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Magazine - Year 1987 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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अन्तरिक्ष वासी पृथ्वी पर आते रहें

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क्या पृथ्वी से इतर भी कोई विकसित सभ्यता है? इस संबंध में आजीवन शोध में निरत रहने वाले स्विस पुरातत्व विद् एरिखवान डैनिकन ने अनेकों विस्मयकारी प्रमाण खोज निकाले हैं। इन निष्कर्षों से यह ज्ञात होता है कि सदियों पूर्व से अंतरिक्षवासी, अन्यान्य ग्रहों के निवासी अपनी जिज्ञासा पूर्ति हेतु धरती पर आते रहे हैं। पुरातत्त्वविदों ने पेरु के दक्षिण-पश्चिम में एरीक्वीपा प्रान्त के नाजका क्षेत्र में सैंतीस मील लम्बी एक पट्टी ढूँढ़ निकाली है जहाँ ज्यामितीय क्रमानुसार गहरी खाइयां खुदी पाई गई हैं। इनमें से कुछ मीलों लम्बी समानान्तर क्रम में गई हैं तो कुछ परस्पर काटती हुई एक विशेष आकार में देखी गई हैं। यहाँ कुछ जानवरों के चित्र भी खुदे पाये गए हैं। पुरातत्त्वविद् मानते हैं कि ये निर्माण शताब्दियों पूर्व इंका सभ्यता के निवासियों द्वारा विनिर्मित सड़कों के ध्वंसावशेष हैं। भूचुम्बकीय आधार पर वैज्ञानिकों ने इनका खगोलीय महत्त्व भी बताया है।

एरिकवान डैनिकन अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि नाजका के ये चिह्नित स्थान अन्तरिक्षवासियों के हवाई अड्डे हैं, जिन्हें उन्होंने आज से कई सदी पूर्व स्वयं के आवागमन के लिए बनाया था। बाद में उस क्षेत्र के निवासियों ने अन्तरिक्षवासियों के आदर सम्मान में जानवरों के एवं भिन्न-भिन्न प्रकार के चित्र बनाये। धरतीवासियों ने उन्हें देवता रूप माना। श्री डैनिकेन की मान्यता है कि “आधुनिक मानव जिसे ‘होमोसैपिएन्स’ कहा जाता है। अंतरिक्षवासियों और बंदर की संकर संतान है। उस समय धरती पर केवल बंदर ही थे, मनुष्य नहीं। मनुष्य कृत्रिम प्रेरित उत्परिवर्तन से उत्पन्न हुआ है। “उन्हें नाजका मात्र ही नहीं, वरन् अन्य स्थानों पर भी लाखों वर्षों पूर्व अंतरिक्षवासियों के आते-जाते रहने के प्रमाण मिले हैं। अपने कथन की पुष्टि में श्री डैनिकेन ने ऐसे अनेकों सशक्त पुरातत्वीय प्रमाण प्रस्तुत किये हैं जिनसे यह साबित होता है कि इतरवासी अपने वायुयानों से धरती पर उतरते थे। विश्व के विभिन्न शिलालेखों, पेंटिंग, शैल चित्रों, विचित्र मूर्तिकलाओं से यह बात भली प्रकार प्रमाणित हो जाती है। अल्जीरियन सहारा की तास्सिली पर्वत श्रृंखला पर बने चित्र यह बताते हैं कि अंतरिक्षवासी गोल हेल्मेट पहनकर भार रहित हो अंतरिक्ष में तैरते थे। इनके उड़ती हुई स्थिति में चित्र यहाँ देखने को मिलते हैं। ऐसा लगता है कि अत्यंत उच्चस्तरीय तकनीकी क्षमता वाले अंतरिक्षवासियों के लिए पृथ्वी एक अस्थायी क्रीड़ा स्थली थी। एक एनलैड्रिलैडो केचिलियन पठार में फैली विशालकाय पत्थर की 233 चट्टानें इस तरह से खड़ी हैं जैसे पहले यहाँ प्राथमिक रंगशाला या अखाड़े रहे हों। इतने बड़े भीमकाय पत्थर बिना किसी साधन क्रेन जैसे यंत्र के उन पिछड़ी असभ्य समझी जाने वाली जन जातियों द्वारा उस पठार तक किसी भी हालत में नहीं पहुँचाये जा सकते। निश्चित रूप से ये पत्थर अंतरिक्षवासियों द्वारा अपनी तकनीक का प्रयोग कर लाये गये और वहाँ के निवासियों की सहायता से अपने कुशल इंजीनियरिंग देख-रेख में ज्यामितीय आकार देकर उन्होंने बनवाया ताकि उनकी मदद से पाइलटों को उस पठार पर यान आदि उतारने में सुविधा रहे।

चिली के समुद्र तट से 2000 मील की दूरी पर पेसिफिक समुद्र में खड़ी ईस्टर आइलैण्ड की मूर्तियाँ भी इस तथ्य को प्रमाणित करती हैं कि समय-समय पर अंतरिक्षवासी धरती पर आते रहे हैं। इन मूर्तियों में से सैकड़ों ऐसी हैं जिनकी ऊँचाई 33 से 66 फीट तक है। इनके उद्भव और उपयोग महत्व के बारे में किसी को कोई जानकारी नहीं है। वहाँ के निवासियों द्वारा भी इस तरह के कोई निर्माण कार्य नहीं किये गये। निःसन्देह ये मूर्तियाँ अंतरिक्षवासियों की, अंतर्ग्रही सभ्यता की ही निर्मित लगती है।

इक्वेडोर में जमीन के अन्दर बने विशालतम जटिल गलियारे और बड़े-बड़े हाल भी उपरोक्त तथ्य को प्रमाणित करते हैं। हाल की दीवारें और भीतरी छत की बनावट को देखकर यही मालूम होता है कि यह किसी अनुभवी कुशल इंजीनियर द्वारा विनिर्मित हैं। इन हालों के अन्दर बड़े से बड़े जुम्बोजेट को लटकाया जा सकता है। एक बड़े हाल से जुड़े अनेकों गलियारे और उनकी शाखा प्रशाखायें हैं जो बड़े-बड़े समानुपातिक कक्षों में खुलती हैं। बड़े हाल के मध्य में एक बड़ी टेबल और कुछ कुर्सियाँ रखी पाई गई हैं जो प्लास्टिक जैसे किसी पदार्थ की बनी हैं। ये स्टील से भी अधिक मजबूत और वजनी हैं। इस फर्नीचर के चारों ओर स्वर्ग के ठोस प्लेटों पर हाथी, मगर, शेर, भालू, भेड़िये, केकड़े, घोंघे जैसे अनेकों जीवधारियों के चित्र खुदे हैं इन प्लेटों की लम्बाई 3 फीट दो इंच और चौड़ाई एक फुट सात इंच है। सभी प्लेटों पर विचित्र भाषा में कुछ लिखा है और इन पर किसी मशीन विशेष से एम्बोस्ड मुहर लगी पायी गयी है। वैज्ञानिकों का मत है कि ये स्वर्ण प्लेटें पुस्तकालय की पुस्तकों के पृष्ठ हैं, जो अंतरिक्षवासियों द्वारा सदियों पूर्व अपनी पृथ्वी यात्रा के दौरान छोड़े गये इस हाल के साथ जुड़े रास्तों, गलियारों की खोज की जाय तो संभव है कि बहुत से ऐसे अन्य स्थान और वस्तुएँ मिलें, जिनसे इस तथ्य की पुष्टि हो सकती है कि अंतरिक्षवासी पृथ्वी पर आते जाते रहे हैं। ब्रिटेन, फ्राँस के कार्नेक नामक स्थान से भी एक लम्बी पट्टी विशाल महापाषाणों की पाई गई है, मानों वह एक राजमार्ग हो। इनसे अनुपात होता है कि अन्तरिक्षवासी इसी मार्ग से धरती पर आते थे। डेनमार्क राष्ट्री उत्पत्ति के विषय में भी पुरातत्त्वविद् बड़ी आश्चर्यजनक खोज कर लाए हैं। वे बताते हैं कि इसका मूल नाम धेनुमार्ग था जो बाद में अपभ्रंश होकर डेनमार्क हो गया। इसी राष्ट्र में अंतरिक्ष से गाय (धेनु) नामक प्राणी धरती पर अवतरित हुआ एवं सारी पृथ्वी पर फैल गया। डेनमार्क में गायों की प्रचुरता देखकर इस मान्यता की पुष्टि होती है। वहाँ की भाषा, लिपि की भी संस्कृत से अधिक निकटता पाई गई है।

डॉ. टेरेन्स डिकिन्सन “एस्ट्रानाँमी” जरनल में प्रकाशित (वाँल्यूम 2, क्र. 12 दिसम्बर 1974) “द जेटा रेटीक्युली इन्सीडेन्ट” में लिखते हैं कि हमारे नजदीकी 16 तारामण्डलों में से एक जेटा रेटीकुली सिस्टम भी है। वहाँ की परिस्थितियाँ हमारे सौर-मण्डल से बिल्कुल मिलती जुलती हैं व ऐसा सुनिश्चित लगता है कि वहाँ अभी भी जीवन हो। यदि निकट भविष्य में हमारे दक्षिणी गोलार्द्ध के ऊपर स्थित इस तारामण्डल तक, जो हमसे 37 प्रकाश वर्ष (एक प्रकाश वर्ष-नब्बे खरब किलोमीटर) दूरी पर है, जाना संभव हो सका तो हो सकता है कि हमें वहाँ विकसित सभ्यता के दर्शन हों। उड़न तश्तरियों द्वारा धरतीवासियों को पकड़ कर ले जाने व उनसे जानकारियाँ उगल कर वापस धरती पर छोड़ने के कई घटनाक्रम गत तीन दशकों से चर्चित होते रहे हैं। पहले यह मजाक लगता था, किन्तु मनोवैज्ञानिकों द्वारा किये एक अध्ययन (डॉ. लियो स्प्रीकंल-वायोनिंग विश्वविद्यालय) बताते हैं कि यह सर्वथा मिथ्या नहीं है। “आउट ऑफ बॉडी जर्नी” (शरीर से बाहर सूक्ष्म शरीर की यात्रा) पर बहुत कुछ पाश्चात्य जगत में शोधकार्य हो चुका है व प्राप्त निष्कर्ष इस मान्यता का समाधान करते हैं कि अंतरिक्षवासी इस धरती पर आते हैं व सूक्ष्म रूप से चेतन सत्ता से संपर्क स्थापित करने का प्रयास करते हैं। सन् 1899 में जेनेवा विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक डॉ. थियोडोर फ्लाँर्नी ने एक पुस्तक लिखी थी-”फ्राम इण्डिया टू प्लेनेट मार्स” (भारत से मंगल ग्रह तक) इस पुस्तक में उन्होंने बताया था कि श्रीमती कैथेरीन मूलर नामक एक महिला में मंगल ग्रह निवासियों से संपर्क स्थापित कर चर्चा करने की अद्भुत क्षमता पायी गयी। “मंगल ग्रह की लिपि” जो संस्कृत से मिलती-जुलती थी, में उन्होंने कई निर्देश सम्मोहन की स्थिति में लिखकर भी दिये। डॉ. कार्लजुँग ने इसे कलेक्टिव काँशसनेस प्रक्रिया के अंतर्गत घटने वाली एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया नाम दिया था। इसे उन्होंने मनुष्य द्वारा अचेतन में “कॉस्मिक यूनिटी” (ब्राह्मी तादात्म्य) स्थापित करने के प्रयास का नाम दिया था।

सभी उपलब्ध प्रमाण व वैज्ञानिक शोधों के रहते यह कहना उपयुक्त होगा कि विकासवाद की मूल थ्योरी पर पुनः दृष्टि डालना चाहिए एवं यह मानना चाहिए कि आज से भी विकसित सभ्यता पहले धरती पर रह चुकी है अथवा आज का मनुष्य कहीं और से इस धरती पर अवतरित हुआ व उस समय वह और भी श्रेष्ठ स्थिति में रहा होगा। यदि यह सच है तो निष्कर्ष यही निकलता है कि पूर्वजों की तुलना में हम हर क्षेत्र में नीचे ही गिरते आये हैं, प्रगति कम की है।

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