
मानस - एक कल्पवृक्ष
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कहा जाता है कि स्वर्ग में एक कल्पवृक्ष है। उसके नीचे जो भी बैठते हैं उन सभी की कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। कल्पनाओं को, इच्छाओं को पूर्ण करने वाला है कल्प वृक्ष। वह देव लोक में ही उगा और स्थिर रहा है। उसको पातालवासी दैत्य-नाग अपने यहाँ ले जाने का प्रयत्न करते रहे पर उनकी इच्छा पूर्ण हुई ही नहीं। कल्प वृक्ष टस से मस नहीं हुआ। वहाँ के वातावरण की उसे कल्पना जानकारी थी। इसलिए वहाँ जाने या रहने के लिए वह तैयार नहीं हुआ।
कल्पवृक्ष क्या है? इसका यथार्थ ज्ञान करने के लिए हमें यह समझना चाहिए कि वह कोई पेड़ नहीं है। पेड़ों के लिए तो अपनी धरती ही उपयुक्त है : स्वर्ग या पाताल में ऐसी भूमि नहीं है जिनमें पेड़-पौधे उग सकें और न ही सम्भव है कि किसी पेड़ के नीचे बैठने भर से लोगों की इच्छाएँ पूरी हो जाया करें। यदि ऐसा हुआ होता तो किसी को पात्रता, योग्यता बढ़ाने और पराक्रम करने, साधन जुटाने की क्या आवश्यकता पड़ती। फिर तो बिना योग्यता, बिना परिश्रम के ही लोग अपने-अपने मनोरथ पूरे कर ले जाया करते। यह असम्भव है। कल्पवृक्ष एक अलंकारिक शब्द है जिसका अर्थ है कल्पनाओं, कामनाओं को पूरा करने का केन्द्र एवं तरीका। मनुष्य का जीवन ही कल्पवृक्ष है। उसकी जड़ें, तना, टहनियां, पत्ता, फल फूल सभी ऐसे हैं कि उनका यदि ठीक तरह उपयोग किया जाय तो व्यक्ति के मन में ऐसी ही कल्पनाएँ कामनाएँ उठेंगी जो उचित परिश्रम करने और अनुरूप व्यक्तित्व निखारने के उपरान्त सहज ही पूरी हो सकती हैं। श्रम से क्या नहीं हो सकता? प्रयास की उपयुक्तता क्या सम्भव करके दिखा नहीं सकती। संसार में ऐसे व्यक्ति हुए हैं जिनने असम्भव को सम्भव करके दिखाया। यह कोई जादू चमत्कार नहीं हैं। देव-दानवों की सहायता से भी ऐसा नहीं बन पड़ता, किन्तु पुरुषार्थी गंगा को स्वर्ग से उतार कर भागीरथ की तरह जमीन पर ला सकते हैं। अर्जुन की तरह जमीन में तीर मारकर पानी को उछाल कर भीष्म की प्यास बुझाया करते हैं। अगस्त्य की तरह समुद्र सोख सकते हैं। हनुमान की तरह पर्वत उखाड़ सकते हैं। नल नील की तरह समुद्र पर सेतु बना सकते हैं। मनुष्य की सामर्थ्य असीम है। जिस प्रकार परमाणुओं में अनन्त शक्ति का भण्डार भरा है और उनके विस्फोट होते ही तहलका मच सकता है। उसी प्रकार मनुष्यों में से प्रत्येक में वह सामर्थ्य भरी पड़ी है जिसके सहारे कठिन से कठिन कार्य सरल हो सकते हैं।
जीवन के प्रत्येक घटक में ऐसी ऊर्जा भरी पड़ी है कि उसे जिस भी दिशा में बढ़ा दिया जाय उसी दिशा में तूफानी गति से बढ़ चलने का उपक्रम बन सकता है। यह निश्चय करना मनुष्य का अपना काम है कि उसे किस दिशा में मोड़े और बढ़ाये। वह चाहे तो उसे दुष्ट-दुरात्मा, नीच, पापी और पाखण्डी के रूप में अपने को अग्रसर कर सकता है और उस संदर्भ में भी इतनी सफलता प्राप्त कर सकता है जिसे देख सुनकर रोमांच हो उठे। वह चाहे तो उत्कृष्टता को भी इस सीमा तक धारण कर सकता है कि उसे शत-शत नमन करना पड़े और असंख्यों को भावभरी प्रेरणा तथा दिशा मिले।