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Magazine - Year 1986 - Version 2

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पंचकोशों की सावित्री साधना

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सावित्री उपासना के दो स्तर हैं। एक सर्व साधारण के लिए सर्वोपयोगी, सुगम और सरल जिसे सामान्य स्थिति का भावनाशील व्यक्ति भली प्रकार करता रह सकता है। दूसरा स्तर वह है जो विशिष्ट व्यक्तियों के लिए, परिशोधित और परिष्कृत लोगों के लिए ही संभव है। इसमें इतने कठोर प्रतिबन्ध, विधान और अनुशासन हैं कि उनका निर्वाह कर सकता हर किसी के लिए सम्भव नहीं है। इसलिए वह प्रयोजन अभी अपने तक ही सुरक्षित रखा है। जो सर्वसाधारणों के लिए विशेषतया प्रज्ञा परिजनों के लिए सम्भव है। उसी का उल्लेख यहाँ कर रहे हैं।

व्यक्तिगत भौतिक या आध्यात्मिक प्रयोजनों के लिए जो एकाकी साधना की जाती है उसे गायत्री उपासना समझा जाय। आध्यात्मिक प्रयोजनों में स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि आदि की गणना होती है और भौतिक प्रयोजनों में रोग, शोक, उद्वेग, दरिद्व, शत्रुता, आक्रमण, अभाव जैसे कारणों की गणना होती है। इन वस्तुओं के लिए दयालु माता से प्रार्थना की जा सकती कि वे अपनी और दूसरे सम्बन्धित लोगों की बुद्धि में सुधार करके उपस्थित संकटों का निराकरण करें।

सविता व्यापक है। उसकी शक्ति सावित्री भी उसी स्तर की है। सूर्य समूचे सौर मण्डल को ऊर्जा, प्रकाश एवं गति देता है। सावित्री का उपयोग भी सामूहिक और व्यापक समस्याओं के लिए ही किया जा सकता है। वस्तुतः समूचा मानव समाज एक दूसरे से प्रभावित होता और प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग का आदान प्रदान करता है। मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के कारण एक ऐसी विशाल नाव पर बैठा है जिसमें डूबना और पार होना साथ-साथ ही हो सकता है। जिनकी दृष्टि इतनी विशाल है कि स्वार्थ और परमार्थ को एक दूसरे का अविच्छिन्न अंग मान सकें, उन्हीं के लिए सावित्री उपासना का अवलम्बन लेना चाहिए। उसका प्रभाव सार्वभौम है और उपयोग सार्वजनीन समस्याओं का समाधान है। इस सर्व के अंतर्गत ही अपना “स्व” भी आता है।

सार्वजनिक आयोजनों को सावित्री साधना कह सकते हैं। इसी प्रयोजन के लिए सुर्योदय के समय एक माला गायत्री जप विधि पूर्वक या मानसिक रूप से करने के लिए कहा गया है। 24 लाख साधक इसे कर रहे हैं और 24 करोड़ का जप प्रतिदिन हो रहा है। इसे और भी आगे बढ़ाने का प्रयत्न किया जाय तो यह संख्या और भी बढ़ सकती है और उससे अदृश्य वातावरण के परिशोधन में भारी सहायता मिल सकती है।

यज्ञ यों वैयक्तिक भी होते हैं। अमुक प्रयोजनों के लिए लोग निजी खर्च से होताओं को पारिश्रमिक देकर निज के निमित्त ग्रह शान्ति आदि के यज्ञ करते हैं। यह व्यक्तिगत बात हुई। पर यदि सामूहिक गायत्री यज्ञ किया जाय उसमें सभी उपयुक्त व्यक्ति भाग लें और खर्च की मिल-जुलकर व्यवस्था करें तो वह प्रयोग भी सावित्री के अंतर्गत ही आता है और उसका लाभ व्यक्ति विशेष को तो उसके श्रम सहयोग के अनुरूप ही स्वल्प मात्रा में मिलता है पर उसका वास्तविक सम्बन्ध लोक कल्याण के साथ जुड़ा होने के कारण इस प्रकार के आयोजनों को विश्व शान्ति यज्ञ कहते हैं। यह छोटे या बड़े रूप में जितने अधिक किये जा सकें उसे सावित्री को प्रखर बनाने के लिए किया गया प्रयास ही माना जायेगा।

नवरात्रि आयोजनों को सामूहिक रूप में मनाने की आवश्यकता इसीलिए माहात्म्य समझाते हुए बताई जाती है। यों लोग अपने घर में भी एकाकी अनुष्ठान करते रहते हैं और उसका हवन भी स्वयं या परिवार समेत कर लेते हैं। पर इसी को यदि सार्वजनिक आयोजन की तरह सम्पन्न किया जाय। सभी साधक एक जगह मिल बैठकर जप करें। एक साथ स्वस्ति वाचन- पूजा-अर्चा करें। पूर्णाहुति भी एक साथ हो और अन्तिम दिन अमृताशन (खिचड़ी आदि) उबले अन्न का सहभोज करें तो उसे भी सविता साधना में ही गिना जायगा।

अधिक लोगों की अधिक संयुक्त प्राण शक्ति मिलने से अधिक सार्वजनिक हित होता है। इसलिए अनुष्ठानों का एक छोटा प्रयोग 107 माला का भी आरम्भ किया गया है। अब तक 24 हजार, सवा लक्ष और चौबीस लक्ष के तीन ही अनुष्ठानों के प्रकार थे। अब चौथा प्रकार 107 माला का इसलिए निर्धारित किया गया है कि जो लोग बहुत व्यस्त हैं, वे भी प्रतिदिन एक घण्टे का समय निकालकर इन अनुष्ठानों में सम्मिलित होने का श्रेय प्राप्त करें।

सावित्री साधना वस्तुतः पंचकोशों की साधना है। उसे बड़े स्तर पर किया जाता है। यह कठिन कार्य है। अपनी एक सता को पाँच भागों में विभक्त करके पाँच पाण्डवों जैसा एक यूनिट खड़ा करने जैसा। इसके लिए कुन्ती जैसी लगन, श्रद्धा, हिम्मत और कष्ट सहिष्णुता चाहिए। वह उच्चस्तरीय कार्य हमने अपने जिम्मे लिया है। उसमें कष्टसाध्य शरीर और मन को निचोड़कर इत्र निकालने जैसा कठोर कार्य भी पूर्व संस्कारित और परिष्कृत अभ्यास से ही सफल हो सकता है। सामान्य परिजनों को उस कठोरता को उत्साह में अपनाने और कुछ ही दिन में, किसी बहाने छोड़ बैठने के लिए आमन्त्रित नहीं किया गया है।

फिर भी उन्हें हमारा हाथ बंटाना है। इस उच्चतम स्तर की साधना में वे भागीदार होना चाहते हों तो उनके लिए एक सरल तरीका ढूँढ़ निकाला गया है। वह यह कि वे पाँच कोशों की साधना को अपने व्यावहारिक जीवन में- गुण, कर्म, स्वभाव की तरह सम्मिलित करने का प्रयत्न करें।

अन्नमय कोश की साधना के लिए आहार को अधिकाधिक सात्विक और सीमित बनाया जाय ताकि अन्न के अनुरूप मन में भी सात्विकता उमंगे।

प्राणमय कोश के जागरण के लिए आन्तरिक साहस और पराक्रम को प्रखर करना पड़ता है। इसके लिए छोटे-छोटे- थोड़े-थोड़े दिनों के संकल्प करके उनकी पूर्ति हर हालत में करनी चाहिए। पूरा करने पर मनोबल बढ़ता और मनस्विता में निखार आता है। रामायण का गीता का नवाह्न पारायण सहज ही हो सकता है। इसी प्रकार गायत्री अनुष्ठान भी। चल पुस्तकालय, झोला पुस्तकालय जैसे उच्चस्तरीय परमार्थों को इतने दिन तक इतने समय तक चलाते रहने का व्रत लिया जा सकता है। इसी प्रकार श्रम दान, साधन दान देकर सत्प्रवृत्तियों को समाज में अग्रसर करने में योगदान दिया जा सकता है। अपने बच्चे के विद्यारम्भ से लेकर उपनयन, विवाह तक की प्रतिज्ञा शान्ति-कुँज में कराने का संकल्प लेना भी ऐसी ही व्रतशीलता के अंग हैं जिनसे मनुष्य में दूसरों की तुलना में अधिक प्राण- अधिक साहस होने का परिचय मिलता है।

मनोमय कोश की साधना में अन्तर्द्वन्द्व को आमन्त्रित करना होता है। अपने गुण कर्म, स्वभाव, रीति-नीति एवं आदतों को कड़ी दृष्टि से नित्य निरीक्षण करना और जो अनुपयुक्तता भीतर घुसी हुई हो उनके विरुद्ध विद्रोह खड़ा करके कूड़े करकट की तरह बुहार फेंकना, उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियों को हठपूर्वक स्थापना करना। कुकल्पनाओं के उठते ही उनके विरुद्ध उच्च विचारों को भिड़ा देने में विलम्ब न करना यही मनोमय कोश की साधना है।

मनोबल बढ़ाने के लिए सप्ताह में एक दिन कुछ व्रतों का भी पालन करना चाहिए। इन्हें एक प्रकार से अणु व्रत कहा जा सकता है। यथा (1) एक समय बिना नमक शक्कर का भोजन और एक समय रस, दूध, छाछ आदि प्रवाही पदार्थों पर गुजारा करना। (2) उस दिन शारीरिक और मानसिक दोनों ही दृष्टियों से ब्रह्मचर्य का पालन करना। (3) किसी सुविधा के समय पर दो घण्टे का मौन रखना। उस समय में एकान्त में रखना। लिखकर या इशारों से भी बात न करना। इन दो घण्टों में आत्म-निरीक्षण, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण और आत्मविकास के सम्बन्ध की परिधि में ही विचार करते रहना। अब या पिछले दिनों की तुलना में अगले दिनों अपने को अधिक पवित्र और प्रखर बनाने की योजना बनाना और उसे कार्यान्वित करने के तौर तरीके निर्धारित करना। मनोमय कोश इतनी साधना भर से क्रमशः अधिक तेजस्वी हो सकता है।

विज्ञानमय कोश से मोटा आशय प्रायः दूरदर्शी विवेकशीलता को इतना तेजस्वी बनाने से है कि अपने को अकेले भी किसी मार्ग पर चलना पड़े- कोई कार्यक्रम अपनाना पड़े तो उसमें कोई झिझक संकोच आड़े न आने पाये। अपने व्यक्तिगत जीवन में कितनी ही अवांछनीयताएं घुसी बैठी होती हैं और आदत का रूप धारण कर लेने पर उन्हें छोड़ना तो दूर उलटे अपनाये रहने का दुराग्रह जड़ जमाकर बैठा होता है। इसी प्रकार समाज में अनेकों कुरीतियाँ, मूढ़ मान्यताएँ अनीतियाँ, दुष्प्रवृत्तियाँ जड़ जमाये बैठी होती हैं। पर उन्हें देखते, सहते रहने पर वे भी अखरती नहीं और एक परम्परा के रूप में अचेतन मन उन्हें स्वीकार कर लेता है।

आनन्दमय कोश के जागरण की प्रक्रिया यह है कि हलकी-फुलकी, हँसती-हँसाती जिन्दगी जियी जाय। अनुकूलता-प्रतिकूलता के संदर्भ में आवश्यक उपाय तो किये जाये पर मनःस्थिति खिलाड़ी जैसी रखी जाय तो आये दिन हारते जीतते रहने पर भी अपने को खिन्न उद्विग्न नहीं होने देते।

बड़ों का कहना है कि अच्छी से अच्छी आशाएँ रखो और बुरी से बुरी सम्भावनाओं के लिए तैयार रहो। परिस्थितियाँ सदा अनुकूल ही बनी रहें, कभी प्रतिकूलताओं का सामना न करना पड़े यह सम्भव नहीं। दिन और रात की तरह हार-जीत का भी जोड़ा है। जो दोनों ही स्थिति में अपने को सन्तुलित रखे रहता है। उपार्जन के लिए प्रयत्नशील एवं उपलब्धियों के सदुपयोग के लिए सदा दूरदर्शिता भरे कदम उठाता है। उसे दोनों ही प्रकार की परिस्थितियाँ बड़े उपयोगी पाठ पढ़ा जाती हैं। दोनों का ही मनुष्य जीवन में अपना-अपना उपयोग है। यह मान्यता जो स्थिर सुनिश्चित कर लेते हैं, उनका आनन्द किसी के छीने छिनता नहीं।

आनन्दित रहना ही सौंदर्य की उपासना है। हँसते-मुस्कराते रहने की आदत ऐसी है जो अपनी अन्तरंग और बहिरंग क्षमताओं को उल्लसित करती हैं और अनायास ही अनेकों को मित्र सहयोगी एवं प्रशंसक बना देती है।

जीवनचर्या में इतना भर करते रहा जाय तो समझना चाहिए कि गहरे स्तर का न सही, सामान्य जीवन को अधिक सुविकसित करने का वरदान उपलब्ध कराने वाला पंचकोशी साधना का सूर्य हाथ लग गया और प्रगति पथ पर चलने- लक्ष्य तक पहुंचने का शुभारम्भ हो गया।

सावित्री साधना से “तप” का अविच्छिन्न सम्बन्ध है। तपस्वी ही उस दिव्यता को उपार्जित एवं धारण कर सकते हैं। शरीर, मन और प्राणों को तपाकर पानी को भाप- पारे को मकरध्वज बनाने वाली प्रक्रिया कठिन है। उसकी और अनधिकारी चल पड़े तो अच्छे-खासे स्वास्थ्य को भी बिगाड़ बैठते हैं। वह काया-कल्प जैसी अद्भुत और अनुभवी लोगों के संरक्षण से सफल हो सकने वाली प्रक्रिया है। सर्व साधारण को ‘संयम’ ही तप का पर्यायवाची मानकर चलना पर्याप्त है।

अब एक ही प्रश्न शेष रहता है कि गायत्री और सावित्री के अन्तर को समझा जाय। दोनों में ही 24 अक्षर हैं। दोनों में ही 24 अवतार, 24 देवता, चौबीस ऋषि और चौबीस अक्षरों में 24 शक्ति स्रोत समाहित हैं।

अन्तर इतना ही है कि गायत्री त्रिपदा होने के कारण उसमें “भूर्भुवः स्वः” की तीन व्याहृतियां आरम्भ में लगाई जाती हैं और सावित्री में सप्त व्याहृतियां हैं। यही सूर्य के सात अश्व हैं। किरणों के सात रंग हैं। इनमें भूर्भुवः स्वः के उपरान्त जप जनः, तपः, महः, सत्यम लगाया जाता है। इसलिए वह सावित्री हो जाती है। प्राणायाम मन्त्र में तो उनका समावेश होता ही है। सावित्री उपासना करने वाले साधारण जप में भूर्भुवः स्वः जनः, तपः, महः, सत्यम् का भी प्रयोग करते हैं। ध्यान माता की अपेक्षा पिता का, सविता का- प्रातःकालीन स्वर्णिम सूर्य का किया जाता है। (क्रमशः)

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