Magazine - Year 1965 - Version 2
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Language: HINDI
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हमारे प्रतिनिधि और उत्तराधिकारी
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संसार में अगणित उपासना पद्धतियाँ प्रचलित हैं। अपने स्थान पर वे सभी ठीक हैं और साधक की भावनानुसार उन सबका ही फल होता है। इन सबमें गायत्री का अपना विशिष्ट स्थान है। चारों वेदों की जननी, भारतीय धर्म और संस्कृति की उद्गम गंगोत्री-गायत्री के 24 अक्षरों में वह भावना, शिक्षा और शक्ति ओत-प्रोत हो रही है, जिसका आश्रय लेकर मनुष्य लौकिक और पारलौकिक प्रगति की दिशा में तेजी से अग्रसर हो सकता है।
इन 24 अक्षरों का गुँथन ऐसे वैज्ञानिक ढंग से हुआ है कि उनका क्रमबद्ध उच्चारण करने मात्र से भी मनुष्य शरीर में अवस्थित सूक्ष्म चक्र, उपचक्र एवं उपत्यिकाएं जागृत होकर गुण, कर्म, स्वभाव में, आत्मिक स्तर में, श्रेयस्कर परिवर्तन उत्पन्न होता है। फिर यदि भावना एवं विधि-विधान के साथ उसकी उपासना की जा सके, तब तो कहना ही क्या है? मनोबल वृद्धि, सद्भावनाओं का विकास, आन्तरिक पवित्रता एवं आध्यात्मिक विशिष्ट शक्तियों का जागरण जैसी अनेक उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं और उनका प्रतिफल लौकिक एवं पारलौकिक, भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टि से परम मंगलमय होता है।
भारत के आध्यात्मिक एवं उपासनात्मक इतिहास पर बारीकी से दृष्टिपात करने से स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ आदिकाल से ही गायत्री उपासना की प्रधानता रही है। त्रिकाल सन्ध्या में गायत्री के बिना भारतीय धर्म के अनुरूप संध्या उपासना हो ही नहीं सकती । शास्त्रों में लिखा है कि गायत्री से रहित व्यक्ति निन्दनीय है, उसके हाथ का अन्न जल भी ग्रहण न करना चाहिए। इस भर्त्सना के पीछे मूल प्रयोजन इतना ही है कि गायत्री का परित्याग कोई भारतीय धर्मावलम्बी न करे। अवतारों,ऋषियों और महापुरुषों की प्रधान उपासना गायत्री की ही रही है। हिन्दू-धर्म के सूर्य-चन्द्र-राम कृष्ण गायत्री के अनन्य उपासक थे। समस्त ऋषियों की तपश्चर्या का केन्द्र बिन्दु गायत्री था। वैदिक काल में तो आज के प्रचलित अगणित देवी देवताओं की चर्चा तक न थी, न आज जैसी विभिन्नता और विद्रूपता ही उस समय उत्पन्न हुई थी। तब उपासना जगत में मात्र गायत्री की ही प्रतिष्ठा थी। इस महान अवलम्बन को लेकर यहाँ के निवासियों ने आध्यात्मिक और भौतिक सत्परिणाम भी प्राप्त किये थे। प्राचीन इतिहास में भारत का जो महान गौरव दृष्टिगोचर होता है, उसके पीछे गायत्री शक्ति की प्रधानता थी। इस महान् तत्व को खोकर आज हम मणि-हीन सर्प ही तरह दीन-हीन बने हुए हैं।
देश, धर्म, समाज और संस्कृति के नव-जागरण की इस पुण्य बेला में हमें आत्मिक शक्तियों का आश्रय लेना पड़ेगा। आत्मबल ही संसार का सबसे बड़ा बल है। भारत का आत्मिक विकास ही इस देश की तथा समस्त संसार की समस्त समस्याओं का हल कर सकने में समर्थ हो सकता है। उत्थान का मूल स्रोत भौतिक साधन सामग्री में नहीं, आत्मिक स्तर में ही सन्निहित है। अतएव अब जब कि भारतीय राष्ट्र और धर्म की आत्मा जागृत होकर प्रबल एवं प्रकाशवान होने जा रही है, तब हमें पुनः उसी शक्ति स्रोत को अपनाना पड़ेगा, जिसका आश्रय लेकर हमारे पूर्व पुरुष सर्वांगीण प्रगति के पथ पर अग्रसर हुए थे। हमें उपेक्षित गायत्री महातत्व की शरण में जाना ही पड़ेगा। हमारी वैयक्तिक एवं सामूहिक प्रगति का वास्तविक आधार गायत्री महामन्त्र के आधार पर विकसित हुआ महान् आत्मबल ही हो सकता है।
गायत्री उपासना का महान माध्यम-
अखण्ड-ज्योति परिवार में सदस्यों को गायत्री उपासना की प्रेरणा विगत 25 वर्षों से लगातार दी जाती रही है। परिजनों ने उस प्रेरणा को अपनाया भी है और उसका समुचित प्रतिफल भी सामने आया है। इस उपासना ने लोगों के आत्मिक स्तर को समुन्नत बनाने में जो योग दिया है, उसी का प्रतिफल है कि यह परिवार आत्मिक दृष्टि से समुन्नत लोगों का एक श्रेष्ठ संगठन बन कर सामने आया है और युग-निर्माण योजना जैसे ऐतिहासिक कार्य की भूमिका सम्पादन करने का साहस करने एवं उत्तरदायित्व सम्भालने के लिए कटिबद्ध हो सका है।
अब चूँकि हमारा सेवा काल दिन-दिन घटता जा रहा है-कुछ ही वर्ष और रह गया है-ऐसी दशा में यह आवश्यक था कि गायत्री तत्व अपनाने से उपलब्ध होने वाली शक्ति का प्रत्यक्ष अनुभव करने वाले कुछ व्यक्ति तैयार कर लिये जायं, जो उस परम्परा को जारी रख सकें जो हमें प्राप्त हुई है। अतएव इस बसन्त पंचमी से (6 फरवरी 65) से इस महान् उपासना की कुछ विशिष्ट शिक्षा देना उन लोगों को आरम्भ कर रह हैं, जो भौतिक प्रयोजनों के लिए नहीं आत्मिक उत्कर्ष के लिए उसका उपयोग करना चाहते हैं
आमतौर से मनुष्य बड़ा स्वार्थी और संकीर्ण होता है। उसकी दृष्टि केवल भौतिक लाभ तक ही सीमित रहती है। पूजा उपासना के पीछे भी उसका प्रयोजन कुछ भौतिक लाभ उठाना ही बना रहता है। कुछ फायदा हो गया तो भोग प्रसाद चढ़ाने लगे और कुछ नुकसान हो गया तो उसका सारा दोष उपासना पर थोपकर उसे छोड़ बैठे। उनकी दृष्टि में लाभ कमाने के अनेक उद्योग धन्धों में से एक धन्धा पूजा भी होता है। लाटरी की तरह इसमें कम लागत से अधिक लाभ होने के लालच में कई व्यक्ति बहुत कुछ कमा लेने या बड़े दुर्भाग्यों को मिटा लेने की आशा में ही कोई पूजा करने को तैयार होते हैं। थोड़े दिन की परीक्षा में यदि अभीष्ट लाभ नहीं निकला, तो इसे भी बेकार का धन्धा मानकर छोड़कर बैठते हैं।
भौतिकता में पैर से चोटी तक डूबे हुए व्यक्तियों को आध्यात्म की ओर आकर्षित करने के लिए थोड़ी पूजा से बड़ा लाभ कमाने का आकर्षण एक सीमा तक कारगर हो सकता है, पर उसकी उपयोगिता तभी है जब आगे चल कर वह उपासक अपने कार्यक्रम स्तर को बदल कर आत्मकल्याण के लिए, सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाने को लिए अग्रसर हो सके। यदि यह स्तर न बदला, उपासक लालची ही बना रहे और आत्मिक लक्ष्य को मुफ्त का गौण लाभ मानता रहे तो उपासना का मूल प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। लालची आदमी आत्मोत्कर्ष के क्षेत्र में दूर तक आगे नहीं बढ़ सकता।
हम अपने उत्तराधिकारियों की नियुक्ति कर रहे हैं, ताकि उदीयमान राष्ट्र की आत्मा को जगाने के लिए वे लोग उस प्रयास को जारी रख सकें जो हम अपने मार्ग दर्शक देवता के नेतृत्व में अब तक करते चले आये हैं। भारतीय जनता को देवत्व गायत्री साधना से प्राप्त होगा। साधना का अर्थ केवल पूजा ही नहीं, वरन् जीवन की गति विधियों की उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता के ढाँचे में ढालना भी हैं। हमें भारतीय जनता की गतिविधियों में इस श्रद्धा का समावेश करना ही होगा कि आस्तिकता के प्रधान आधार सदाचरण और लोक मंगल को सत्प्रवृत्तियों के अपनाने और बढ़ाने के लिए निरन्तर प्रयास किया जाय। इसके बिना राष्ट्र का वास्तविक उत्थान ही नहीं सकेगा। अतएव इस महान आवश्यकता की देशव्यापी पूर्ति के लिए एक अभियान जारी रखना ही पड़ेगा और उन जारी रखने वालों में समुचित आत्मबल रहना ही चाहिए ताकि, इतने बड़े प्रयोजन को अग्रसर कर सकने में वे समर्थ हो सकें।
योजना के दो पहलू-
युग निर्माण योजना हमारे जीवन का प्रधान कार्यक्रम है । इस कार्यक्रम के दो पहलू हैं। एक बाह्य दूसरा आन्तरिक। बाह्य कार्यक्रम के अंतर्गत समाज में सत्प्रवृत्तियों एवं परम्पराओं को सामाजिक जीवन में प्रवेश कराया जाता है। संगठन, सामाजिक कुरीतियों का उन्मूलन, स्वस्थ परम्पराओं का प्रचलन, जीवन जीने की कला का प्रशिक्षण, गीता आन्दोलन आदि की 108 रचनात्मक प्रवृत्तियाँ इस बाह्य कार्यक्रम में सम्मिलित हैं। इन्हें सामाजिक स्तर के कार्यक्रम बना कर भी चलाया जा सकता है। संसार में अनेक संगठनों एवं व्यक्तियों ने बड़े-बड़े सुधार तथा विकास कार्यक्रम सामाजिक स्तर पर बनाये तथा बढ़ाये हैं। युग-निर्माण योजना को भी इस आधार पर गतिशील रखा जा सकता है। हम इस स्तर पर भी प्रयास कर रहे हैं। उन प्रयासों के गतिशील बनाये रखने की जिम्मेदारी जो लोग अपने कन्धों पर उठावेंगे, उन्हें हम अपना प्रतिनिधि मानेंगे। जहाँ कहीं भी हमारी आवाज- अखण्ड-ज्योति पहुँचती है, वहाँ एक प्रतिनिधि-मण्डल इसी दृष्टि से नियुक्त किया है कि वे योजना की भावना को समझें और इसे मूर्त रूप देने के लिए कुछ संगठनात्मक, रचनात्मक एवं आन्दोलनात्मक कार्यक्रम अपने क्षेत्र में जारी रखें। जो प्रकाश वहाँ पहुंचा है उसे बुझने न दें वरन् स्वयं तेल जाती बनकर उस चिनगारी को प्रकाश पुञ्ज को स्वरूप देने का प्रयास करने रहे। युग-निर्माण योजना को मूर्तिमान् एवं गतिशील बनायें रखना प्रतिनिधियों का एक प्रधान कर्तव्य है। अपने क्षेत्रों में उन्हें वही करते रहना चाहिए, जो यदि हम स्वयं वहाँ होते तो जन-जागरण की दृष्टि से करते होते ।
दूसरा वर्ग उत्तराधिकारियों का है। उन्हें संगठनात्मक कार्यों में तो संलग्न रहना ही है, साथ ही एक दूसरा उत्तरदायित्व भी सम्भालना है, वह यह कि उपासना द्वारा अपना स्वयं का आत्म-बल बढ़ावे और दूसरे सत्पात्रों में इसके बीजाँकुर उगाते एवं सींचते रहें। इसके लिए हमारी व्यक्तिगत परम्परा गायत्री उपासना की है। इस उपासना को वे इस ढंग से करें कि उन्हें उस स्तर का आत्म-बल मिले, जिसकी आत्म-कल्याण, जीवन की लक्ष्य प्राप्ति एवं राष्ट्र के नव-निर्माण में नितान्त आवश्यकता रहेगी। हम अब तक जो कुछ कर सके या पा सके हैं, उसके पीछे गायत्री द्वारा उपार्जित आत्म-बल ही महिमा की काम कर रही है। आगे जिन्हें इस परम्परा को विशेष बल-पूर्वक जारी रखना है, उन्हें भी इस आधार को अपनाये रहना ही पड़ेगा। अतएव उपासना पथ पर हमारे कदम से कदम मिला कर या आगे पीछे जो चल सकेंगे उन्हें हम अपना उत्तराधिकारी मानेंगे।
प्रतिनिधि पर एकहरा उत्तरदायित्व है, उत्तराधिकारियों पर दुहरा। प्रतिनिधि सामाजिक उत्कर्ष के रचनात्मक कार्य करते रह सकते हैं। वे गायत्री उपासना न भी करें तो उसके लिए बाध्य नहीं। सामाजिक स्तर पर नव-निर्माण का जो कार्य भार उनके कन्धे पर पड़ा है, वे उसे निबाहते रहेंगे, तो उनके प्रतिनिधित्व का उत्तरदायित्व पूरा हुआ मान लिया जायगा। उत्तराधिकारियों को इतना तो करना ही ठहरा, इसके अतिरिक्त वे गायत्री उपासना के विशेष साधना क्षेत्र में भी उतरेंगे एवं बढ़ेंगे ताकि आत्म-बल का वह स्रोत उन्हें उपलब्ध हो सके, जो नर को नारायण बना सकने में समर्थ हो सकता है।
निष्काम उपासना और आत्मबल-
इस स्तर की उपासना सदा निष्काम होती है। जो बिना किसी कामना या इच्छा के साधना करते हैं, उन्हें ही ईश्वर का सच्चा प्रेम और आशीर्वाद प्राप्त होता है। आत्म-बल भी उन्हीं का बढ़ता है और दूसरों का उपकार करने, प्रेरणा देने, जीवन बदलने, प्रकाश पहुँचाने एवं आशीर्वाद देकर भला करने की क्षमता की निष्काम उपासकों में ही रहती है। कामनाशील उपासकों के अन्तःकरण में उतनी स्पष्ट एवं गहरी श्रद्धा उत्पन्न नहीं हो सकती, जिससे परमेश्वर को द्रवित किया जा सके। फिर जो कुछ वे कामते हैं, वह उनके भौतिक प्रयोजनों में ही पूरा हो जाता है, ऐसी दशा में वे उस पूँजी का संग्रह कर नहीं पाते, जिससे बड़े आध्यात्मिक प्रयोजनों की पूर्ति हो सके। अतएव जिन्हें आत्म-बल संग्रह करने की, नर से नारायण रूप में विकसित होने की आकाँक्षा हो उन्हें सकाम उपासना के स्तर से ऊँचा उठकर निष्काम भावना अपनानी पड़ेगी और अपनी साधना का उद्देश्य परमार्थ ही रखना पड़ेगा। जो इस शर्त को स्वीकार करते हुए गायत्री उपासना करने को तत्पर हों, वे ही हमारे उत्तराधिकार का उत्तरदायित्व सम्भाल सकने में समर्थ हो सकेंगे।
अखण्ड-ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्य को प्रतिनिधि अथवा उत्तराधिकारी बनने का खुला आमन्त्रण प्रस्तुत किया गया है। प्रश्न साहस का है, जिनमें हिम्मत हो वे इस निमन्त्रण को स्वीकार कर सकते हैं। कोई भौतिक पदार्थ बाँटे जा रहे होते, तो अगणित याचक आ खड़े होते, पर यहाँ तो लेने का नहीं देने का प्रश्न है-भोग का नहीं त्याग का प्रश्न है, इसलिए स्वभावतः कोई विरले ही आगे बढ़ने का साहस करेंगे। फिर भी यह निश्चित है कि यह धरती कभी भी वीर-विहीन नहीं होती। इसमें ऊँचे आदर्शों को अपनाने वाले, ऊँचे स्तर के, बड़े दिल वाले व्यक्ति भी रहते ही हैं और उनका अपने परिवार में अभाव नहीं है। थोड़े ही सही पर है जरूर। जो हैं, उतनों से भी अपना काम चल सकता है। हमारे हाथों में जो मशाल सौंपी गई थी, उसे हम हजार दो हजार हाथों में भी जलती देख सकें, तो सन्तोष की बात ही कही जायगी।
कौन क्या करे का उत्तर।
प्रतिनिधि क्या करेंगे इसका उत्तर शत-सूत्री युग निर्माण योजना के रूप में दिया जा चुका है। उन्हें अपनी परिस्थिति के अनुसार नव-निर्माण के लिए कुछ न कुछ करते ही रहना चाहिए। परमार्थ के ईश्वर की वास्तविक पूजा समझ कर कुछ समय उन्हें नियमित रूप से इन कार्यों के लिए लगाते रहना चाहिए। पूरे समय को अपने और अपने परिवार के लिए ही खर्च नहीं करते रहना चाहिए, वरन् उसमें से कुछ नियमित रूप से बचाना चाहिए और उसे जन-जागरण के नव-निर्माण के, कार्यों में लगाना चाहिए। नियमित समय-दान की प्रतिनिधित्व का शुल्क है। स्थानीय परिजनों का संगठन और उस संगठन के द्वारा जनजागरण के आयोजन का यह व्यवस्था चलाते रहना प्रतिनिधियों का कर्तव्य है। इतना यदि वे करने लगे, तो मानना चाहिए कि जो उत्तरदायित्व उनके कन्धों पर सौंपा गया था, उसे वे ईमानदारी से निवाहने लगे हैं। कुछ पूजा उपासना भी उन्हें करनी ही चाहिए। गायत्री में उनकी रुचि न हो, तो वे किसी भी प्रकार भगवान का स्मरण करते रहें और उससे आत्म-बल प्राप्त होने की प्रार्थना करते रहें।
उत्तराधिकारियों को अनिवार्य रूप से गायत्री उपासना का अवलम्बन करना होगा। ऊपर की पंक्तियों में यह कहा जा चुका है कि उनकी उपासना निष्काम होगी, उसका उद्देश्य केवल आत्म-बल की प्राप्ति रहेगा। इसके अतिरिक्त उन्हें अपने साधना क्रम में भी इस वसन्त पंचमी से कुछ हेर-फेर कर देना होगा, जिसका वर्णन अगले लेख में किया जा रहा है।