की भावनाओं को पैदा ही नहीं होने देना चाहिए। कदाचित किसी रूप में भय पैदा हो ही जाय, तो माता-पिता का कर्तव्य है कि वे बालक की स्थिति का मनोवैज्ञानिक अध्ययन करके तुरन्त उसके मन से भय को दूर करें।

यदि अँधेरे में या किसी स्थान विशेष पर बालक जाने से डरे, तो उसे प्रेम के साथ अपना पूर्ण संरक्षण प्रदान करें। स्मरण रहे बालक अपने अभिभावकों की गोद में अपने आपको सर्व प्रकार से सुरक्षित समझता है। लेकिन माँ-बाप ही जब हौवा या जूजू भूत, चुड़ैल आदि का डर बताते हैं, तो उसका धैर्य ओर विश्वास नष्ट हो जाता है। समझदार माँ-बाप को चाहिये कि वे बच्चों को इस तरह के कोई काल्पनिक भय न दिखावें, चाहे ऐसा उनके भले के लिए ही किया जाय लेकिन वह सर्वथा गलत है। जिस स्थान पर जाने से बालक डरता हो, उसे अपने संरक्षण का पूर्ण विश्वास देकर उस स्थान पर ले जाना चाहिए और उसकी वास्तविकता का खोखलापन विनोद में ही समझा देना चाहिए। कुछ समय वहाँ खेलने-कूदने में बिताने पर उसके मन से भय की भावना दूर हो जायगी। कोई नुकसान हो जाय, वस्तु टूट-फूट जाय, बालक को कोई असफलता मिल जाय, तो उसे आप कभी न टोकें न कोई दोष दें न मीन-मेख ही निकालें। गिरे हुए बालक को कोसने के बजाय उसे उठने, असफल हो जाने पर सफलता के लिए प्रोत्साहित कीजिए, खतरों, दुर्घटनाओं के लिये उसे डाँट-फटकार देने की अपेक्षा उसका हौसला बढ़ाइए। तभी उसका जीवन आने वाली बहुत-सी असफलता, दुर्घटना, कठिनाईयों को झेल सकेगा। बच्चों से जो नुकसान हो गया, वह तो पूरा होने का नहीं । व्यर्थ ही उन्हें भयभीत करना, डाटना-फटकारना उनके मनोबल को क्षीण कर देना है। अतः बच्चों को उनकी भूलों पर, असफलता पर, असावधानी पर शर्मिन्दा न करें, उन्हें न कोसें।

बच्चों को भूल कर भी ऐसी कथा, कहानियाँ, प्रसंग न सुनायें, जिनमें भूत, प्रेत चुड़ैल, हौवा जैसी काल्पनिक लेकिन भयानक बातों की प्रधानता हो। इसके स्थान पर उन्हें इतिहास के वीरों की, महान पुरुषों की, साहस शौर्य की घटना, कथाओं को सुनाया जाय। पढ़ने के लिए अच्छा साहित्य हो, जो उनके मनोबल को महान बनावे।

बच्चों को सहज रूप में खेलने-कूदने देना चाहिए। उनको बात-बात पर टोकना, डिक्टेटर का-सा हुकुम चलाना, दण्ड देना अनुपयुक्त है । इससे बालक का मनोबल क्षीण होता है और वह सहमा-सहमा रहने लगता है। झिझकता है। दब्बूपन की भावना उसमें घर कर लेती है। बच्चे को उसकी सहज स्थिति में रह कर विकसित होने देना चाहिए।

एक बात और सबसे महत्वपूर्ण है कि माता-पिता, अभिभावकों को भूल कर भी अपने बच्चों के समक्ष कोई भय प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। वस्तुतः बालक अपने अभिभावकों को सर्व समर्थ समझाता है और इसी विश्वास से वह उनके संरक्षण में रह कर निडर रहता है। लेकिन वे जब भय युक्त आचरण करते हैं, तो बालक का विश्वास डगमगा जाता है, साथ ही वह भी भयभीत होने लगता है। जो माँ-बाप स्वयं डरपोक होंगे, तो उनके बच्चे साहसी, निडर बन जायं, ऐसा सम्भव नहीं। माँ-बाप को चाहिए कि अपने बच्चों में निर्भयता साहस की भावना जगाने के लिए स्वयं इस तरह का आचरण व्यवहार करें।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि बाल्यकाल में बच्चों के कोमल मन में जमी हुई भय की भावना उन्हें जीवन-भर के लिए अकर्मण्य, कायर एवं भीरु बना देती है। उन्हें एक प्रकार की मानसिक गुलामी का जीवन बिताना पड़ता है, क्योंकि संसार में निर्भयी ही महत्वपूर्ण स्थान पा सकते हैं। माँ बाप का कर्तव्य है कि वे अपने बच्चों का जीवन भय के कारण नष्ट न होने दें। सर्व प्रथम उनमें भय की भावना पैदा ही न होने दें, फिर यदि हो भी जाय तो उसे दूर करने का पूरा-पूरा प्रयत्न करें।

युग-निर्माण आन्दोलन की प्रगति-

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