
प्रेम- वह जो प्रतिदान न माँगे
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प्रेम के पारस-पत्थर को छू जाने से मनुष्य दीन-हीन मानव से ऊपर उठकर परमात्मा की तरह उदार हो जाता है। सीमित से अनन्त, बद्ध से मुक्त, ससीम से असीम, दीन से समर्थ, पशु से मनुष्य बनाने वाला प्रेम ही है इसी कारण प्रेम को परमेश्वर माना है। इस प्रेम के अक्षर को जिसने पढ़ समझ लिया वह सन्त कबीर के शब्दों में सचमुच पण्डित हो गया।
ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र का शुभारम्भ क, ख, ग से आरम्भ होता है, पर यदि क, ख, ग को ही ज्ञान-विज्ञान मान लिया जाय तो यह बहुत बड़ी भूल होगी। प्रेम के साथ भी यही स्थिति है। प्रेम की पाठशाला का क, ख, ग, घ परिवार की पाठशाला में पढ़ा जाना आरम्भ होता है। अपनी आवश्यकताओं को कम करके स्त्री बच्चों के लिए साधन सुविधाएँ जुटाने वाला मनुष्य कुछ देना सीखता है। देने का यह क्रमिक विकास ही प्यार का मुख्य आधार है। यह देना ही देना यदि कुछ ही लोगों के प्रति न रहकर जीव मात्र के लिए हो जाता है तब इसे सच्चा प्यार कहा जाता है। ऐसे दाता की फिर कोई अपनी सत्ता रहती ही नहीं वह तो सभी को एकात्म भाव से देखता है। अपने आपको वह सभी प्राणियों में देखता है।
हम अक्षर ज्ञान तक ही सीमित न रह जाएँ। ज्ञान की पिपासा हमें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित न करे तो हम ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जो कुछ पाते हैं वह नगण्य सा होता है। इसी प्रकार प्यार करने के लिये यह देखना कि जिसके लिये मैं कुछ दे रहा हूँ, वह मेरा क्या लगता है। उसके साथ सम्बन्ध खोजना एक गतिरोध है जो हमें गलत दिशा की ओर प्रवृत्त करता है। सच्चा प्रेमी सम्बन्ध का चश्मा चढ़ाकर नहीं देखता। वह तो केवल देना चाहता है, दिये बिना वह रह नहीं सकता।
प्रेम की आरम्भिक अवस्था में तो पशु पक्षी भी जीते हैं यदि यह कहा जाय तो गलत न होगा कि वह मनुष्य की वर्तमान संकुचित वृत्तियों को देखते हुए कहीं अधिक उच्च श्रेणी का प्यार करना जानते हैं। कुत्ता रूखी-सूखी रोटी खाकर, चाहे कहीं पड़ा रहकर रात-दिन स्वामी के घर की रखवाली करता है। गाय को जैसा खिलाओ वैसा खाकर अमृत समान दूध देती है। गधा जरा सा भूसा खाकर रात-दिन बोझा ढोता है। इसी प्रकार के उदाहरण यत्र-तत्र आपको मिल जाएंगे। अपने बच्चों को तो साँप बिच्छू भी प्यार करते हैं वे भी उन्हें नहीं खाते।
मनुष्य जैसे समर्थ प्राणी का प्यार उसकी क्षमता, योग्यता व श्रेष्ठता के अनुरूप ही होना चाहिये। उसे प्रेम के श्रेष्ठतम शिखर पर चढ़ना चाहिये। प्यार में सम्बन्ध नहीं देखे जाते। केवल देना ही देना होता है। विश्व के लिये मोह, ममता और अहंकारजन्य सीमाबद्ध संकीर्णता को त्याग देना ही “उत्कृष्ट प्रेम” है। मेरा बेटा, मेरा भाई, मेरा मित्र मेरा परिचित, मेरा देशवासी इन सीमाओं से ऊपर उठता हुआ मानव एक दिन प्राणी मात्र के सुख में सुख व दुःख में दुःख होने लगेगा। उस दिन समझा जायेगा कि उसने प्रेम रूपी परमेश्वर के दर्शन कर लिये।
प्रेम प्रतिदान माँगें तो वह प्रेम ही कहाँ हुआ? वह तो सौदा हो गया। कुछ देकर लेने की चाह करना तो दुकानदार का काम है एक सच्चे प्रेमी का नहीं।
इस स्थिति में पहुँचने के लिए कोई प्रेम विद्या का विद्यालय है तो वह है लोक मंगल का क्षेत्र। युग की आवश्यकता को देखते हुए जो कुछ अपने पास है उसे धीरे-धीरे उनको देना जिनके पास कुछ भी नहीं है। इस प्रवृत्ति का विकास होते-होते वही अवस्था आ जाती है जिसे प्रेम कहा जा सकता है।