
संस्कार जन्म-जन्मान्तरों तक साथ चलते हैं।
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कुछ दिन पूर्व तक भौतिक विज्ञानी आत्मा-परमात्मा के अस्तित्व को नकारते थे। क्योंकि उन्हें प्रत्यक्ष नहीं देखा जा सकता। पीछे विज्ञान की बाल्यावस्था विकसित हुई और उसने प्रौढ़ावस्था में प्रवेश किया। इस प्रगति चरण में मस्तिष्कीय रहस्यमय परतों की खोज की गई और उसमें अतीन्द्रिय क्षमताओं से भरे-पूरे अनेकों केन्द्र पाये गये। साधारणतया वे प्रसुप्त स्थिति में रहते हैं, पर कारणवश उनका उभार भी देखा गया है। ऐसा उभार जो मात्र चमत्कारी ही नहीं होता वरन् आत्मा के अस्तित्व को भी सिद्ध करता है।
मानव मस्तिष्क की रहस्यमय परतों पर प्रकाश डालने वाले विज्ञान जगत के कई ग्रन्थ बहुत प्रख्यात हैं। मैकलिन डिक्शन लिखित- “दि ह्यूमन सीचुएशन एवं ऐरिक फ्रौम के “साइकोलॉजी एण्ड रिलीजन” में हुए विषय पर गहरा प्रकाश डाला गया है। उनने परामनोविज्ञान को विज्ञान की एक विशेषधारा के रूप में प्रतिपादित किया है और इस संदर्भ में पिछले दिनों से होती रहने वाली चर्चाओं में पुनर्जन्म को भी सम्मिलित किया है। इससे पूर्व मात्र दूर-दर्शन, दूर श्रवण, विचार संचालन आदि की ही चर्चा होती रहती थी।
पुनर्जन्म की मान्यता में सबसे बड़ी अड़चन ईसाई धर्म की यह मान्यता है कि जन्म एक ही बार होता है। ऐसी मान्यताएं इस प्रतिपादन में पूर्वाग्रहों के कारण बाधक होती हैं। इसलिए प्रयोग प्रतिपादनों का जब भी समय आता है तो उन क्षेत्रों के वैज्ञानिक लड़खड़ा जाते हैं और तथ्यों और सत्यों तक पहुँचने में विलम्ब कर देते हैं।
फिर भी अनेकानेक प्रमाणों ने यह सिद्ध कर दिया है कि मृत्यु के उपरान्त मनुष्य का पुनर्जन्म होना एक वास्तविकता है। इस तथ्य को गहराई से जानने के लिए यह आवश्यक समझा जाये कि इस सम्बन्ध में जो प्रमाण इस समय उपलब्ध हैं, उनके विवरण तैयार कराने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय प्रयत्न किये जायें। अतएव खोजी जत्थे भी इस संदर्भ में भेजे गये।
इस सम्बन्ध में बर्जीनिया, अमेरिका के इयान स्टीवेन्सन, भारत आये थे। उनका सहयोग इस प्रसंग में रुचि लेने वाले अन्यान्य कितने ही मनोविज्ञानियों ने किया। भारत प्रायः 150 से अधिक ऐसे प्रमाण पाये गये जिसमें बालकों ने अपने पूर्व जन्मों के विवरण बताये। उनको अनजान स्थानों पर ले जाने पर उन्होंने अपने घर पहचाने। कुटुम्बियों से इसी प्रकार वार्तालाप किया कि मानों वे पूर्व जन्मों के संस्मरणों को भली प्रकार दुहरा सकते हैं। इतना ही नहीं, जिन वस्तुओं से उनका सीधा संपर्क रहा था, उन्हें भी उनने बताया। वे यह भी नहीं भूले थे कि उनकी मृत्यु किन परिस्थितियों में हुई।
इन विवरणों को प्रकाशित भी किया गया है। इनमें एक विलक्षण घटना ऐसी भी है जिसमें ब्यावर (राजस्थान) की एक सोलह वर्षीय लड़की ने अपने पिछले छह जन्मों के विवरण बताये। यह विलक्षण इसलिए भी है कि आमतौर से छोटी आयु के बच्चों में ही यह स्मृतियों पाई जाती हैं। वे जैसे-जैसे बड़े होते जाते हैं, उन स्मृतियों को भूलते जाते हैं। इसलिए प्रायः एक ही जन्म की स्मृति ध्यान में रहती है। कई जन्मों का स्मरण रहने की बात तो कदाचित ही कभी देखने को आती है।
मनुष्य की आत्मा अमर है। उसका जीवन अनन्त है। बार-बार जन्म-मरण का चक्र तो उसी प्रकार चलता रहता है, जैसे पुराने वस्त्रों के स्थान पर नये वस्त्र पहनने पड़ते हैं। यदि कर्म फल सत्य है तो यह भी मानना पड़ेगा कि इस जन्म में उसे भोगे जाने में जो कमी रह गई है, अगले जन्मों में जाकर पूरी हो सके।
पुनर्जन्म का एक और भी प्रमाण है कि कुछ बच्चे साधारण विकास का क्रमशः उल्लंघन करके छोटी आयु में ही अपनी साधारण प्रतिभा का परिचय देने लगते हैं। जबकि उनकी जन्मजात परिस्थितियाँ वैसी नहीं होतीं और न वातावरण ही ऐसा होता है जिससे वे असाधारण साधनों की सहायता से असाधारण उन्नति कर सकें। फिर भी वे अपनी निजी प्रतिभा के सहारे प्रगति-पथ पर अत्यंत तेजी से चले और उस स्तर तक जा पहुँचे, जहाँ तक लोग नहीं पहुँच पाते।
नेत्रहीनों के लिए शिक्षा में काम आने वाली ब्रेल लिपि फ्राँस के 15 वर्षीय बालक लुइस ब्रेल ने आविष्कृत की थी। पाकिस्तानी बालक मुश्ताक मुहम्मद ने 12 वर्ष की आयु में क्रिकेट खिलाड़ियों में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर ली थी। खेल जगत का ही बोरिस वेकर (टेनिस) का एक और उदाहरण है। वैज्ञानिक जगत के यशस्वी, अलबर्ट आइन्स्टीन ने 16 वर्ष की आयु में सापेक्षिकता के सिद्धांत पर एक लेख था। बाद में वे उसी अन्वेषण में लगे रहे और एक अन्य भौतिक के विषय पर नोबुल पुरस्कार प्राप्त कर सके। आस्ट्रेलिया के एक कबीले में जन्मी आदिवासी किशोरी ईवान गुलगांस ने संसार के मूर्धन्य टेनिस खिलाड़ियों में अपना स्थान प्राप्त किया था। फ्राँस में क्रान्ति का शंखनाद फूंकने और शत्रु पक्ष की जड़ें हिला देने वाली “जोन ऑफ आर्क” जब कार्य क्षेत्र में उतरी तब मात्र 16 वर्ष की थी। 19 वर्ष की उम्र में जो उनने अपने प्राण उन्मार्ग कर दिये थे। ईसाई जगत में पोप पन्थियों के गुरुडम की नींव हिला देने वाली क्राँति की आग भड़का देने वाले पादरी मार्टिन लूथर जब कार्य क्षेत्र में उतरे तब वे मात्र 20 साल के थे।
अंग्रेज वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन ने जब विकासवाद के अपने अनुपम सिद्धांतों का प्रतिपादन किया तो संसार के बुद्धिजीवी आश्चर्यचकित रह गये। तब वे मात्र किशोर अवस्था को पार करके युवक वर्ग में पहला चरण ही रख पाये थे। इतना ही नहीं उन्होंने प्राणि जगत सम्बन्धी खोजों के सिलसिले में 25 वर्ष तक संसार भर में भ्रमण किया और खोजपूर्ण ग्रन्थ “दि औरिजीन आफ स्पेसीज” लिखा।
अंग्रेजी साहित्य के साहित्यकार चार्ल्स डिकेन्स ने 25 वर्ष की आयु तक इतने ग्रन्थ लिख दिये थे कि वे संसार के माने हुए लेखनी के धनी माने जाने लगे। इंग्लैण्ड के प्रधानमन्त्री विलियम पिट जब उस महत्वपूर्ण पद पर आसीन हुए तब मात्र 24 वर्ष के थे। इशाक पिट मैननेरा वर्ष की आयु में स्टेनोग्राफिक साउण्ड के सम्बन्ध में वैज्ञानिक जगत को चकित कर दिया था। अमेरिका के नीग्रो धावक कार्ल लुईस ने कितने ही स्वर्ण पदक जीते, तब उसकी आयु मात्र 13 वर्ष के थी। इशाक न्यूटन जब 23 वर्ष के थे तभी उनने 342 अपने प्रतिपादनों से वैज्ञानिक जगत को आश्चर्य में डाल दिया था। उनकी खोजें अभूत पूर्व मानी जाती हैं। अमेरिका की अन्धी और गूँगी हेलन केलर ने विकलाँग होते हुए भी अपनी प्रतिभा से सर्वत्र हलचल मचा दी थी। कार्टून फिल्मों के निर्माता वाल्ट डिस्ने जब 22 वर्ष के थे तभी उन्होंने सिनेमा जगत को नई दिशा दी थी।
भारत में ध्रुव, प्रहलाद, लव-कुश, भरत चक्रवर्ती, शंकराचार्य, कबीर, ज्ञानेश्वर, रामतीर्थ, विवेकानन्द आदि छोटी ही आयु में वह कार्य करने लगे थे जो बड़ी आयु वालों के लिए भी सम्भव नहीं होते।
ऐसी विलक्षणताएं जिन बालकों में पाई गई हैं, उनके बारे में यह भी खोजा गया है कि परिस्थितियों ने उन्हें ऊँचा उठाया या अपनी जन्मजात प्रतिभा के सहारे ही वे आश्चर्यजनक प्रगति कर सकने में सफल हुए। इन विशेषताओं के कारण ढूंढ़ने पर पूर्व जन्म की संचित प्रतिभा के अतिरिक्त और कोई कारण ऐसा नहीं दीख पड़ता जिससे उनकी विशिष्टता को साँसारिक किसी प्रयोजन के साथ जोड़ा जा सके।
मनुष्य के मात्र कर्म ही अगले जन्म तक साथ नहीं चलते वरन् विद्या, योग्यता, प्रतिभा भी उनके साथ-साथ चलते हैं।