
प्राणायाम की आरम्भिक विधि व्यवस्था
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
बोल-चाल की भाषा में प्राण को- प्राण वायु समझा जाता है। पर वह वस्तुतः एक जीवन्त विद्युत शक्ति है जो इस विशाल ब्रह्मांड में ‘ईथर’ तत्व की तरह सूक्ष्म स्थिति में समाई हुई है। वह वायु से सूक्ष्म है। यद्यपि वैज्ञानिकों की पहुँच अभी ऑक्सीजन तक ही हुई है और वे उसी को प्राण कहते चले आते हैं। यह ठीक है कि ऑक्सीजन का अंश वायु में मिला होने से ही शरीर की भट्टी धधकती है और ज्योति जलती है। इसके अभाव में क्षण भर में दम फूल जाता है और मृत्यु हो जाती है। इतने पर भी यह मानना पड़ेगा कि जीवन ऊर्जा इससे कहीं ऊपर है और उसकी शक्ति तथा स्थिति की सूक्ष्म उत्कृष्टता माननी पड़ती है क्योंकि उसके साथ जीवन तत्व घुला हुआ जो सचेतन है। ऑक्सीजन तो भौतिक जगत का एक पदार्थ है जो वायु के साथ घुला हुआ पाया जाता है। वह प्राण वायु नहीं है। यदि वैसी बात रही होती तो मृत व्यक्ति को ऑक्सीजन के सिलेण्डरों से जीवित रखा जा सकता था।
शरीर शास्त्री कहते हैं कि गहरी साँस लेने से फेफड़ों में अधिक वायु भरती है। शरीर का प्रत्येक अंग उसका लाभ उठाता है। श्वसन तन्त्र मजबूत होता है और फेफड़ों के क्षय होने जैसी आशंका नहीं रहती। इसलिए शारीरिक प्राणायाम इतना ही है कि सीने को झुकाकर न बैठा न चला जाय। सीना चौड़ा और सीधा रखा जाय। जितनी गहरी साँस ली जा सके उतनी झटके से नहीं वरन् धीरे-धीरे ली जाय। इसके उपरान्त थोड़ा ही रुककर वायु को फिर धीरे-धीरे बाहर निकालकर फेफड़े पूरी तरह खाली कर दिये जाएं। यह क्रम बराबर दुहराया जाता रहे तो शरीर को वायु माध्यम से अधिक पोषण मिलेगा। रक्त की सफाई में इससे योगदान मिलेगा और स्वास्थ्य ठीक रहेगा। बहुत से लोग हलकी उथली साँस लेने के कारण ही अस्वस्थ होते हैं। पर्याप्त मात्रा में अवयवों का पोषण न मिलने से वे अशक्त होते जाते हैं। इसी प्रकार उत्पन्न होती रहने वाली मलीनता की जितनी सफाई गहरी साँस के आधार पर होनी चाहिए उतनी नहीं हो पाती। वैज्ञानिकों की प्राणायाम प्रक्रिया इसी आधार पर चलती है वे साँस नाक से ही लेने पर जोर देते हैं और मुँह से लेने के लिए मना करते हैं। मुँह से ली हुई साँस बिना छने सीधी कंठ के रास्ते फेफड़ों में उतर जाती है और उसका तापमान फेफड़ों की तुलना में न्यूनाधिक होता है जबकि नाक से साँस लेने पर वह नाक के वालों द्वारा छनती जाती है। धूल आदि के कण उन्हीं में उलझे रह जाते हैं। मस्तिष्क में सीधा पोषण मिलता है। इन सब लाभों को देखते हुए नाक से साँस लेना ही उपयुक्त है। पूरी साँस ली जा सके इसलिए सीने चौड़ा और सीधा रखना चाहिए। चलते समय पैर उठाने की तरह हाथों को भी आगे-पीछे हिलाते रहने का क्रम चलाना चाहिए। साँस लेने की यह अच्छी आदत ही शारीरिक दृष्टि से उपयुक्त प्राणायाम है।
किन्तु अध्यात्म प्रयोजनों में मात्र इतने से ही काम नहीं चलता। ब्रह्माण्डव्यापी प्राण चेतना का अधिकाधिक अंश अपने भीतर आकर्षित करना और उसको धारण करना शरीर की जीवनी शक्ति बढ़ाना है। जीवनी शक्ति साहसिकता, कार्यों में तत्परता एवं प्रतिभा के रूप में परिलक्षित होती है। इस तत्व में अधिक निरोग बलिष्ठ और दीर्घ जीवन प्रदान करने की भी क्षमता है। वह समग्र व्यक्तित्व को विकसित करने के भी काम आता है।
प्राण को प्रकृति और चेतना का सम्मिश्रण कह सकते हैं। वह व्यापक होने के कारण अन्तरिक्ष में तो विपुल मात्रा में भरा हुआ है। इसके अतिरिक्त जल थल में भी उसका अस्तित्व है। जहाँ ऑक्सीजन की पहुँच नहीं है वहाँ भी प्राण चेतना का अस्तित्व पाया जाता है। उसकी आवश्यकता शरीर पोषण से भी अधिक मनोबल बढ़ाने में पड़ती है।
सामान्य सरल प्राणायाम की विधि यह है कि पालथी लगाकर या अभ्यास हो तो पद्मासन में बैठना चाहिए। मेरुदण्ड सीधा रहे, पीठ और सिर के पिछले भाग की सीध एक रहे। इस प्रकार सीना स्वभावतः चौड़ी स्थिति में रहेगा।
आध्यात्मिक प्राणायामों में एक नथुने से हवा खींचने और दूसरे से छोड़ने की परम्परा है। बाँये नथुने से खींचना और दाहिने नथुने से छोड़ने का नियम है।
इसके लिए बाँये हाथ कोहनी पर से मोड़कर उसकी हथेली चौड़ी रखनी पड़ती है। दाहिने हाथ की कोहनी उस फैली हुई हथेली पर जमानी पड़ती है साथ ही चारों अँगुलियों की मुट्ठी बाँधकर अँगूठे से दाहिना नथुना दबाकर बन्द कर देना पड़ता है। इस प्रकार बाँये नथुने से ही श्वास भीतर जायेगी। खींचने का क्रम सीधा होना चाहिए। साँस इतनी गहरी लेनी चाहिए कि उसका प्रभाव फेफड़ा तक ही सीमित न रहकर पेट फूलने तक दृष्टिगोचर होने लगे। इस प्रयोग को प्राणायाम का पूरक भाग कहते हैं।
दूसरा पक्ष है साँस को भीतर रोकना। रोकने का समय खींचने की तुलना में आधा होना चाहिए। सांस खींचने की समूची प्रक्रिया में यदि दस तक गिनती गिनी जा सकती है। तो रोकने का कृत्य पाँच तक गिनने में ही समाप्त कर देना चाहिए। यह कुम्भक पक्ष है। कुछ लोगों का कथन कुम्भक को भी लम्बा खींचने का है, पर वह ठीक नहीं। साँस में घुले दूषित तत्वों को भीतर बहुत देर तक रुकने नहीं देना चाहिए। रोकने से विकार रुकते हैं। इसलिए जल्दी ही उसे निकाल बाहर करना चाहिए।
तीसरा पक्ष है- रेचक। रेचक अर्थात् निष्कासन। वायु को निकालने में वैसी ही धीमी गति अपनानी चाहिए जैसी कि खींचते समय अपनाई गई थी। प्रयत्न यह करना चाहिए कि साँस का समूचा अंश बाहर निकल जाय। फेफड़े ही नहीं पेट भी खाली हो जाय।
इसके बाद थोड़ी देर साँस को कुछ समय बाहर रोक रखना चाहिए। साँस को बाहर निकालते समय अँगूठे बदलकर दाहिने नथुने पर रख लेना चाहिए। इस दबाव के कारण श्वसन को बाँये नथुने से खींचना और दाहिने से निकालना सरल हो जायगा। जब बाह्य कुँभक करना हो। बाहर साँस रोकनी हो तो तर्जनी और अंगूठा दोनों का प्रयोग करके दोनों नथुने बन्द कर देने चाहिए। भीतर साँस रोकने की क्रिया को अन्तर कुँभक और बाहर साँस रोकने को बाह्य कुँभक कहते हैं। इस प्रकार रेचक कुम्भक, अन्तः कुम्भक, पूरक कुम्भक, बाह्य कुम्भक इन चार भागों में एक प्राणायाम विभक्त हो जाता है।
अध्यात्म परक प्राणायामों में संकल्प शक्ति का भी उपयोग करना पड़ता है। मानवी चेतना एक प्रकार का चुम्बक है। जो संकल्प शक्ति के नियोजन से सक्रिय एवं सक्षम होता है। सर्वप्रथम ब्रह्मांडव्यापी चेतन तत्व की दिव्य ऊर्जा के रूप में व्यापकता अनुभव करनी चाहिए। सोचना चाहिए कि समग्र अन्तरिक्ष प्राण ऊर्जा से भरा हुआ है। प्राणायाम द्वारा उसी का विशेष रूप से आकर्षण करना है। साँस खींचते समय यह मान्यता रहनी चाहिए कि भीतर मात्र हवा ही नहीं जा रही है वरन् प्राण तत्व भी उसमें प्रचुर परिमाण में मिलकर प्रवेश कर रहा है। वायु द्वारा शरीर को जिस तरह पोषण प्रदान किया जाता है उसी प्रकार यह भी मान्यता सुदृढ़ करनी चाहिए कि शरीर में दिव्यमान प्राण चेतना को बाहर से खींची गई प्राण चेतना के सहारे अपनी स्थिति मजबूत एवं बलवती बनाने का अवसर मिल रहा है।
अन्तः कुम्भक की स्थिति में मान्यता यह होनी चाहिए कि जो भरा गया है उसे उसी प्रकार सोखा जाता रहा है जैसे मिट्टी पर थोड़ा पानी डालने से वह उसे सोख लेती है। अपनी और दैवी प्राण चेतना के सम्मिश्रण से अपना प्राण दूना हो रहा है। अपनी क्षमता दुहरी बनने जा रही है।
साँस निकालते समय का संकल्प यह होना चाहिए कि न केवल शरीरगत गन्दगी वरन् मानसिक दोष दुर्गुण भी इस वायु निष्कासन के साथ बाहर निकल रहे हैं। निकलने वाली वायु अंधड़ की तरह बुरी आदतों को धूलि कणों की भाँति बाहर उड़ा लिये जा रहा है और अपनी स्थिति निर्मल निष्पाप जैसी हो रही है।
बाह्य कुंभक में एक प्रकार से दरवाजा बन्द कर दिया जाता है कि दुर्गुण लौटकर वापस न आने पावें। भीतर जो खींचा सोखा गया है वह स्थिर बना रहे। बाहर न जाने पावे। अँगूठे और तर्जनी के सहारे दोनों नथुने बन्द करने की प्रक्रिया इसी निमित्त है कि वायु शरीर के जितने भाग पर अधिकार जमाये रहती थी वह भी उससे छिन गया और न केवल समूची शरीर सत्ता पर वरन् मानसिक क्षेत्र पर भी प्राण चेतना का स्थिर आधिपत्य हो गया। इस प्रकार पहले की अपेक्षा शरीर कहीं अधिक मात्रा में प्राण तत्व की दिव्य ऊर्जा से सुसम्पन्न हो गया है।
यह एक प्राणायाम हुआ। चारों खण्डों को मिलाकर एक प्राणायाम बनता है। इसका न्यूनतम समय एक मिनट है। आरम्भ में स्वाभाविक स्थिति ही रहने देनी चाहिए। पीछे उसे बढ़ाना चाहिए। दो मिनट मध्यवर्ती और तीन मिनट अत्यन्त उच्च श्रेणी की साधना अवधि मानी गई है।
इसमें वायु के खींचने निकालने का जितना महत्व है। उससे कहीं अधिक दिव्य प्राण की अनुभूति को सुदृढ़ बनाने का है। यह संकल्प शक्ति पर निर्भर है। इसलिए प्राणायाम का आध्यात्मिक लाभ उठाने वालों के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने संकल्प बल को परिपक्व करें। कल्पना को उस स्तर तक सक्षम करें कि वे प्रत्यक्षवत् दीखने लगे।
प्राण शक्ति के भीतर जाते समय भावना रहनी चाहिए कि उसके साथ कुछ चिनगारियाँ भी उड़ रही हैं और तापमान साधारण श्वास-प्रश्वास की तुलना में कुछ बढ़ा हुआ है।
यह बैठकर अभ्यास करने की विधि है। जिन्हें अनुकूल पड़ती हो वे इसे जमीन पर लेटकर भी कर सकते हैं। उससे लाभ यह है कि पीठ और सिर एक सीध में अनायास ही आ जाते हैं। उनकी देखभाल करने या ध्यान रखने की आवश्यकता नहीं पड़ती साथ ही नथुने को बन्द करने खोलने का कार्य भी एक ही हाथ में हो सकता है। कोहनी का सहारा देने के लिए दूसरे हाथ की हथेली का सहारा नहीं लेना पड़ता।
प्राणायामों के अनेक भेद उपभेद हैं। उनका उल्लेख योग ग्रन्थों में विस्तारपूर्वक आता है। उनके प्रतिफल भी अलग-अलग प्रकार हैं। शरीर में ताप की या शीत की मात्रा कम बढ़ करने के वे काम आते हैं। कुछ का प्रयोजन शरीर विकारों को दूर करना। कुछ का मानसिक कष्ट का निराकरण करना और कुछ का आत्मशक्ति की प्रचुरता एवं प्रखरता बढ़ाना है। इनके प्रयोगों में जो अन्तर है उसे हमारी प्राणायाम सम्बन्धी पुस्तकों में पढ़ा या शान्ति-कुँज आकर सीखा जा सकता है।