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Magazine - Year 1965 - Version 2

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भारतीय संस्कृति के आधारभूत तथ्य

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भारतीय संस्कृति की सर्वोपरि विशेषता है जीवन और जगत को देखने का उसका आध्यात्मिक दृष्टिकोण। वस्तु पदार्थ की सीमा से उठकर उनके कारण तत्व का अनुसंधान, क्षणभंगुर, मरणशील पार्थिव जीवन से उठकर, शाश्वत, चिरन्तन, अजर-अमर जीवन, व्यक्तिगत चेतना से उठकर विश्व-चेतना की अनुभूति, भारतीय संस्कृति का मूल आधार रहा है और यह सत्य हमारी मिट्टी का एक अंग बन गया है। भौतिक शक्तियों की सीमाओं से उठ कर विश्व का संचालन करने वाली सार्वभौम शक्ति का अनुसंधान हमारे यहीं आरम्भ हुआ। उसे सर्वोपरि माना। यद्यपि उसे जानने समझने के ढंगों में, उसे कहने के ढंग में विविधताएँ हो सकती हैं, लेकिन हमारा समस्त साहित्य ज्ञान-विज्ञान, कला साधनायें उस शाश्वत सत्य का अनुसरण करके चलते हैं। इसी लिये भारतीय साहित्यकार, कलाकार लौकिक दृष्टि से अभावग्रस्त पाया जाता है। यहाँ नंगे, घर विहीन साधु संन्यासियों को अधिक महत्व दिया गया है राजा महाराजाओं से। धनवान् की अपेक्षा एक ऋषि की, तपस्वी की अधिक प्रतिष्ठा मानी गई है हमारे यहाँ और इसी कारण हमारे देश ने संसार को सबसे अधिक महान् पुरुष दिये। ऐसे महान् पुरुष जिन्होंने संसार को विघटन के बजाय एक सूत्र में बाँधा, युद्ध और संघर्षों के बजाय शान्ति और सह-जीवन का सन्देश दिया। और इसीलिए समस्त विश्व भारत को आज भी अपना प्रकाश स्रोत मानता है। यदि संसार में भारत की कोई प्रतिष्ठा और महत्ता है तो उसकी आध्यात्मिक विशेषता के कारण ही।

इसका अर्थ यह नहीं कि हमने भौतिक जीवन को व्यर्थ, नाशवान् समझकर उपेक्षित कर दिया हो। इतिहासकार बताते हैं कि हमारा धर्म-विज्ञान, हमारे मन्दिर, मूर्तियाँ, शिल्प, वास्तु विज्ञान, हमारा साहित्य, कला, कौशल, वाणिज्य, व्यापार की धाक संसार में सर्वत्र थी और उनकी विकसित दशा ही आज विश्व में मौजूद है। प्रसिद्ध यूनानी विद्वान् एरियन ने लिखा है- “जो लोग भारत से आकर यूनान में बसे थे और जिन्होंने वहाँ के निवासियों को अधीनस्थ किया था वे कैसे थे? वे देवताओं के वर्णन थे अपना निजी का सोना उनके पास बहुत था। वे रेशम के कामदार ऊनी दुशाले ओढ़ते थे और बहुमूल्य रत्नों के हार पहनते थे।” ऐसा ही यूनान के प्राचीन इतिहास में मिलता है। “भारत के निवासी जो यहाँ (यूनान में) आकर बसे थे, बड़े बुद्धिमान और कला कुशल थे, उन्होंने यहाँ विद्या और वैद्यक का प्रसार किया, यहाँ के निवासियों को सभ्य और अपना विश्वासपात्र बनाया।”

भारतीय संस्कृति ने एक उत्कृष्ट जीवन प्रणाली विश्व-मानव को प्रदान की, जिसमें संघर्ष, शोषण, अधिकारवाद के लिए कोई स्थान नहीं रहा था। हमारी आश्रम प्रणाली, वर्ण व्यवस्था, पारिवारिक जीवन, गण-राज्यों के द्वारा जिस जीवन-प्रणाली का विकास हमने किया था, वह अद्वितीय थी। तथाकथित समाजवादी प्रणाली का बहुत पहले ही हमारे यहाँ प्रयोग हो चुका है। “सर्वसाम विरोधेन ब्रह्मकर्म समारर्भे”, ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’, वसुधैव कुटुम्बकम् का उद्घोष भारतीय जीवन में ही मिलता है। किसी भी प्रकार के दबाव को स्थान नहीं था हमारे यहाँ। सामुदायिक जीवन में विषमता पैदा करने वालों को असुर, चोर कहकर उन्हें दण्डित किया जाता था। व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन की संघर्षविहीन सुरक्षा शान्ति, समृद्धि, विकास का समाजवादी प्रयोग विश्व में सर्वप्रथम भारतीय संस्कृति के अंतर्गत ही हुआ।

अध्यात्म, साधना, समाज आदि के नाम पर जीवन को शुष्क नीरस बना कर बिताने की गुँजाइश नहीं है भारतीय संस्कृति में। जो ऐसा समझते हैं वे भूल करते हैं। जल्दी-जल्दी आने वाले पर्व त्यौहारों की हमारे यहाँ भरमार है, जिन पर मनुष्य आमोद-प्रमोद, प्रफुल्लता का अनुभव कर सके, हँसी खुशी का जीवन बिता सके और वह भी सामुदायिक रूप से। इतना ही नहीं इनके साथ-साथ कई मनोवैज्ञानिक तथ्य जुड़े हुए हैं, जिनसे मनुष्य के मानसिक स्तर में सुधार और परिवर्तन होते हैं।

मानव जीवन को सभ्य शिक्षित, समर्थ, सुसंस्कृत बताने का भी वैज्ञानिक विधान भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है। ऋषिकुलों, गुरुकुलों में जीवन के चौथाई भाग तक विभिन्न जाति-स्तर, श्रेणी के परिवारों के बच्चों के साथ परिवार की तरह रहना, आचार्य के व्यावहारिक जीवन से प्रत्यक्ष और अक्षरीय ज्ञान प्राप्त करना, ब्रह्मचर्य, श्रम, सेवा का जीवन बिताना, प्रकृति के अंक में खेलना, बालक के जीवन निर्माण की दिशा में अद्वितीय प्रयोग थे। षोडश संस्कारों का प्रयोग ठीक उसी तरह हुआ, जैसे किसी पदार्थ को अनेकों पुट और भावनायें देकर अमृतौषधि में बदल दिया जाता है। षोडश संस्कार भी इसी तरह का प्रयत्न था, जब बच्चे को उसकी विभिन्न स्थितियों में भावी जीवन के लिए भावनात्मक दृष्टि से समर्थ, योग्य बनाया जाता था।

कला, साहित्य, उद्योग-धन्धे, व्यापार, व्यवसाय के क्षेत्र में भी हमने विश्व में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया था। युद्ध कौशल, लड़ाई के शस्त्रास्त्र, वैज्ञानिक उपकरणों का निर्माण सबसे पहले भारतीय क्षेत्र में ही हुआ था। इन सबकी विस्तृत विवेचना हम अन्यत्र करेंगे।

जीवन की सुव्यवस्था, आचार-विचार, आहार-विहार की एक सुव्यवस्थित प्रणाली का उदय भारत से हुआ। खान-पान, रहन-सहन के विज्ञान सम्मत तरीकों की खोज भारत में हुई, यह सब मानते हैं।

भारतीय संस्कृति की जो सबसे बड़ी महत्ता और अन्तर्राष्ट्रीय श्रद्धा तथा सद्-भावना का आधार है, वह है इसकी समन्वय की क्षमता, दूसरों को अपने आप में समा लेने की गम्भीरता। यह ऐसे सार्वभौम सत्यों पर खड़ी है कि किसी भी संस्कृति के साथ इसका टकराव हो ही नहीं सकता, वरन् विभिन्न धारायें जैसे समुद्र गर्भ में समा जाती हैं, उसी तरह संसार की समस्त संस्कृतियाँ भारतीय संस्कृति में अन्तर्भूत हो जाती हैं। इसका एक कारण यह भी है कि यह सभी विश्व संस्कृतियों की आदिस्रोत रही है। इतिहास साक्षी है कि रोम, मिश्र, सिन्धु आदि की संस्कृतियाँ खोज, संग्रहालय, पुरातत्व विभाग की सामग्री रह गई हैं, लेकिन भारतीय संस्कृति आज भी नाना आक्रमणों, अवरोधों, कठिनाइयों के बावजूद जैसी की तैसी स्थिर है। उनका लोहा अब भी समस्त विश्व मानता है। निस्सन्देह भारतीय संस्कृति समन्वयवादिनी रही है। विश्व में जहाँ अन्य संस्कृतियाँ परस्पर टकराव, संघर्ष, युद्धों का कारण रही हैं, आपस में रक्त की नदियाँ जिन्होंने बहाई हैं, वहाँ भारतीय संस्कृति ने प्रेम, स्नेह, अहिंसा, मैत्री करुणा का पाठ पढ़ाया है संसार को। आचार्या महादेवी वर्मा ने लिखा है- “इस विशाल देश के पास ऐसी विराट संस्कृति है, जिसमें ज्ञान-विज्ञान, विभिन्न विचारों, विविध अनुभूतियों का और अनेक कर्तव्यों का समन्वयात्मक संघात है। सचमुच हमारी संस्कृति समन्वयवादिनी रही है।”

भारतीय संस्कृति की एक बहुत बड़ी प्रेरणा है- इसकी त्याग प्रधानता। पाश्चात्य तथा अन्य कई संस्कृतियाँ जहाँ भोग प्रधान हैं, वहाँ हमारी संस्कृति त्याग प्रधान रही है। वस्तु, पदार्थ, सामग्रियों को अपने सुख, आराम, मौज-मजे के लिए एकत्र न करके, उसे परमार्थ में लगा देना हमारी संस्कृति की महानता है। त्याग का प्रतीक ‘यज्ञ’ भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग रहा है। ‘यज्ञ’ का मूल-दर्शन त्याग की भावना पर ही आधारित है।

हम भारतीय संस्कृति को समझें, उसका अध्ययन करें, उसके आधार स्तम्भों का अनुशीलन करें। इससे बड़ी आवश्यक बात यह है कि हम इन साँस्कृतिक आदर्शों को जीवन में ढालें, उन्हें अपनायें और हम में से प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह भारतीय नागरिक के नाते भारतीय संस्कृति का मूर्तिमान सजीव स्वरूप ग्रहण करे।

आज अन्धकार में भटकने वाले जन-समाज को भारतीय संस्कृति का प्रकाश पहुँचाने की इतनी आवश्यकता है, जितनी पहले कभी नहीं रही। जिन उलझनों में संसार बुरी तरह ग्रस्त और सन्त्रस्त है, उनका समाधान भारतीय संस्कृति के आदर्शों से ही हो सकता है।

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