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Magazine - Year 1986 - Version 2

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धर्म-धारणा का शाश्वत, अपरिवर्तनशील स्वरूप

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संसार में धर्म सम्प्रदाय अनेक हैं। यों मूल धर्म एक ही है जिसे न्याय, विवेक, संयम, स्नेह आदि सदाशयताओं का सम्मिश्रण कहा जा सकता है। विभिन्न धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों में भी इनका प्रतिपादन है फिर बहुत सम्प्रदाय धर्मों की आवश्यकता क्यों पड़ी? यदि पड़ी तो क्या वह उचित थी? और यदि उचित थी तो क्या वह औचित्य सदा सर्वदा बना भी रहेगा।

पुरातत्व वेत्ताओं का कथन है कि आदिम काल के मनुष्य में जब बुद्धि का विकास हुआ तो उसने अन्य प्राणियों की तरह यह नहीं माना कि जो कुछ चल रहा है सो ठीक है। वही नियति है। उसी का अनुसरण करते हुए समय काटना है। वरन् उसे प्रकृति की विचित्रताओं को देखते हुए यह सोचना पड़ा कि व्यक्ति विशेष की परिस्थितियों में अन्तर होने का कोई अदृश्य कारण होना चाहिए। समय-समय पर बदलती हुई परिस्थितियों ने भी यह सोचने को बाधित किया कि कोई शक्ति ऐसी है जो समस्वरता का उल्लंघन करके उथल-पुथल उत्पन्न करती रहती है। ऐसी परिस्थितियों का आवागमन होता रहता है जो न तो स्वयं किसी निश्चित नियम पर चलती हैं और न सब मनुष्यों के प्राणियों के साथ एक जैसा व्यवहार करती हैं। उन दिनों यह सोचने का अवकाश नहीं था कि प्रकृति की संरचना ही गतिशील है। वह न स्वयं स्थिर रहती है और न किसी को स्थिर रहने देती है। प्रकृति और परमेश्वर का भेद भी उन दिनों उभर कर ऊपर नहीं आया था।

बौद्धिक विकास के प्रथम चरण में परिस्थितियों पर दृष्टिपात करते हुए मनुष्य ने सोचा कि विभिन्न परिस्थितियों को सम्भालने या बिगाड़ने वाली कोई अनेकानेक सत्ता है। जैसे अपने-अपने क्षेत्र में शासक राज्य करते हैं अथवा सेना के सेनाध्यक्ष, विभागों के अधिकारी अपने सीमा क्षेत्र में इच्छानुसार योजनाएँ बनाते बिगाड़ते रहते हैं, उसी प्रकार ऐसा ही अदृश्य क्षेत्र में, सूक्ष्म जगत में भी चलता है। कोई विचारवान शक्तियाँ संसार, में इच्छानुसार परिस्थितियाँ उत्पन्न करती हैं। उनके भी प्रियपात्र, कुछ उपेक्षित और कुछ प्रतिकूल होते हैं। इसी आधार पर किसी को किसी अवसर पर लाभ मिलता है तो किसी को किसी प्रयोजन में हानि उठानी पड़ती है।

यह अनुमान बढ़ता भी गया और परिपक्व भी होता गया। देववाद की यही उत्पत्ति है। उनका कोप हटाने और अनुग्रह हथियाने के लिए समझा गया कि उन्हें अपने पक्ष में लिया जाय। उनमें से कुछ का पल्ला पकड़ा जाय। मनौतियाँ मनाने और उसके लिए सहमत करने के लिए पूजा उपचार के द्वारा अनुकम्पा प्राप्त करने की बात सूझी और उस संदर्भ में विचार करते-करते एक समूचा ताना-बाना बुन गया। उसमें पूजा प्रमुख थी। न्याय की दलील देने जैसी कोई गुंजाइश नहीं समझी गई। क्योंकि तब “सामर्थ्य” को नहिं दोष गुसाईं” की मान्यता ने अपना स्थान सृष्टि व्यवस्था के रूप में बना लिया था। जब राजा ईश्वर के प्रतिनिधि बन गये और उनके निर्णय पत्थर की लकीर बन गये तो देवताओं के सम्बन्ध में ऐसी मान्यता बनाने में क्या अड़चन थी। मनुष्यों में सिद्ध पुरुष और देवताओं में पितर, यक्ष, आदि की अनेकानेक श्रेणियाँ विकसित कर लेना मनुष्य की उर्वर बुद्धि के लिए क्या कठिन था? मनुष्य का चित्त जादू का पिटारा है। कल्पना की वैसी ही उड़ानें उड़ना उसके बाँये हाथ का खेल है। अपने सम्बन्ध में ही नहीं, देवताओं की आकृति-प्रकृति, इच्छा, अनुकम्पा तथा प्रतिकूलता की विवेचना करने वाला एक समूचा शास्त्र विनिर्मित कर लेना, उसके बुद्धि कौशल का ही चमत्कार है।

मान्यताएँ आरम्भिक स्थिति में संदिग्ध होती हैं। उनकी यथार्थता के सम्बन्ध में संकल्प, विकल्प, और सम्भव असम्भव की बात भी उठती रहती है। पक्ष प्रतिपक्ष का विरोध, समर्थन भी चलता रहता है। किन्तु मान्यताएँ जितनी पुरानी होती हैं, प्रथा परम्पराएँ बन जाती हैं और उन्हें अपनाये रहने वाले के लिए सत्य स्तर की बन जाती हैं।

आगे चलकर इस संदर्भ में यह निर्धारण होता चला गया कि चिन्तन, चरित्र, व्यवहार- प्रथा प्रचलन के संदर्भ में किस देवता को क्या पसन्द है और क्या नापसन्द। अपने भक्तों को कुछ भी करने की छूट मिली और साथ ही यह आश्वासन उपलब्ध हुआ कि विपक्षी के प्रति चाहे जैसा दुर्व्यवहार किया जाय अपने द्वारा समर्पित देवता उसका हिमायत करेगा। मनौतियाँ मनाने में दोनों ही तथ्य सम्मिलित हुए अपने प्रति अभीष्ट मनोकामनाओं की पूर्ति और जिसके साथ अपना द्वेष है उनके प्रति कुछ भी करने की मनमाने उत्पीड़न की छूट। कहीं-कहीं तो ऐसा भी सोचा गया कि देवता के नाम पर कुछ भी कर गुजरने से मनुष्य पाप का भागी नहीं बनता या उसे लोक परलोक में किसी प्रकार का दण्ड नहीं मिलता। तथाकथित धर्मशास्त्रों की विविधता में यही सब भरा पड़ा है।

आदिमकाल की देव मान्यता और उसके साथ जुड़ी हुई धर्म परम्परा इसी प्रकार के प्रतिपादनों से भरी पड़ी है। अपने-अपने देवता, अपने-अपने ग्रन्थ, अपने-अपने पूजा-पाठ के साथ-साथ अपने पराये का भाव भी बढ़ा। इसमें नीति अनीति को बाधक नहीं माना गया। जो जिस सम्प्रदाय का, देवता का अनुयायी है वह अपना और जिसकी मान्यताएँ भिन्न हैं, वह पराया। आमतौर से यही माना जाने लगा।

मानवी विवेक की इसके आगे की अगली सीढ़ी आती है। उसमें मनुष्य मात्र की एकता और समता का वेध हुआ। न्याय सबके लिए मौलिक अधिकारों में सम्मिलित हुआ। सद्भावना, सहकारिता और उदारता जैसे सद्गुणों के सम्बन्ध में कहा गया कि वे सर्वत्र समान रूप से व्यवहृत होने चाहिए। किसी वर्ग या व्यक्ति का शोषण उत्पीड़न नहीं होना चाहिए। मिल-जुलकर रहने और मिल-बाँटकर खाने की नीति अपनाई जानी चाहिए। यह विवेकशीलता के नवयुग का प्रतिपादन है।

आदिमकालीन तथा मध्यकालीन मान्यताओं, प्रचलनों और मनौतियों का जब यथार्थता की कसौटी पर विश्लेषण हुआ तो समझा गया कि बहुत समय अन्धविश्वासों और मूढ़ मान्यताओं में निकल गया। धर्म सदाचरण एवं सज्जनता के साथ जुड़ा होना चाहिए और ईश्वर की दृष्टि से सज्जनता तथा सद्भावना का मूल्य होना चाहिए। इसी आधार पर उसकी प्रसन्नता, अप्रसन्नता भी होनी चाहिए।

इस विवेक की कसौटी पर खरी सिद्ध होने वाली मान्यताओं को धर्म धारणा कहा जाना चाहिए और जहाँ उपहार या मनुहार के बल पर दैवी अनुग्रह की धारणा है उसे अमान्य ठहराया जाना चाहिए। इसलिए विवेक का नवयुग के सम्बन्ध में उद्घोष है कि पक्षपात एवं आक्रोश पर आधारित सम्प्रदायों का समापन एवं न्याय पर विवेक का उद्भव होने का ठीक यही समय है।

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