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Magazine - Year 1987 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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संगीत को शालीनता की दिशा मिले

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भाव संवेदनाओं को तरंगित करने की जितनी क्षमता संगीत में है, उतनी और किसी में नहीं। जिन्हें भाव क्षेत्र की उत्कृष्टता एवं क्षमता का ज्ञान है उन्हें किसी न किसी रूप से संगीत के संपर्क में रहना चाहिए। उसका उत्पादन कर सकना स्वयं ही न बन पड़े तो दूसरों के माध्यम से इस सरसता का रसास्वादन करना चाहिए। यदि रुझान और तलाश हो तो इस उपलब्धि के साथ संपर्क साधना कुछ कठिन नहीं है।

शरीर को भोजन चाहिए। मन को उत्साहवर्धक उपलब्धियाँ। अन्तःकरण जिसे कारण शरीर भी कहते हैं, सरसता के भाव तरंगों में लहराना चाहता है। भक्ति का तत्व ज्ञान इसी आधार पर विनिर्मित विकसित हुआ है। प्रेम का उत्कृष्ट स्तर पर चरितार्थ करने, उसे स्वभाव में सम्मिलित करने से जो उमंगें उठती हैं, उनमें तृप्ति, तुष्टि और शान्ति का समावेश होता है। आत्मीयता को जिस पर भी बखेरा जाता है वही सुन्दर, सरस, परम प्रिय लगने लगता है। सामान्यजन स्त्री, बच्चों में जिस स्तर का स्नेह बखेर पाते हैं उसी अनुपात से उन्हें उलट कर प्रसन्नता भरी संवेदनाओं का अनुभव होता है।

यह तो हुई अन्तराल के गहन उद्गम से उत्पन्न होने वाली भाव संवेदना। इसे हर कोई उत्पन्न नहीं कर सकते। इसे भावुकता सहज संवेदना करुणा और आत्मीयता के सहारे ही उगाया जा सकता है। यह विशेषता किन्हीं-किन्हीं में होती है। जिनमें होती है वे ही भगवद् भक्ति भी कर सकते हैं। अन्यथा नाम स्मरण की तोता रटंत करने और जप की माला घुमाने भर का कर्मकाण्ड चलता रहता है। वह बेगार किसी प्रकार भुगत तो ली जाती है, पर न उससे एकाग्रता होती है और न भाव संवेदना ऐसी दशा में आनन्द की अनुभूति तो होगी ही कैसे? गहन अन्तराल को जिस सरसता की तड़प होती है वह मिले कैसे?

अपनी ओर से प्रेम उगाकर दूसरों को अनुदान रूप में देना अपने हाथ की बात है। पर दूसरों से वह प्रक्रिया आरम्भ हो और वे उक्त आत्मीयता को वास्तविक रूप से पर्याप्त मात्रा में हमें दे सकें, इसकी अपेक्षा नहीं की जा सकती। ऐसा सुयोग तो किसी-किसी को कभी-कभी ही मिलता है। फिर उसके संबंध में यह भी नहीं कहा जा सकता कि स्थिति देर तक वैसी ही बनी रहेगी। भावनाओं का क्षेत्र ऐसा है जिसमें जल्दी-जल्दी उथल पुथल भी होती है। जो बच्चा माता की गोद को क्षण भर के लिए नहीं छोड़ना चाहता था, वही तनिक बड़ा होने पर साथियों के साथ लिपटा रहता है। तनिक और बड़ा होने पर पत्नी पर वह प्यार केन्द्रित हो जाता है। नयापन उतरते ही वह संबंध भी काम चलाऊ भर रह जाते हैं। इसके बाद मन न जाने कहाँ-कहाँ भटकता है और अन्त में मृत्यु की शरण में जाकर जीवन अध्याय की इतिश्री होती है। दूसरे व्यक्ति या पदार्थ अन्तर की प्यास को कुछ क्षण के लिए ही सांत्वना दे पाते हैं। किन्तु संगीत की यह विशेषता है कि उसके साथ जितने समय तक तन्मयता सध सके उतनी देर अन्तःकरण की सरसता की अनुभूति होती रहती है। यों यह बाहर से संजोई हुई होने पर प्रवाह रुकने पर समाप्त भी हो जाती है। पर यदि भीतर से गुन–गुनाने की कला हाथ लग जाय तो अपना अद्भुत संगीत इच्छित समय तक साथ देता रह सकता है, और उल्लास की अनुभूति करता रह सकता है। संगीत चाहे बाहर से उपलब्ध हो रहा हो या भीतर से निकल रहा हो, दोनों ही स्थितियों में अन्तरंग को लहराता है और उसे तरंगित ही नहीं वरन् दिशा विशेष में प्रेरित, प्रोत्साहित भी करता है। इन विशेषताओं को देखते हुए जिन्हें भाव संस्थान में उमंगें उठाने का आनन्द लेना है उन्हें संगीत के साथ संबंध जोड़ना पड़ता है।

देव प्रतिमाओं में वाहन और आयुध ही निर्धारित नहीं होते उनके साथ कोई वाद्य यंत्र और जुड़ा होता है। इससे प्रकट है कि देव सत्ताओं की विशेषताओं की एक महत्वपूर्ण इकाई संगीत है। शिव का डमरू, कृष्ण की बंशी, सरस्वती की वीणा की अवधारणा सर्वविदित है। अन्यान्य देवी देवता भी इस सरसता का सान्निध्य बनाये रहते हैं। उनकी पूजा अर्चा से शंख, घड़ियाल जैसे पुरातन काल के वाद्य यंत्रों का प्रयोग होता ही है। धर्मोत्सवों में ढोल–दमाव, मृदंग, दुँदुभि आदि का सरंजाम जुटाया जाता है। ऋषियों की शास्त्र संरचना में अधिकतर पद्यों का ही प्रयोग हुआ है। यहाँ तक की आयुर्वेद, ज्योतिष जैसे विषयों को भी छन्दबद्ध किया गया है। कथानकों, नाटकों की संरचना भी पद्य शैली में हुई। गद्य का उपयोग तो यत्र-तत्र ही हुआ है। गीत, संगीत, चिर प्राचीनकाल से जीवन की महती आवश्यकताओं में से एक माना जाता रहा है। स्त्रोत्र पाठ में ललित छन्दों की ही भरमार है।

आज के संदर्भ में मनुष्य का शरीर वासनाओं से और मन तृष्णाओं से इतना अधिक भर गया है कि भावना क्षेत्र की उपयोगिता, आवश्यकता और गरिमा समझने तक का अवसर नहीं मिलता। इस क्षेत्र को खोजने, शोधने और विकसित करने की आवश्यकता समझी जाय तो इसका प्रारम्भिक उपचार संगीत संपर्क के रूप में हस्तगत करना होगा। जो गायन, वादन में रुचि ले सके उसका अभ्यास कर सके, उन्हें उसके लिए समय निकालना और प्रयत्न करना चाहिए। जो वैसा न कर सकें उन्हें भाव भरे गीतों को गुनगुनाते रहने की आदत डालनी चाहिए। यह प्रयोजन किसी हद तक दूसरों के उत्पादन से लाभ उठाते हुए भी किसी सीमा तक पूरा किया जा सकता है। इसके लिए गीत-गोष्ठियाँ कारगर हो सकती है। आवश्यक नहीं है स्वयं ही गीत रचे ही जायँ। दूसरों की रचनाएँ गाई सुनी और गुनगुनाई जा सकती हैं। इन दिनों तो यह कार्य टेपरिकार्डर, और रिकार्ड प्लेयर भी किसी हर तक पूरा कर देते हैं। संगीत सम्मेलन भी जहाँ-तहाँ जब तक होते रहते हैं। उनमें सम्मिलित हुआ भी जा सकता है। आरम्भ से ही यह आवश्यक विषय हमारे स्कूली पाठ्यक्रम में संव्याप्त रहे और तरंगित होकर भाव क्षेत्र में प्रवेश पाने का द्वार खुले।

सन्त काल में इस संदर्भ में गहरे तत्व चिन्तन के उपरान्त संकीर्तन की शैली अपनाई गई। अधिकाँश सन्तों ने अपनी भजन मण्डलियाँ गठित की। भक्ति संकीर्तन की पद्धति निर्धारित की। उनका विषय मात्र भक्ति ही नहीं वरन् ज्ञान और कर्म की उत्कृष्टता का समावेश रखना भी था। मीरा, सूर, कबीर, रैदास, नामदेव, तुकाराम, चैतन्य आदि की धर्म प्रचार शैली में संकीर्तन प्रक्रिया को प्रमुखता दी गई थी। उनकी प्रव्रज्या तीर्थ यात्रा कार्य पद्धति में संगीत मण्डली का माहौल भी साथ चलता था। जहाँ भी वह पहुँचते थे अपने उस कार्यक्रम में जनसाधारण को भी सम्मिलित करते थे। इस पद्धति का प्रभाव सामान्य का, उपदेशों की अपेक्षा अनेक गुना हो जाता था। जिन तथ्यों का साधारण भाषण प्रवचनों से हृदयंगम नहीं हो पाता उतना संकीर्तन के साथ भक्ति भावना के साथ-साथ आत्मिक गरिमा को निखारने, उभारने का असाधारण अवसर मिलता है। गरम लोह धातु को पिघलाकर उसे इच्छित दिशा में मोड़ा मरोड़ा और ढाला जा सकता है। संकीर्तन

सन्त काल में इस संदर्भ में गहरे तत्व चिन्तन के उपरान्त संकीर्तन की शैली अपनाई गई। अधिकाँश सन्तों ने अपनी भजन मण्डलियाँ गठित की। भक्ति संकीर्तन की पद्धति निर्धारित की। उनका विषय मात्र भक्ति ही नहीं वरन् ज्ञान और कर्म की उत्कृष्टता का समावेश रखना भी था। मीरा, सूर, कबीर, रैदास, नामदेव, तुकाराम, चैतन्य आदि की धर्म प्रचार शैली में संकीर्तन प्रक्रिया को प्रमुखता दी गई थी। उनकी प्रव्रज्या तीर्थ यात्रा कार्य पद्धति में संगीत मण्डली का माहौल भी साथ चलता था। जहाँ भी वह पहुँचते थे अपने उस कार्यक्रम में जनसाधारण को भी सम्मिलित करते थे। इस पद्धति का प्रभाव सामान्य का, उपदेशों की अपेक्षा अनेक गुना हो जाता था। जिन तथ्यों का साधारण भाषण प्रवचनों से हृदयंगम नहीं हो पाता उतना संकीर्तन के साथ भक्ति भावना के साथ-साथ आत्मिक गरिमा को निखारने, उभारने का असाधारण अवसर मिलता है। गरम लोह धातु को पिघलाकर उसे इच्छित दिशा में मोड़ा मरोड़ा और ढाला जा सकता है। संकीर्तन

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