
शुद्ध पंचांग और दृश्य गणित
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बाजार में अनेक पंचांग बिकते हैं। उनमें से प्रख्यातों की संख्या तीस से अधिक है। इनके गणित में भारी अन्तर भी पाया जाता है। मुद्रण और विनिमय व्यवस्था के कारण जो पंचांग जिस क्षेत्र या समुदाय में बिकने लगता है। उसका प्रचलन प्रचार भी उन्हीं क्षेत्रों में होता है। इन विषमताओं का कारण पंचांग बनाने की वे पद्धतियाँ हैं जो विभिन्न पुरोहितों की पूर्वाग्रहों में सम्मिलित हो गई हैं और जिनकी शुद्धता पर वे सभी एक दूसरे में बढ़कर दावा करते हैं।
जिस प्रकार एक आदर्श कल्पना बहुत दिनों से यह चली आती है कि कई धर्मों को मिलाकर एक मानव धर्म बनाया जाय जो सार्वभौम एवं सर्वमान्य हो, उसी प्रकार गत एक शताब्दी में ज्योतिर्विज्ञान के विद्वानों ने यह भी प्रयत्न किया है कि एक सर्वमान्य पंचांग ऐसा बने जिसकी भारतीय पक्ष में तो सामान्यता हो ही, पर इन दोनों प्रयासों में से एक को भी कहीं कोई सफलता नहीं मिली। खींच-तान की स्थिति ऐसी बनी रही जिसमें होली दिवाली जैसे प्रमुख त्यौहार भी दो हो जाते हैं। रामनवमी और कृष्ण जन्माष्टमी से लेकर एकादशी व्रतों तक के बारे में आगा-पीछा चलता है। पंचांग जगत के लिए यह स्थिति लज्जास्पद है कि उन्हें किस दिन कौन-सा व्रत त्यौहार मनाया जाय, इसकी सही जानकारी न दी जाय और मतभेदों के शिकार लोग अपने को अधिक सही या गलत कहते रहें।
ऐसी दशा में अंग्रेजी कैलेण्डर की मान्यता और प्रामाणिकता बढ़ रही है। दिसम्बर जनवरी में कैलेण्डर बेचने या उपहार देने का प्रचलन है। उसमें अंग्रेजी तारीखों वाला ही कैलेण्डर छपा होता है। कारण उसका एक तो यह है कि उनने धीरे-धीरे अधिकाँशतः मूर्धन्य देशों में मान्यता प्राप्त कर ली है। दूसरे अन्तरिक्ष विद्या के अनुरूप कम्प्यूटरी या रेडियो संपर्क की पद्धति में उसी का प्रयोग होता है। यह ग्रेगोरी पंचांग कहलाता है। अन्तरिक्ष विज्ञान के संदर्भ में जो इन दिनों पर्यवेक्षण किया जाता है वह इसी के आधार पर होता है। क्योंकि उसकी प्रमाणिकता पर अधिक विश्वास किया जाता है।
देश में कुछ पंचांग सूर्य सिद्धान्त के आधार पर बने हैं, कुछ चन्द्र सिद्धान्त के आधार पर। इनमें संक्रान्ति काल गणना को प्रमुख महत्व दिया जाता है। इस्लामी मान्यता में जिस चंद्र पंचांग का प्रयोग होता है, वह अपने ढंग का अनोखा है। चन्द्र दर्शन के साथ उसका आरम्भ होता है। पर उसमें भी यह निश्चित नहीं रहता कि अमुक दिन निश्चय ही चन्द्र दर्शन होगा। बहुत बार उसमें एक दिन का अन्तर पड़ जाता है।
काल गणना में कई वस्तुएँ ऐसी हैं जो अपना महत्व रखती हैं। पृथ्वी अपनी धुरी पर जितने समय में घूमती है उससे दिन-रात बनते हैं। उसका परिभ्रमण उपक्रम कुछ ऐसा है जिसमें ऋतुओं के अनुरूप दिन-रात की लम्बाई में अन्तर पड़ता रहता है। चन्द्रमा की घटती बढ़ती कलाएँ भी समय का बोध कराती हैं एवं तिथियों की जानकारी देती हैं।
सूर्य की अपनी कक्षा पर परिभ्रमण और उसके कारण पृथ्वी का उसके समीप या दूर पहुँचना ऋतु परिवर्तन का कारण है। शीत, ग्रीष्म और वर्षा का यह परिवर्तन आधार है।
सौर मण्डल के परिभ्रमण क्षेत्र को 28 भागों में बाँटा गया है। यही नक्षत्र हैं। यों नक्षत्र ब्रह्मांड स्थित ग्रहों सूर्यों को भी कहते हैं। पर जहाँ तक पंचांगों की काल गणना का सम्बन्ध है, वहाँ तक सौर मण्डल के परिभ्रमण क्षेत्र को ही नक्षत्र कहते और उसी आधार पर वे स्पष्टीकरण करते हैं कि अमुक समय अमुक सौर मण्डलीय ग्रह या उपग्रह किस स्थान पर था।
तिथि, वार और नक्षत्रों का सम्बन्ध सूर्य चन्द्र और पृथ्वी से सम्बन्धित है, पर पंचांगों में उल्लिखित योगों और कारणों के बारे में कोई सन्तोषजनक आधार अभी तक नहीं मिला है। संक्रान्ति से, अमावस्या से, पूर्णिमा से आरम्भ होने वाले महीनों के आधार पर अलग-अलग पंचांग बनते और जहाँ जिनका प्रचलन चला आया है, वहाँ उनको मान मिलता है। यों पूर्वार्त्त और पाश्चात्य मान्यताओं के सम्मिश्रण से एक राष्ट्रीय पंचांग भी छपता है पर उनकी बिक्री एवं मान्यता नगण्य ही है।
पंचांगों में महीनों का मान समान नहीं पाया जाता। पूरे तीस दिनों का महीना किसी ने भी नहीं माना है। महीने का मान 2903055 दिनों से लेकर 2908125 दिनों तक बदलता रहता है। इस अस्थिरता का एक मध्यवर्ती मार्ग 29,05306 सौर दिनों का मध्यवर्ती वर्ष माना गया है। पर यह भी पूर्ण नहीं है गणित की कोई पद्धति अभी तक ऐसी नहीं निकाली जा सकी है जो घण्टा, मिनट या घड़ी-पल के हिसाब से वर्ष का कोई सुनिश्चित मापदण्ड स्थिर कर सके। इसलिए भारतीय पंचांग मास वृद्धि या मास क्षय का बीच-बीच से ऐसा जोड़-तोड़ लगाते रहते हैं ताकि अन्तर की खाई को कम चौड़ा किया जा सके। पाश्चात्य पद्धति महीने को 30 या 31 का कर देते हैं। किसी को 28 या 29 दिन का बना देते हैं। यह सब इसलिए करना पड़ता है कि पंचांग बनाने के लिए जो गणित पद्धतियाँ बनानी पड़ती हैं। उनमें से किसी को पूर्व या सुनिश्चित नहीं कहा जा सकता है। सभी अनुमान के लगभग हैं और पूरी तरह न मिलने पर आधी से काम चलाने की नीति के अनुसार काम चलाना पड़ता है।
सॉयन और विरचन पंचांग पद्धतियों को अपनाने पर विवाद सहज ही गहरा हो जाता है। वह मुद्दतों से चला आता है और अभी तक नियन्त्रण में नहीं आया।
वस्तुतः कालचक्र का विभाजन इस तथ्य को ध्यान में रखकर किया गया है कि सौर परिवार के सभी ग्रह नियत अवधि में सूर्य की परिक्रमा करके अपने स्थान पर आ जाते हैं पर बात ऐसी है नहीं। अपना सूर्य अपने पुत्र-पौत्रों की मण्डली को साथ लेकर एक महासूर्य की परिक्रमा भी करता है। उसके अपने ग्रह-उपग्रह भी साथ में खिंचे चले आते हैं और उस महासूर्य की पदयात्रा में अपनी-अपनी परिधि को पकड़े हुए आगे बढ़ते रहते हैं। बात इतने पर ही समाप्त नहीं हो जाती वरन् वह महासूर्य भी अति सूर्य की ओर दौड़ता है। इस प्रकार ब्रह्मांड इतना बड़ा है कि उसकी अनन्त परिक्रमा को करते हुए कोई भी ग्रह कदाचित् सृष्टि के अन्त तक ही अपने पूर्व स्थान पर लौटकर आता हो। इस सृष्टि से निखिल ब्रह्मांड में कौन ग्रह कब कहाँ होगा? इसका निश्चय करने का एकमात्र उपाय यही है कि विनिर्मित वेधशालाओं के माध्यम से ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति को हर समय परखते और जो अन्तर पड़ता जाता है, उसका परिशोधन करते रहा जाय।
पंचांग बनते हैं, वे किसी नगर विशेष की पलभा को ध्यान में रखते हुए उस आधार पर गणित करने के बाद बनते हैं, जबकि होना यह चाहिए कि जन्मकुण्डली बनाते समय अपने स्थान की पलभा स्वयं निकाली जाय और उसके आधार पर स्थानीय पंचांग स्वयं बनाया जाय।
कलकत्ता की पलभा पर बने हुए पंचांग में बम्बई की पलभा देखते हुए प्रायः आधे घण्टे का अन्तर रहेगा। ऐसी दशा में शुद्ध कुण्डली का बन सकना सम्भव नहीं। शुद्ध तब बने जब ग्रहों की स्थिति को प्रामाणिक वेधशाला के सहारे जानकर वस्तुस्थिति को समझा जाय। जिन दिनों ज्योतिर्विज्ञान का सही स्वरूप स्पष्ट था, उन दिनों वेधशालाओं को बनाने और उनका उपयोग करने का विधान समझने का भी कष्ट किया जाता था। पर अब तो सब धान बाईस पंसेरी के भाव बिक रहे हैं और नकल-टीप करके उत्तीर्ण होने और तीस मारखाँ बनने का घमासान चल रहा है।
इन परिस्थितियों को देखते हुए, समय की आवश्यकता को समझते हुए शान्ति-कुँज हरिद्वार में एक प्रामाणिक वेधशाला बनाई गई है और उसे माध्यम मानकर ब्रह्मवर्चस् दृश्य गणित पंचांग को कई वर्षों से प्रकाशित किया जा रहा है।