
महानता के प्रति समर्पण
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समर्थों का स्नेह-सान्निध्य या अनुग्रह उपलब्ध होने पर छोटों को, असमर्थों को लाभ-ही-लाभ रहता है। टिटहरी को समुद्र से अण्डे वापस लौटाने में यदि अगस्त्य मुनि का सहयोग न मिलता, तो जन्म भर समुद्र में चोंच भर कर बालू डालते रहने पर भी कृतकार्य न हो पाती। चन्दन वृक्ष के निकट उगे हुए झाड़-झंखाड़ भी सुगन्धित हो जाते हैं। निजी प्रयत्न से कदाचित हो कोई उस प्रकार के लाभ से लाभान्वित हो पाता है।
स्वाति बूँदों की वर्षा से सीप में मोती, केले में कपूर, बाँस में बंशलोचन उत्पन्न हो जाने की उपलब्धियाँ हाथ लगती है। वैसा सुयोग न मिले, तो वे बेचारे यथा स्थिति में ही पड़े रहते हैं।
बेल जमीन पर फैल सकती है, क्योंकि उसकी कमर पतली होती है, किन्तु यदि उसे किसी पेड़ से लिपट जाने का अवसर मिल जाय, तो उतनी ऊंची उठ जाती है, जितना कि पेड़ ऊँचा होता है। बच्चे के हाथ में अपनी डोर थमा देने पर दस पैसे मूल्य वाली पतंग आकाश में बिहार करने लगती है। बाँस की पतली नली जब किसी वादक के हाथ लग लेती है, तो उसका सुन्दर स्वर असंख्यों का मन मोहता है, अन्यथा पतले बाँस का क्या उपयोग। उसकी निजी हैसियत कूड़ा ढोने की टोकरी बनने जितनी ही होती है। लकड़ी के तख्ते जब बढ़ई के हाथों नाव बनते और माँझी के द्वारा चलाये जाते हैं, तो वे नाव बनकर अथाह जलराशि पर तैरते और अपनी पीठ पर बिठा कर अनेकों को आये दिन इधर से उधर पार लगाते हैं। फूल खेत में खड़े रहते, सूखने पर मुरझा कर जमीन पर आ गिरते हैं, किन्तु यदि उन्हें माली का संयोग मिल जाय, तो गुलदस्ते के रूप में सज कर मेज पर बैठ सकते हैं एवं भगवान के गले का हार बन सकते हैं। संगति की महिमा ऐसी ही है। सान्निध्य का चमत्कार जितना समझा जा सके उतना ही कम है।
कोयले की दुकान पर बैठने से पकड़े काले होते हैं। काजल की कोठरी में घूमने पर कहीं-न-कहीं दाग लगता ही है, किन्तु इत्र बेचने वाले की दुकान पर जा बैठने पर नाक को सुगन्ध मिलती ही है, कपड़ों तक पर वैसी गन्ध आ जाती है। शराब का लेबल लगी शीशी में गंगाजल भरा होने पर भी उसे शराब माना जाता है, किन्तु गंगा जली के निमित्त बनने वाली विशेष प्रकार की शीशी में शराब भरी होने पर भी लोगों की दृष्टि में वह गंगाजल ही समझी जाती है।
कलार की दुकान पर बैठने वाले शराबी माने जाते हैं और वेश्या के घर से निकला हुआ पकड़ा सीने वाला दर्जी भी व्यभिचारी समझा जाता है, किन्तु देवालय में चटाई बिछाकर बैठे हुए भक्त माने जाते हैं और लाइब्रेरी में बैठने वाले अध्ययनशील।
नाले का पानी जब नदी में मिल जाता है, तो उसकी गन्दगी तिरोहित हो जाती है और पवित्र जल में उसकी गणना होती है। हिंस्र पशुओं के वन-क्षेत्र में भ्रमण करने वालों पर मरण का भय ही चढ़ा रहता है, पर भेड़ पालने वाले दूध, बच्चे और ऊन का लाभ उठाते हैं। यह संपर्क का ही लाभ है और भय है।
भगवान राम के सहायक होकर गिलहरी अजर अमर हो गई, केबट, शबरी और अहिल्या को शिला का उद्धार हो गया, नल-नील के पत्थर तैरने लगे और हनुमान पर्वत उखाड़ने, समुद्र लाँघने में समर्थ हो गये। यह संयोग न मिला होता, तो वे बेचारी पिछली गई गुजरी स्थिति में ही बने रहते। सुग्रीव को अपना खोया हुआ राज्य कैसे वापस मिलता और विभीषण को सिंहासनारूढ़ होने का अवसर कहाँ मिलता?
मेनका के संपर्क में विश्वामित्र बदनाम हो गये, शकुन्तला कन्व ऋषि के आश्रम में पलने पर चक्रवर्ती भरत की माता बनी। सीता रावण की, अशोक वाटिका में रहने भर से बदनाम हो गई। अग्नि परीक्षा दे दी, फिर भी धोबी द्वारा लाँछित की गई और इतने पर भी गृहत्याग को विवश की गईं, किन्तु जब वे वाल्मीकि के आश्रम में रहीं, तो न केवल वे स्वयं तपस्विनी बनी, वरन् अपने दोनों पुत्रों को भी इतना समर्थ बनाने में समर्थ हुईं जितना वे अयोध्या में रहकर कदाचित् ही बन पाते।
पाण्डव अपने दुर्गुणों से राज्यपाट और द्रौपदी जुए में हार गये थे, वनवास में मारे-मारे फिरते थे, किन्तु कृष्ण का सहयोग मिल जाने से महाभारत जीत सके और चक्रवर्ती शासक बन सके। रीछ कन्या जाम्वती और टेढ़े-मेढ़े-कुबड़े शरीर वाली कुब्जा कृष्ण पत्नी बनी। इसे सहयोग-समर्थन प्राप्त कर लेने के अतिरिक्त और क्या कहा जाय।
कालिदास के तोता-मैना संस्कृत में भाषण करते थे। दूसरी और “एक चन्दन पूजा में राखत एक घर वधिक परयौ” वाली उक्ति चरितार्थ होती भी देखी गई है। नारद के क्षणिक सान्निध्य-परामर्श से ध्रुव, प्रहलाद, वाल्मीकि, पार्वती, सावित्री आदि का स्तर कितना बदल गया। अम्बपाली, अंगुलिमाल, अशोक आदि को बुद्ध की समीपता ने काया-कल्प जैसी स्थिति में बदल दिया। दत्तात्रेय का कुत्ता और शिव जी का बैल पशु होते हुए भी देवताओं की श्रेणी में गिने गये।
निर्धन और अशिक्षित लड़की किसी सम्पन्न के साथ विवाह होने पर दूसरे ही दिन लाख-करोड़ की मालकिन बन जाती है। ऋषि पत्नियाँ उतनी तपस्वी और विद्वान न थीं, तो भी अपने पतियों की गरिमा के अनुरूप जगतवंद्य और परम सम्मानास्पद बनीं।
समर्थ के बिना शिवाजी क्या रह जाते। चाणक्य से विलग रहकर चंद्रगुप्त की क्या हैसियत रहती। परमहंस के बिना विवेकानन्द और विरजानन्द के बिना दयानन्द वह न बन पाते, जो बन गये। गाँधी से पृथक विनोबा की कितनी गरिमा रह जाती।
पारस छूकर लोहे का सोना बन जाने की बात प्रसिद्ध है। अमृत पीकर प्राणी अजर-अमर हो जाते हैं। कामधेनु का दूध पीने वाला कभी वृद्ध नहीं होता। कल्पवृक्ष की छाया में बैठने वाले आप्त काम बनते हैं।
संगति की महिमा अपार हैं। यदि आत्मा को परमात्मा का सान्निध्य मिलता है और वह उसी में समर्पित हो जाता है, तो आग के संपर्क में आते ही ईंधन में जिस प्रकार की ऊर्जा का आविर्भाव होता है, वैसी ही स्थिति जीव की, ब्रह्म के साथ मिलने पर हो जाती है। पानी जब दूध में मिल जाता है, तो दोनों एक भाव बिकते हैं। महामानवों के संपर्क में आते ही क्षुद्रता हटती और महानता की गरिमा सिर पर आ विराजती है। राजा के अर्दली की भी अपनी शान और इज्जत होती है। इसमें व्यक्तिगत प्रभाव कम और महानता के साथ जुड़ जाने की महिमा अधिक है। पृथ्वी को सूर्य का संतुलित अनुदान मिला और वह इतनी सुन्दर-सम्पन्न बन गयी, जितनी कि परिचित ग्रह-मण्डल में से किसी की भी वरिष्ठता नहीं दीखती। चन्द्रमा दूर होते हुए भी समुद्र में ज्वार-भाटे उठाता और अंधेरी रात को प्रकाशवान बनाता रहता है। यह महानता की गरिमा है, जो अपने संपर्क में आने वाले को अनायास ही प्रभावित करती है।
इस संसार में अनेक सुयोग और सौभाग्य हैं। उनके अपने-अपने लाभ एवं अनुदान भी हैं, पर श्रेष्ठता के साथ गुँथ जाने की महिमा अपनी है। उसकी तुलना में और कोई सौभाग्य नहीं हो सकता। हम अपनी पात्रता इतनी विकसित करें, कि सर्व सम्पन्न प्रभु के साथ अपनी तादात्म्यता स्थापित कर सकें, तो समझना चाहिए कि भाग्योदय हुआ और वह मिला जिसको भूरि-भूरि सराहा जा सके।