Magazine - Year 1965 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
वैराग्य भावना से मनोविकारों का शमन
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
मनुष्य के मस्तिष्क की रचना कुछ इस प्रकार हुई है कि उसमें जिस प्रकार के विचार आयेंगे, वैसा ही आचरण और शरीर पर प्रभाव पड़ेगा। विचार-भावनाओं के अनुरूप ही मनुष्य का निर्माण होता है। विचार शक्ति के द्वारा ही उसके जीवन में उतार-चढ़ाव और परिवर्तन होते हैं। अच्छे विचारों से बुरे विचारों को दबाया जा सकता है। इस प्रकार यह मनुष्य की विशेषता है कि वह जैसा जीवन निर्मित करना चाहे, अपने विचार, अपनी भावनाओं के परिष्कार द्वारा वैसा ही कर सकता है।
वैराग्य भावना में निस्संदेह बड़ी शक्ति है। बुरे से बुरे संस्कार वैराग्य के बादलों से धुलते देखे गये हैं। कामासक्त तुलसीदास, दुष्ट दुराचारी बाल्मीक, हिंसक व्याध और अंगुलिमाल जैसे व्यक्तियों के हृदय में जब वैराग्य भावना का प्रवाह उमड़ा तो उनके जीवन की धारायें ही बदल गईं। सारे के सारे सन्त, महात्मा और महान् पण्डित बन गये।
विचार, भाव तथा क्रिया में अत्यन्त सूक्ष्म ग्रहण शीलता रखते हुये साँसारिक विषयों के प्रति निरपेक्ष बने रहने का नाम वैराग्य है। संक्षेप में राग द्वेष के बन्धनों से मुक्त होना ही वैराग्य है। यह भी कह सकते है कि वैराग्य उस अवस्था या स्थिति का नाम है, जब मनुष्य की चित्तवृत्तियाँ विभिन्न भावों से हटकर चिर सत्य की ओर जागृत हों। इन भावनाओं की शक्ति और सामर्थ्य की थाह पाना निश्चय ही कठिन बात है, क्योंकि जिस किसी के जीवन में भी इन भावनाओं का उदय हुआ, उनका तीव्र विरोध, उपहास और साँसारिक विषय, विकार कुछ कर नहीं पाये। षट-विकारों के शमन का भी श्रेष्ठ उपाय वैराग्य भावनाओं को ही मान सकते हैं। वैराग्य द्वारा ही सात्विक कार्य सम्पन्न होते हैं। वैराग्य का अर्थ है- त्याग, समर्पण, विवेक और सत्य के प्रति श्रद्धा की अनन्य भावना। इस प्रकार वैराग्य में वह सम्पूर्ण शक्तियाँ सन्निहित हैं, जिनमें मनुष्य अपने जीवन में सन्तुलन बनाये रख सकता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर इन विकारों को काबू में रखने का सरल और प्रभावशाली मार्ग यही है कि जब कभी ऐसे आवेश आयें, तब उन्हें दूर हटाने के लिये वैराग्यपूर्ण चिन्तन करने लग जायें। तभी आत्मग्लानि और शरीर, मन और वाणी के शक्ति -विनाश से बच सकते हैं, तभी तत्परता पूर्वक अपने जीवन लक्ष्य की ओर बढ़ते रह सकते हैं।
षट-विकारों में वासना का प्रहार सबसे अधिक तीव्र और मन को हिला देने वाला है। जब यह भाव मनुष्य के अंतर्मन में प्रविष्ट हो जाता है तब उसकी शक्ति और भी बड़ा रूप ले लेती है। यह विकार प्रस्फुटित होकर मनुष्य के आचरण को दूषित करता है, इसलिये उससे बचाने के लिये आध्यात्मिक चिन्तन-मनन, पूजन, कथा-कीर्तन प्राकृतिक दृश्यों से अनुराग, भ्रमण आदि अनेकों साधन काम में लाये जा सकते हैं। पर इतने से यह आशा नहीं की जाती कि आप का आवेश रुक गया या आग फिर कभी न उठेगी। अंतर्मन में प्रस्तुत कामुक चेष्टायें संयोग पाते ही उठ खड़ी होंगी और इच्छा न होते हुये भी आपको विभ्रमित करने लगेंगी।
जब कभी ऐसी अवस्था आये तो आप वैराग्य भावना का सहारा लीजिये। आप कल्पना कीजिये कि जिस स्त्री के हाव-भाव और अंग प्रत्यंगों को देखने से आपकी कामुकता जागृत हो रही है, वह इस समय मर चुकी है। यह उसकी लाश है जो आपके सामने खड़ी है। अभी चील कौवे और सियार आते हैं और इस शरीर को वे अपना भोजन मानकर उसे चीरने फाड़ने का काम शुरू कर देते हैं। छिः यह क्या, माँस, हड्डियाँ, आँतों में जमा हुआ मल, मूत्र-क्या इसी सबके लिये मेरी वासना जागृत हुई है? क्या इन हाड़-मांस के ऊपर चढ़ी हुई सुनहली पन्नी के ऊपर हम अपनी शक्ति, और ओज समाप्त कर देंगे।
आप जितना भावनात्मक गहराई तक उतर सकें उतरें। आप को यथार्थ ज्ञान मिलेगा, शक्ति मिलेगी और इस दूषित विकार के आघात से बड़ी आसानी के साथ बच जायेंगे। शरीर की नश्वरता और आत्म-ज्ञान की प्रबल जिज्ञासा का भाव जितनी शक्ति और-क्षमता के साथ आप उठायेंगे, उतना ही वैराग्य भाव उमड़ता हुआ चला आयेगा। मैं अपने जीवन को इन तुच्छ बातों में नहीं गंवाऊंगा, न जाने कब विनष्ट हो जाने वाले शरीर के प्रति मैं भला क्यों आसक्त होऊँ, मैं आत्मा हूँ, अपने मूल स्वरूप को जानना ही मेरा लक्ष्य है। इस प्रकार के अनेकों विचार आप तर्क और प्रमाण के साथ उठाते चले आइये, निश्चय ही आपकी कामुकता का आवेश आपको छोड़कर भाग जायेगा। आपके जी में “मातृवत् परदारेषु” का सुन्दर भाव उमड़ता हुआ चला जायेगा, आगे आन्तरिक दृष्टि से आनन्दित हो उठेंगे और जो विचार अभी थोड़ी देर पहले आपको आक्रान्त कर रहा था, वह न जाने कहाँ विलुप्त हो जायेगा।
वासना का प्रभाव मनुष्य के जीवन में आँधी-तूफान की तरह होता है, इससे बचने के लिये सिनेमा, नाटक, अभद्र प्रदर्शनों से तो बचें ही, बुद्धि विवेक और सद्विचार भी ठीक रखें और इसे वैराग्य पूर्ण भावनाओं के द्वारा भी निवारण करें।
क्रोध की अवस्था भी ठीक ऐसी ही होती हैं। संसार में ऐसा कोई भी पाप नहीं जो क्रोधी व्यक्ति न कर सकता हो। क्रोध को पाप का मूल कहकर पुकारा जाता है। यह भी एक आवेश में आता है और अनेकों अनर्थ उत्पन्न करके ही समाप्त होता है। पीछे उन पर भारी दुःख तथा पश्चात्ताप होता है। इससे बचने के पूर्व-अभ्यास के रूप में प्रेम, स्नेह, आत्मीयता, सौजन्यता, सहिष्णुता और उदारता आदि भावों को विकसित करें तो ठीक है, किन्तु यदि फिर भी कदाचित ऐसा अवसर आ जाये तो आप पुनः वैराग्यपूर्ण भावनाओं का स्मरण कीजिये। आप विचार कीजिये, आप जिसे दण्ड देना चाहते हैं, जिस पर आपको क्रोध आ रहा है, वह यदि आप होते तो आप पर कैसी बीतती। मान लीजिये आपने ही वह गलती कर डाली होती और कोई उसका दण्ड आपको दिया जा रहा होता तो आपके शरीर में कितनी पीड़ा छटपटाहट हो रही होती। यह भाव उठते ही आपके हृदय में करुणा का भाव उत्पन्न होगा। आप सोचेंगे कि दण्ड देना अनुचित है। दूसरों को पीड़ा न देना ही मानव धर्म है। आपका क्रोध पराभूत हो जायगा और आप उसके विषैले प्रभाव से बच जायेंगे। कोई भी प्रतिशोध-जनक प्रतिक्रिया उठने से बच जायेगी।
क्रोध के प्रतिरोध में उत्पन्न वैराग्य भावनाओं से ईर्ष्या, दुश्चिन्ता और संघर्षपूर्ण विचार समाप्त होते हैं और प्रेम, दया तथा मैत्री भाव जागृत होते हैं। इन भावनाओं से क्रोध की उत्तेजना समाप्त हो जाती है।
धन की तृष्णा भी मनुष्य के जीवन में वैसी ही जड़ता उत्पन्न करती है, जैसी काम और क्रोध। पराया माल छीनने, हड़पने और चोरी कर लेने तथा दूसरों की कमाई का उचित पारिश्रमिक न देने की बात किसी भी प्रकार मानवीय नहीं कही जा सकती। इससे मनुष्य का घोर आन्तरिक पतन होता है। आप विचार कीजिये कि आप जब श्रम-पूर्वक धन कमाते हैं और उसका कुछ हिस्सा कहीं गिर जाता है या कोई उसे उठा ले जाता है, तो आपको कितना दुःख होता है। फिर इस धन से मनुष्य का जीवन लक्ष्य भी तो पूरा नहीं होता। क्या यह पाप की कमाई अपने बाल-बच्चों के लिये छोड़कर उन्हें भी आलसी और अकर्मण्य बनाना चाहते हैं? जो धन आपकी लाश के साथ आपके साथ जाने वाला नहीं है, उसको आप अनाधिकार पूर्वक क्यों प्राप्त करना चाहते हैं? आप उससे बँधे क्यों जा रहे हैं? इस धन के लोभ में पड़कर आप अपनी आत्मा, अपने जीवन लक्ष्य की बात ही भूल जायेंगे, फिर ऐसे धन से लोभ कैसा? प्रीति कैसी? छोड़िये इसे। जो कुछ परिश्रम से कमाया है उतने में ही बड़ा आनन्द है। धन का बखेड़ा बढ़ाने की अपेक्षा निर्धन होना, आत्म-धन प्राप्त करना कहीं अधिक श्रेष्ठ व श्रेयस्कर है। हम कभी इस परम आदर्श से विचलित नहीं होंगे। इस प्रकार आप अधर्म की कमाई और अनावश्यक लोभ वृत्ति से निकल सकेंगे।
मनुष्य की सबसे अधिक दीन-हीन अवस्था उस समय दिखाई देती है, जब यह छोटी-छोटी बातों के लिये अनुचित आसक्ति या मोह भाव प्रदर्शित करता हैं। छोटी-सी चीज के टूट-फूट जाने से आप कितने परेशान हो उठते हैं। टूटे-फूटे बर्तन कपड़ों और अनेकों अनावश्यक वस्तुओं से आपका इतना अधिक लगाव आखिर क्यों हैं? संसार की सभी सम्पत्तियों में शरीर का महत्व ही सर्वाधिक है। इसी से उपभोग करते हैं। और स्वामित्व प्रकट करते हैं? इसका भी तो एक दिन विनाश हो जाता है। जिसके उपभोग और स्वामित्व के लिये आप यह मोह कर रहे हैं, जब उसी को नहीं रहना, तो क्या करेंगे आप इन नाचीज वस्तुओं का संग्रह करके। इनके टूट-फूट जाने, सड़ने गलने से आप इतना दुःखी क्यों हो जाते हैं? दुःख करना ही है तो सोचिये आपने अभी तक मानव सुलभ साधनों का आत्मविकास में कितना उपयोग किया? अपने जीवन लक्ष्य की ओर आप कितना बढ़ सकें हैं? क्या आप अपने आपको पहचान सके हैं? नकारात्मक उत्तर मिलने से आपका जी दुःखी होगा। जिस प्रकार अब तक हजारों आदमी इस संसार में मर-खप गये, उसी प्रकार हमारा भी शरीर-साधन व्यर्थ गया, तो कहाँ रही इसमें अपनी बुद्धिमत्ता। आपकी सफलता इसी में सन्निहित है कि आप अनुचित और छोटी-छोटी वस्तुओं के प्रति मोह का भाव त्यागिये, ताकि आपकी शक्तियाँ आध्यात्मिक जीवन की ओर उन्मुख हो सकें।
मनुष्य के विनाश का सबसे प्रबल कारण है उसका अहंकार। मैं ही सब कुछ हूँ, मेरा विचार ही सबसे अच्छा है, मैं ही सबसे अधिक सुन्दर हूँ, मैं धनी हूँ, मैं पण्डित हूँ आदि अहंकारिक भावों के कारण संसार में कलह झंझट युद्ध और महायुद्ध की विभीषिकायें उठ खड़ी होती हैं। क्या यह अभिमान सार्थक हो सकता है? नहीं। रावण, दुर्योधन, कंस, हिरण्यकश्यप, नैपोलियन, सिकन्दर आदि अहंकारी पुरुषों ने आखिर क्या लाभ उठाया? उन्हें भी हाथ मलते ही इस संसार से विदा होना पड़ा, फिर आपकी क्या भला बिसात? आप से अधिक तो इसी धरती में ही अनेकों रूपवान, धनवान, शक्ति और सामर्थ्यवान् विद्यमान् हैं, फिर यह अहंकार आपका क्या प्रयोजन हल कर सकता है? आध्यात्मिक विकास की सबसे बड़ी बाधा मनुष्य के अहंकारपूर्ण विचार ही होते हैं। संसार की क्षणभंगुरता को हमेशा ध्यान में बनाये रखने से ही यह सम्भव है कि मनुष्य इस दुष्प्रवृत्ति से बचा रह सके।
इसी प्रकार मत्सर अर्थात् ईर्ष्या और डाह का भाव भी मनुष्य के अधःपतन का कारण होता है। मनुष्य की उन्नति, उसकी शक्ति और परिस्थितियों के अनुसार कम ज्यादा होती ही है। अपनी शक्तियों का विकास मानवोचित ढंग से करें, तो इससे किसी का अहित नहीं होता। पर जब दूसरों की समृद्धि देखकर लोग ईर्ष्या-द्वेष रखने लगते हैं, तो वहीं वैयक्तिक और सामूहिक आत्मिक पतन प्रारम्भ हो जाता है। मनुष्य का जीवन इसलिये नहीं मिला। हमें सेवा, सत्कार, प्रेम, दया, न्याय आदि के विकास के लिये साधन स्वरूप यह शरीर उपलब्ध होता है। इसे प्राप्त कर होड़ करें तो तो चारित्रिक श्रेष्ठता की,