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Magazine - Year 1987 - Version 2

Media: TEXT
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मनःक्षेत्र के खरपतवार उखाड़ें

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First 26 28 Last
मस्तिष्क का उर्वरता अद्भुत है। झरने उद्गम का तरह उसका प्रवाह अनवरत जारी रहता है। उपजाऊ भूमि में वर्षात् के दिनों निरन्तर खरपतवार उगते रहते हैं। मच्छर मक्खियों का उत्पादन भी ऐसा ही है। उनका प्रजनन एक से अनेक रूप में हर दिन विकसित होता रहता है। मस्तिष्क में उठने वाली विचार तरंगों का भी यही हाल है। कल्पनाएँ हर समय उठती रहती हैं। टिड्डी दल की तरह अपनी गुफा से निकलकर सारे आसमान में छा जाती हैं। विचारों की प्रक्रियाएँ भी ऐसी ही हैं। वह घटाओं की तरह बरसती और फव्वारों की तरह उछलती देखी जाती हैं। दूध के झाग की तरह वे उठतीं और क्षण-क्षण में बैठती रहती हैं।

कब क्या विचार उपज पड़ें इसका कोई ठिकाना नहीं। उर्वरता कुछ न कुछ उगलती ही रहती है। मस्तिष्क बिना कल्पनाएँ किये रह नहीं सकता। बात की बात में विचारों की झड़ी लग जाती है। इनकी श्रृंखला अस्त-व्यस्त तो होती है पर टूटती नहीं। उनका सिलसिला चलता ही रहता है।

किसके मस्तिष्क में किस प्रकार के विचार बहुलता से उठेंगे, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि पूर्व संचित संस्कार कैसे रहे हैं। कोयले की खदान में से कोयला निकलता है और गेरू की खदान में से गेरू। संग्रहित संस्कार एक प्रकार के मिट्टी में दबे हुए बीज हैं जो नमी का मौसम आते ही अंकुरित होने और बढ़ने फैलने लगते हैं।

पुरानी आदतें स्मृतियाँ-रुचियाँ, घटनाएँ, परिस्थितियाँ भूतकालीन हो जाने पर भी अपनी जड़ें हरी रखे रहती हैं। जब भी अनुकूलता होती है, तभी वे पतझड़ के उपरान्त फूटने वाली कोंपलों की तरह नये रूप में प्रकट होती हैं। उनका स्वेच्छाचार देखते ही बनता है। तात्कालिक उस प्रकार की कोई घटना या आवश्यकता न होने पर भी इस प्रकार के विचार उठने लगते हैं जिन्हें सामयिक समस्या के साथ सम्बन्ध रूप में जोड़ सकना कठिन पड़ता है।

खेतों में अपने अपने क्षेत्रों में प्रचलित खरपतवार अनायास ही उगते हैं। मस्तिष्कों में भी ऐसा ही होता है। संस्कार, संगति एवं अभिरुचि के अनुरूप ही विचार उठते हैं। जो रसीला अनुभव आस्वादन होता रहा है। उसकी पुनरावृत्ति करने के लिए मन चलता है, और कल्पनाओं का ज्वार उठता है। दूसरों को जो करते और लाभ उठाते देखा गया है, उसका अनुकरण करने के लिए भी मन करता है। उसी के अनुरूप ताना-बाना बुनता है। निराशा, भय, आशंका, असफलता, विपत्ति आदि की कुकल्पनाएँ ही बहुत उठती रहती है। ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित कई उत्तेजनाएँ मन के सामने योजनाओं का रूप धारण करके आती हैं। आक्रमण प्रतिशोध के लिए कुछ किया जाना चाहिए, ऐसे प्रवंचकों का आधा अधूरा स्वरूप अविकसित रूप में पड़ा रहता है। कुछ को बड़ा आदमी बनने की धुन सवार रहती है। वे जल्दी ही अमीर बनने के लिए अनैतिक आचरणों की योजनाएँ बनाये रहते हैं। उन्हीं स्तरों के घुले मिले विचार आमतौर में मस्तिष्क की परिधि में घूमते रहते हैं।

खरपतवार भूमि की उर्वरता चूसती है और जितनी जगह में जड़ जमा लेती है उतनी में अन्य उपयोगी पौधों को नहीं पनपने देती। कुदरती पौधों की जड़ें मजबूत होती हैं और अपने अस्तित्व बनाये रहने के लिए आवश्यक दृढ़ता भी बनी रहती है। इसलिए बिना बोये भी उनकी सत्ता अधिकाँश धरती को घेरे रहती है। इसमें से कुछेक ही ऐसे होते हैं जो पशुओं के चारे में काम आ जाते हैं। शेष तो कटीले, विषैले होने के कारण जगह घेरने के अतिरिक्त और किसी काम के नहीं। विचारों के संबंध में भी यही बात है, वे सब उत्पादित होने पर हेय स्तर के ही होते हैं। उनकी उपस्थिति चिन्तन को विकृत ही करती रहती है, व्यक्तित्व को अनगढ़ और आचरण को ऐसा जिससे आत्म प्रवंचना एवं लोक भर्त्सना के अतिरिक्त और कुछ हाथ न लगे। यह स्थिति घाटे की है। यह बनी रहे तो मनुष्य को भीतर से खोखला और बाहर से ढकोसला बनाकर छोड़ता है।

चतुर किसान खेत के खरपतवार उखाड़ने के लिए हल जोतता है। जुताई के अन्य तरीके भी अपनाता है, उसकी इच्छा रहती है कि खेत साफ सुथरा रहे। ताकि भूमि में उर्वरता बनी रहे और लाभदायक फसल बोने उगाने के प्रयत्न में सफलता मिले। यही वास्तविकता भी है जो गुड़ाई, निराई नहीं करते उनका बीज भी मारा जाता है और फसल काटने का अवसर भी हाथ नहीं लगता है। कृषि कर्म में एक बीज से सौ दाने उत्पन्न होने का लाभ विवरण सभी को विदित है। किन्तु यह सार्थक तभी होता है जब खेत को खरपतवार से-पौधों में लगने वाले कीड़ों से बचाव की समुचित व्यवस्था बना ली जाय। अन्यथा उस खरपतवार को भी कीड़े-मकोड़े खाते रहते हैं, परिपुष्ट होकर अच्छी फसल पर आक्रमण करते हैं और उस किसान के लिए सब मिलकर सिरदर्द ही बनते हैं। खरपतवार से निबटना ही एक मात्र उपचार किसान के लिए है।

यही रीति-नीति उन सभी बुद्धिमानों को अपनानी पड़ती है, जो अपने बहुमूल्य मस्तिष्क के रूप में बहुमूल्य उपार्जन से लाभान्वित होना चाहते हैं। मनोनिग्रह इसी को कहते हैं। वश में किया हुआ मन मित्र और उच्छृंखल रहने पर उसी शत्रु कहते हैं। शत्रुता को मित्रता में बदलने के लिए सज्जनता और बुद्धिमत्ता को विशाल रूप में प्रयत्न करना पड़ता है। ठीक इसी प्रकार मन को दुष्प्रवृत्तियों दुरभिसंधियों से विरत करने के लिए उसे बहुत तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करते हुए समझाना, बुझाना और भटकाव से विरत करके सही मार्ग पर लाना पड़ता है। यह कार्य कठिन तो है पर असम्भव नहीं। अन्तर्मुखी न होने और बाहरी प्रपंच में उलझे रहने के कारण मन अपनी मलीनता समेत किसी कोने में छिपा बैठा रहता है। उसकी करतूतें सहज ही पकड़ में नहीं आतीं, इसलिए उसे सुधारा कैसे जाय? यह सोचते भी नहीं बन पड़ता।

मन को वश में करना परम पुरुषार्थ माना गया है। उसे हाथी, शेर जैसे विकराल जीवों को वशवर्ती बनाकर उनके माध्यम से अपना गौरव-महिमा एवं उन्हें प्रशिक्षित करके लाभ उठाने का व्यवसाय करना है। वशवर्ती मन को किसी भी उपयोग, चिन्तन एवं प्रयास में लगाया जा सकता है, उससे मनचाहा लाभ उठाया जा सकता है। किन्तु यदि मनःक्षेत्र में अराजकता, अनुशासनहीनता चल रही हो, स्वेच्छाचार का बोल-बाला हो तो किसी उपयोगी योजनाबद्ध कार्य में उसे लगा सकने की संभावना ही नहीं बनती।

विचारों की शक्ति महान है। उसे चेतना की प्रचण्डता कहते हैं, वह जिस भी दिशा में चल पड़ती है, जिस कार्य में भी जुट पड़ती है उसे सफलतापूर्वक पूरा करके ही रहती है। कुविचारों को रोकने का सही तरीका एक ही है कि उनके सामने सद्विचारों की सुनियोजित श्रृंखला हर समय बनी रहे। कुविचार उठते ही उनका प्रबल विरोध किया जाय। उनसे होने वाली हानियों को समझा और समझाया जाय। राजमार्ग पर चलने से लम्बा लक्ष्य भी सरलतापूर्वक पूरा हो जाता है। यह तथ्य यदि हृदयंगम किया जा सकता है तो मन मनाने से भी मान जाता है। वह कुसंग की मलीनता त्यागकर सन्मार्ग के इर्द-गिर्द महकने वाले पुष्पों का रसास्वादन करते हुए आगे बढ़ता है।

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