
सत्संग किनका व कैसे?
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मनुष्य एक चुम्बक है जो सशक्त की ओर खिंचता और सम प्रकृति के लोगों को प्रभावित करता और अपनी ओर खींचता है। सत्संग और कुसंग का जादू इसी तथ्य पर आधारित है कि सहधर्मी और सत्कर्मी एक केन्द्र पर इकट्ठे होते हैं और अपनी क्षमताओं को एक दूसरे में वितरण करते हैं।
कथन का प्रभाव सीमित होता है। विशेषतया श्रेष्ठता के प्रशिक्षण में सीमित सफलता मिलती है। दोष और दुर्गुण बिना कहे भी साथियों को प्रभावित कर लेते हैं। पानी का स्वभाव नीचे की ओर बहता है। लोग भी अपनी निज की दुर्बलताओं और दुष्प्रवृत्तियों से घिरे रहते हैं। उन्हें यदि दूसरों का तनिक-सा भी सहयोग मिल जाय तो फिर गति पकड़ते देर नहीं लगती। आवश्यक नहीं कि दुष्कर्मों के लिए कोई तर्क और प्रमाण देकर प्रभावित करे और तब अपने साथ बुराई की दिशा में साथ चलने के लिए प्रोत्साहित करे। यह कार्य अदृश्य रूप से अनायास ही होता रहता है।
श्रेष्ठता की ओर बढ़ने के लिए आवश्यक है कि श्रेष्ठ लोगों से संपर्क साधा जाय और उनकी मनोवृत्तियाँ तथा प्रवृत्तियों को ध्यानपूर्वक देखा जाय। इतने भर से यह विश्वास हो जाता है कि श्रेष्ठता सरल है सुखद और सम्भव भी।
संपर्क साधने के लिए श्रेष्ठ व्यक्ति अपने संपर्क क्षेत्र में न मिले। या समय का अभाव इस प्रयोजन में बाधक हो तो दूसरा सरल तरीका यह है कि महामानवों के साथ भावनात्मक संपर्क जोड़ा जाय। उनके जीवन चरित्रों और कृत्यों को इतनी गहरी श्रद्धा भावना के साथ देखा जाय मानो अपने साथ ही उनका रहना होता है। या हम स्वयं उनके साथ रहते हैं।
स्वाति बूँदें आकाश में रहती हैं और सीप समुद्र तल में। फिर भी गुण धर्म की समानता दोनों के बीच सघन संपर्क बना देती है। चन्दन के पेड़ से समीपवर्ती झाड़-झंखाड़ सटे हुए ही हों यह आवश्यक नहीं। गुणात्मक एकता भी दोनों के बीच एकता बना लेती है और आदान-प्रदान का द्वारा खोलती है। श्रेष्ठता भले ही भूतकालीन या दूरवर्ती हो उसके साथ मनुष्य की अन्तःसत्ता जुड़ सकती है और प्रायः उतना ही प्रभाव छोड़ती है जितना कि सहधर्मी व्यक्ति निकट रहने पर प्राप्त करते हैं।
यह हो सकता है कि सत्संग के लिए श्रेष्ठ पुरुष सदा संपर्क क्षेत्र में न मिल सकें तो उनके सत्ता इतिहास के पृष्ठों पर सदा विद्यमान रहती है और उसे वहाँ से भी अपनी श्रद्धा के माध्यम से आकर्षित किया जा सकता है।
आवश्यक नहीं कि किसी का समूचा जीवन और क्रिया-कलाप सुना समझा जाय और यह भी हो सकता है कि अपनी परिस्थितियों और क्षमताओं के अनुरूप जो कार्य दृष्टिगोचर होते हैं, जीवनियों में से उन्हें विशेष रूप से पढ़ा और समझा जाय। यह आवश्यक नहीं कि हर महामानव की कार्य पद्धति के अनुकरण की बात सोची जाय। इतना समझना भी पर्याप्त है कि उनने अपनी निजी तात्कालिक क्षुद्र स्वार्थों का परित्याग किया। उन सुविधाओं के अभाव में जो कठिनाइयाँ सहनी पड़ीं वे प्रसन्नतापूर्वक उठाईं। साथ ही जनहित के कामों में अपनी सामर्थ्य का बड़े से बड़ा अंश होम दिया, झोंक दिया।
मधु मक्खी अनेक प्रकार के फूलों में से प्राप्त मधु वाला अंश ही संग्रहित करती है। हमें भी मात्र इतना ही करना चाहिए कि जिनके सत्संग का लाभ लेना है उनकी निस्वार्थता, सेवा साधना और उदारता को अपने में धारण करने का प्रयत्न करें।