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Magazine - Year 1986 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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नाम जप की साधना

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First 19 21 Last
पुनरावृत्ति से मस्तिष्क एक विशेष ढाँचे में ढलता है। जिस क्रिया को बार-बार किया जाता है वह आदत में सम्मिलित हो जाती है। जो पढ़ा, सुना, बोला या समझा जाता है वह भी मस्तिष्क में अपना एक विशिष्ट स्थान बना लेता है। मानसिक संरचना ऐसी है, जिसमें कोई बात गहराई तक जमाने के लिए उसकी पुनरावृत्ति का अभ्यास करना होता है।

बच्चों को वर्णमाला के अक्षर और गिनती के अंक कण्ठाग्र करने पड़ते हैं। बार-बार दुहराने से ही यह प्रयोजन पूरा होता है। आगे चलकर भी विद्यार्थी को अपने पाठ रटने भी न पड़ें तो उन्हें कई बार पढ़ना अवश्य पड़ता है। परीक्षा में कुछ समय पिछले पढ़े हुये को याद करने के लिये कुछ दिनों का अवकाश मिलता है। उन दिनों शिक्षार्थी पिछले पढ़े हुए को बार-बार दुहराते हैं ताकि स्मृति में से कोई बात उतर गई हो तो पुनः स्मरण हो आये।

उपासना प्रसंग में जप का महत्वपूर्ण स्थान है। उसे सभी धर्म सम्प्रदायों में भक्ति प्रयोजन के लिये प्रमुख स्थान दिया गया है। मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, पारसी आदि सभी धर्मों के सन्तों के हाथ में, गले में, कमरे में माला लटकती देखी गई है। वे उसका उपयोग नाम जप के लिये करते भी हैं।

माला की महत्ता देखते हुये उसे सुसम्पन्नों ने आभूषणों तक का रूप दे डाला है। राजा, सेठ तथा उनकी पत्नियाँ मणि-मुक्तकों की विशेष सज्जा के साथ गूँथी हुई मालायें पहनती हैं। साधारण और गरीब हालत की महिलायें भी बाजार से सस्ते दाम की माला खरीद लाती हैं और उन्हें चावपूर्वक पहनती हैं। आभूषण रूप तक में बदल जाने से प्रतीत होता है कि कभी उसका कितना मान-सम्मान रहा होगा।

नाम जप के साथ माला की संगति सामयिक आवश्यकता के अनुरूप बिठाई गई है। कारण कि जप प्रयोजन को नियत समय पर, नियत संख्या में किया जाना चाहिये। इससे मन उस पर समय का अभ्यस्त बन जाता है और उसी कार्य के होने की प्रतीक्षा करता रहता है। शौच एवं भोजन के अपने-अपने समय हैं। नींद के भी समय पर सोने, उठने, खाने नहाने की आदत कुछ समय में इतनी परिपक्व हो जाती है कि उसके किये बिना चैन ही नहीं पड़ता है। बार-बार उस प्रयोजन का स्मरण आता है। इतना ही नहीं यह भी स्वभाव बन जाता है कि कोई काम कितनी देर किया जाय। खेलने का निर्धारित समय पूरा होते ही चलने को मन करता है। बच्चे तो छुट्टी की प्रतीक्षा में आधा घण्टा पहले से ही बस्ता बाँधने लगते हैं।

मन का ऐसा ही क्रम है। समय पर नियति अवधि तक काम सही प्रकार से बन पड़ता है। आगे-पीछे तो वह काम बेगार भुगतने जैसा हो जाता है।

जप प्रक्रिया जितनी संख्या में जितने समय चलानी हो उसका पूर्ण निर्धारण एवं संकल्प होना चाहिये। तभी मन उस कृत्य में ठीक तरह लगा रहेगा। अन्यथा उसकी उछल-कूद आरम्भ हो जायेगी।

प्राचीनकाल में घड़ियाँ नहीं थीं। इसीलिये जप की अवधि एवं संख्या का अनुमान लगाने के लिये माला की आवश्यकता पड़ती थी। उसी के आधार पर पता चलता था कि जप की संख्या एवं अवधि पूरी हुई कि नहीं। माला एक प्रकार से हाथ में घुमाकर चलाई जाने वाली घड़ी है। अब यह कार्य टाइम पीस से ही हो सकता है और छुट्टी का अलार्म भी बज सकता है। किन्तु पुरातन परम्परा अब इतने अभ्यास में आ गई है कि उसे जप का एक अंश ही माना जाने लगा है। इसमें कुछ हर्ज भी नहीं। साधक को परम्परा निर्वाह का सन्तोष ही होता है।

जप किसका किया जाय? इसका एक ही उत्तर है कि परमात्मा का। उसी की प्राप्ति जीवन का लक्ष्य है। आत्मा को परमात्मा की प्राप्ति जब तक नहीं होती तब तक पति के वियोग में पत्नी की जो मनोदशा होती है, वही आत्मा की रहती है। प्यास जितनी तीव्र होती है, मिलन की सम्भावना उसी अनुपात में निकट आती है। एक ओर की बेचैनी दूसरे पक्ष को प्रभावित किये बिना भी नहीं रहती। यह भी एक प्रकार का टेलीफोन या रेडियो है जो निर्धारित लक्ष्य तक पहुँच कर रहता है। प्रेमिका की तिलमिलाहट प्रेमी को भी बेचैन करती है। जप को, नाम स्मरण को प्रेम प्रदर्शन का- लगन का एक अंग माना गया है। किसी को बुलाना होता है तो उसे नाम लेकर जोर से पुकारते हैं, जोर से इसलिये, क्योंकि मनुष्यों की श्रवण शक्ति सीमित होती है। पर परमात्मा के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है, वह धीमी आवाज भी यहाँ तक कि मानसिक जप स्मरण को भी सुन लेता है। वह अपने ही अन्तराल में विराजमान जो है।

पुनरावृत्ति हमेशा अधिक ही प्रभावशाली होती है। कपड़े धोने में उन्हें बार-बार फीचना पड़ता है। स्नान में भी रगड़ाई करनी पड़ती है। दाँतों को ब्रुश से घिसा जाता है। आटा पीसने की चक्की तथा तेल निकालने के कोल्हू में भी एक ही क्रिया का चक्रगति से प्रयोग चलता रहता है। पत्थर को चिकना करने के लिये घिसना पड़ता है। बहुमूल्य औषधियाँ बनाने के लिये उनकी घुटाई, पिसाई अधिक मात्रा में अधिक देर तक करनी होती है। रस्सी की रगड़ से कुंए की पत्थर जैसी कठोर जगत पर निशान बन जाते हैं। एक ही रास्ते पर पशुओं के चलने से पगडण्डियाँ बन जाती हैं। यह सब नियमित रूप से एक ही क्रम का गतिचक्र घुमाने का क्रम है। मशीनें सभी इसी आधार पर बनती और चलती हैं। उसका प्रभाव भी व्यक्तित्व पर अन्तराल पर ऐसा गहरा पड़ता है कि लक्ष्य के सम्बन्ध में स्मृति अपनी जगह मजबूती से पकड़ लेती है। इतनी की उन्हें उसका एक सुनिश्चित स्थान अचेतन मन में भी बन जाता है। फलतः बिना प्रयास के भी निद्रावस्था में भी जप चलने लगता है। जप में मात्र अक्षरों को दुहराते रहने की क्रिया तक ही सीमित नहीं रहना चाहिये, वरन् उसके साथ भावना भी जुड़नी चाहिए। भावना का आरोपण किसी नाम या रूप के साथ होता है। प्रेमिका जब प्रेमी का स्मरण करती है तो उसके प्रति प्रेम भावना आत्मीयता भी जुड़ी रहती है। यही जप का प्राण है। इष्ट के प्रति अन्यन्य भक्ति भावना होना चाहिये। माता जब बच्चे को पुकारती है तो उसके साथ वात्सल्य भी घुला होता है। छोटा बच्चा जब मम्मी-मम्मी पुकारता है तब उसे कुछ निवेदन नहीं करता होता। मात्र अपना प्रेम प्रदर्शित करता है। जप के साथ भावनाओं का गहरा सम्पुट होना चाहिये। प्रेम और आत्म भाव का इतना सघन समावेश होना चाहिये कि उससे मिलन की, दर्शन की, एकता की आत्मीयता की साथ ही समर्पण की असाधारण उत्कष्ठा हो। यह भावना सम्पुट जितना गहरा होता है, उतना ही नाम स्मरण अपने उद्देश्य की पूर्ति अधिक अच्छी तरह कर पाता है। अन्यथा तोते की तरह शब्द रटने या ग्रामोफोन की तरह शब्दोच्चारण में न भक्त की भावना झंकृत होती है और न भगवान तक वह पुकार-गुहार बन कर इस स्तर की बनती है कि उनका सिंहासन हिला दे। हमारी पुकार द्रौपदी स्तर की होनी चाहिए कि उस पर ध्यान देने और दौड़ आने के लिये विवश होना पड़े।

जप के लिये गायत्री मन्त्र सर्वश्रेष्ठ है। कारण कि उसमें जो शब्द प्रयुक्त हुये हैं उनका इस प्रकार क्रमिक गुँथन हुआ है कि वह स्थूल शरीर में सन्निहित अनेकों शक्ति भण्डारों को चक्र-उपत्यिकाओं को झकझोर कर उन्हें जगाती है और इस प्रकार योगाभ्यास का भी एक महत्वपूर्ण प्रयोजन अनायास सधता रहता है।

उसके शब्दार्थ भी ऐसे हैं जो चिन्तन को एक दिशा देते हैं, और सोचने का महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करते हैं।

तत् वह, सवितु-तेजस्वी गतिशील, वरेण्यं-धारण करने योग्य जीवन क्रम में घुला लेने योग। भर्ग-अवाँछनीयता को भून देने वाला। देवस्य-दिव्य। यह भगवान के चार अति महत्वपूर्ण विशेषण हैं। ऐसे तो भगवान के हजारों नाम और हजारों विशेषण हैं, पर इन चार में तत्वज्ञान का वह सार संक्षेप समाहित है जिसे हृदयंगम कर लेने पर मनुष्य में गतिशीलता उत्कृष्टता की ओर बढ़ चलती है। व्यक्ति इस प्रत्यक्ष को भौतिक में नहीं- परोक्ष को सचेतन को ईश्वर का रूप मानता है। संचार में भला बुरा सब कुछ है, पर वह श्रेष्ठ का ही वरण करता है। सविता के समान तेजस्वी, साहसी, पराक्रमी और कर्मनिष्ठ बनता है। जो अनुचित है, अनीति है, उससे जूझने के लिये अपने शौर्य, पराक्रम को तीक्ष्ण करता है। दिव्यता ही उसे रुचती है। स्वयं देव बनने की उत्कण्ठा से ओत-प्रोत रहता है। विशेषतायें कहने-सुनने भर तक सीमित नहीं रहतीं, वरन् वह उन्हें अपनाता है, धारण करता है। अन्त में उस सर्व समर्थ से प्रार्थना करता है कि मुझे अकेले को नहीं सर्वसाधारण को सद्बुद्धि की ओर चलने की शिक्षा मात्र न दे वरन् प्रेरणा, उत्कण्ठा अभिलाषा जागृत कर दे।

गायत्री मन्त्र के उपरोक्त भावार्थ में वह सब कुछ है जो मनुष्य को सोचना एवं करना चाहिये। इस प्रकार यह मंत्र तत्वज्ञान के अध्यवसाय का सार संक्षेप बन जाता है। जप के साथ-साथ इस अर्थ चिन्तन का समावेश रहने से मनुष्य अपने लिये सर्वश्रेष्ठ दिशाधारा का संकेत उपलब्ध करता है। इतना ही नहीं गायत्री की शब्द शक्ति से चिन्तन और चरित्र को अपने दिव्य प्रवाह के साथ घसीट ले जाता है।

गायत्री का समग्र उच्चारण जो नहीं कर सकते। वे “ओम् भूर्भुवः स्वः” इतना पंचाक्षरी गायत्री मंत्र याद कर सकते हैं। जिन्हें संस्कृत बोलने या समझने में कठिनाई होती है वे “ओम् तत् सत्” जप सकते हैं। जिनके लिये इतना भी कठिन हो वे मात्र “ओम्” का जप भी कर सकते हैं। शास्त्रों के अनुसार सर्व प्रथम “ओम्” था। फिर शब्द ब्रह्म भू भुवः स्व की व्याहृतियों में विकसित हुआ। इसके उपरान्त एक-एक व्याहृति से तीन चरणों वाला गायत्री मन्त्र बना। जिनसे पूरा या अधूरा जैसा भी बन पड़े। गायत्री को आधार मान कर जप की प्रक्रिया चलानी चाहिए।

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