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Magazine - Year 1987 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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सबै सहायक सबल के, कोई न निबल सहाय

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साहस एक दैवी विभूति है। सामान्य मनुष्य सदैव साधन और अवसर की तलाश करते हैं। किन्तु जो साहस के धनी हैं, वे ऐसे कदम उठाते हैं जिससे विदित होता है कि इनके प्रयासों के पीछे न जाने कितनों का बाहुबल, बुद्धिबल और सहयोग काम कर रहा है। अनेकों ऐतिहासिक प्रसंग एवं आख्यान इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

हनुमान बाल ब्रह्मचारी थे। उनका पराक्रम सर्वविदित है। पर्वत उठाने, समुद्र लाँघने, लंका जलाने जैसे असम्भव कार्य जो उनने समाप्त कर दिखाये, मात्र मिथक नहीं हैं। लंका दहन के उपरान्त वे ताप मिटाने के लिये समुद्र में कूदे तो उनके पसीने को मछली निगल गई। कथा के अनुसार उस पसीने की शक्ति को वह मछली हजम नहीं कर पाई और उससे मकरध्वज की उत्पत्ति हुई। हनुमान से जुड़ी पौराणिक कथाएँ ग्रीक साहित्य में हरक्यूलिस से जुड़ी कथाएँ एवं कृष्ण के अग्रज बलराम में शौर्य पराक्रम की गाथाएँ उस अपरिमित पराक्रम का परिचय देती हैं जो मानवी काया में असीम संभावनाओं के रूप में रोम-रोम में कूट-कूट भरा है। महर्षि दयानन्द ने अपने शक्ति बल से संयम की महत्ता जानने को उत्सुक एक जमींदार की चार घोड़ों से जुती बग्घी को एक हाथ से रोककर बता दिया था कि विभूतियों का सही उपयोग किया जाय, असंयम के छिद्रों से बहाना न जाय तो मनुष्य की शक्ति कितनी प्रचण्ड हो सकती है।

स्विट्जरलैण्ड के कास्ट्राउड नमक लकड़हारे ने सीमा-विवाद हल करने का जिम्मा अपने ऊपर लिया। काफी हट्टा-कट्टा था वह। 1040 पौण्ड भारी पत्थर अपने सिर पर लादकर वह चला। एक मील 4500 फीट वजन समेत चल लेने पर वह गिर पड़ा। वहाँ स्थायी सीमा मान ली गयी। उसके साहस से हतप्रभ दोनों पक्ष इस निर्णय से सहमत हो गए।

फ्राँसीसी ड्यूक डिमाइट की हत्या के अपराध में जीन पाँप मित्तराँ नामक अपराधी को मृत्यु दण्ड सुनाया गया। उसके दोनों हाथ-दोनों पैर चार घोड़ों से बाँध कर चार दिशाओं में दौड़ाये गए ताकि उसके चार टुकड़े किये जायँ। घोड़ों की शक्ति से सभी परिचित हैं। अमेरिका के नेवाड़ा व टेक्सास प्रान्त में भी अपराधी को मृत्युदण्ड देने का यही तरीका अपनाया जाता रहा है। इस मामले में यह प्रयोग तीन बार दुहराये जाने पर भी असफल हुआ। अपराधी इतना मजबूत था कि चार घोड़ों की सम्मिलित शक्ति भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकी। नियमानुसार उसे मुक्त कर दिया गया।

चेक जनरल व्हेटमैन लड़ाई में बुरी तरह घायल हुआ। मरने से पूर्व उसने साथियों से कहा-’मरने के बाद मेरी चमड़ी उखाड़ ली जाय और उसकी खाल मढ़कर सारी चेक सेना में यह मुनादी कर दी जाय कि कोई हिम्मत न हारे। अन्ततः जीत चेक सेना की ही होगी। वैसा ही किया गया। उस ढोल की आवाज सुनकर जनरल के पराक्रम से रोमाँचित सैनिकों के मन में दूना उत्साह उपजा और वे इतनी बहादुरी से लड़े कि जर्मनी के पैर उखड़ गए। प्रकृति के सिद्धान्तों की अवहेलना कर असंभव कर दिखाने वाला संसार में एक ही जादू है साहस-पराक्रम।

यू.के. की काउण्टी चेशायर का एक शिकारी रॉबिन्सन भालुओं के एक झुण्ड में घिर गया। बन्दूक की गोलियों ने जब तक काम किया, चलता रहा। बाद में छुरे से मल्लयुद्ध हुआ। वह भी हाथ से छिन गया तो मल्ल युद्ध लड़ा। इस निहत्थी लड़ाई में डेढ़ सौ पौण्ड वजन के इस व्यक्ति ने 4 भालुओं को गला घोंट कर मारा और अपनी जान बचाई।

फ्राँस के प्रतिभावान अभिनेता चार्ल्सडेलिन के जीवन का वह प्रसंग स्मरणीय है जिसमें उसने शेरों से भरे पिंजड़े में प्रवेश करते ही कविता पाठ करना चालू कर दिया। काव्य की रस धारा में हिंसक जीव भी बह गए एवं कविता कहते-कहते ही बिना किसी क्षति के वे पिंजरे से बाहर निकल आए। वेचुआनालैण्ड (जैरे-अफ्रीका) का फ्रीज वीमाल्ट जंगल से गुजरते हुए अचानक एक खूँखार शेर के सामने आ गया। बंदूक की नली जाम हो गई। शरीर घावों से लहूलुहान हो गया। अन्ततः उसने शेर के मुँह में अपना हाथ ठूँसकर उसका साँस लेना दूभर कर दिया। शेर दम तोड़ बैठा एवं वीमाल्ट की जान बच गई। कुछ ही दिनों में जड़ी बूटियों ने उसे स्वस्थ कर दिया।

साहस-पराक्रम व्यक्ति को सहज ही मिली ऐसी विभूतियाँ हैं, जिन्हें जगाकर प्रचण्ड पुरुषार्थ, असंभव-सा दीख पड़ने वाला काम भी संभव कर दिखाया जा सकता है। कापुरुष उन्हीं को कहते हैं जो परिस्थितियाँ थोड़ी भी प्रतिकूल देख हताश हो जाते हैं एवं मनोबल खो बैठते हैं। शारीरिक दृष्टि से बलिष्ठ दीखते हुए भी, पोषण की दृष्टि से कहीं किसी प्रकार की न्यूनता न होते हुए भी जो मानवोचित पराक्रम कर दिखा पाने में असमर्थ होते हैं, ऐसे व्यक्ति न तो स्वयं प्रगति कर पाते हैं, न औरों को कोई प्रेरणा ही दे पाते हैं। उलटे वे भर्त्सना का पात्र बनते अपनी दुर्गति कराते हैं।

साहस कहीं आसमान से नहीं बरसता। यह तो सदैव अन्तः में विद्यमान है। उसे समय आने पर जगाने भर की आवश्यकता होती है। सूझ-बूझ दूरदर्शिता, प्रत्युत्पन्नमति साहसियों को उचित सम्बल देती व श्रेय सम्मान का अधिकारी बनाती है। फ्राँस के जनरल डुवेले की सेना एक बार किले में घिर गई। राशन भी समाप्त हो गया। शत्रु के चालीस हजार सैनिकों को चकमा दिया गया। रात के सघन कुहासे में घोड़ों पर आटे के बोरे इस तरह बाँधे गए कि वे दैत्याकार सैनिक लगने लगे। साथ ही जानवरों के सींगों पर मशाल बाँधकर रात भर उनसे किले के बुर्ज पर गश्त लगवाई गई। इतना अपार सेना बल देखकर उनसे लड़ने की शत्रु सैनिकों की हिम्मत पड़ी और वे भाग खड़े हुए। हार-जीत में बदल गई।

उत्तरी व दक्षिणी ध्रुवों पर आज तो यात्रा आसान हो गयी है। विज्ञान ने प्रतिकूल वातावरण में रहने के साधन जुटा लिये हैं, एवं भाँति-भाँति के वैज्ञानिक अन्वेषण वहाँ सम्पन्न किये जाने लगे हैं। किन्तु इस सदी के प्रारम्भ में जबकि इन दोनों ही ध्रुवों की टोपोग्राफी का जरा भी अंदाज न था कितने ही साहस के धनी व्यक्तियों ने यात्रा की जोखिम उठाते हुए यह जानने का प्रयास किया कि ये कहाँ हैं व वहाँ की परिस्थितियाँ कैसी हैं? उत्तरी ध्रुव की सर्व प्रथम यात्रा डॉ. फ्रेडरिक अर्ल्बट कुक ने की थी। इस अमेरिकन वैज्ञानिक ने अपने-अपने एस्किमो साथी व 26 कुत्ते साथ लिये। यह यात्रा उसने 23 मील प्रतिदिन के हिसाब से पूरी की। 21 मार्च 1908 को वह चला और 42 दिन में नार्थ सी के रास्ते चलकर वह एबरडीन (स्काटलैण्ड) लौट आया। इसी प्रकार दक्षिणी ध्रुव विजय का प्रथम श्रेय ब्रिटिश रॉयल नेवी के कैप्टन जेम्स कुक्स को जाता है। वे कुछ दिन जलयानों की सहायता से चले। बाद में कुत्ते जुती गाड़ियों पर 53 दिनों में अपना सफर पूरा कर वापस केप ऑफ गुडहोप होते हुए यू.के. लौट आये।

एडवेन्चर-प्रकृति के रहस्यों की खोज एवं अविज्ञात को जानने की ललक मनुष्य में प्रारम्भ से हो रही है। यही कारण है कि पत्थर के औजारों, चकमक पत्थर से अग्नि जलाने एवं पत्तों के कपड़े पहनने वाले, गुफा में रहने वाला आदि मानव प्रतिकूलताओं से संघर्ष करता हुआ प्रगति करता चला आया है एवं आज वह चरम सीमा पर है। स्वयं को जोखिम में डालकर किसी को क्या मिलता है? पर यही तो सारे आविष्कारों, नवीन उपलब्धियों का मूलभूत आधार है।

जल मार्ग द्वारा भू-परिक्रमा करने वालों की संख्या अब दो दर्जन से भी अधिक हो चुकी है। सैकड़ों वर्ष पूर्व आरम्भ हुआ यह सिलसिला बराबर चलता आ रहा है। सबने अपने अलग-अलग रास्ते चुने और नये-नये अनुभव एकत्रित किये। सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत को खोजने 18 वर्षीय कोलम्बस नामक नाविक जब स्पेन से निकला था, उन दिनों समुद्र को छोरहीन समझा जाता था। इस अगाध जल राशि को पार करते हुए वह पश्चिम की ओर चलते-चलते धरती को गोल मानते हुए पूर्व में भारत पहुँचना चाहता था। पर वह जा पहुँचा वेस्टइंडीज द्वीपों में। वहाँ से आदिवासियों को उसने भारतीय मानकर “इंडियन्स” नाम दिया। अमेरिका का खोजने का श्रेय कोलम्बस को इसलिये दिया जाता रहा है कि उसने अग्रदूत की भूमिका निभाकर लोगों की राह दिखाई। अटलाँटिक सागर को पार कर वह धरती पा सका, यही उसकी उपलब्धि थी। बाद में उसके बताये मार्ग पर चलकर अन्य नाविकों ने अमेरिका (वर्तमान यू.एस.ए.) खोज निकाला। पुर्तगालियों ने भारतीय मसालों को खोज निकालने के लिये अनेक जोखिम भरी जल यात्राएँ की। अन्ततः वास्कोडिगामा को सफलता मिली एवं गोवा के तट पर पहुँचकर वह भारतीयों से जल मार्ग द्वारा संपर्क स्थापित करने में सफल हो ही गया। ये तो प्रारम्भिक यात्राओं का वर्णन है, जो जैसे जलयानों द्वारा की गयी, जिनमें आधुनिक सुविधाएँ थी ही नहीं। ऐसी ही असुविधा भरी परिस्थितियों में वृद्ध सर चिचेस्टर ने सरकण्डे की नाव से पूरी धरती की जल मार्ग से परिक्रमा लगाई थी। अभी पिछले दिनों ही भारतीय सेना के पुरुषार्थ सम्पन्न नौजवानों द्वारा “तृष्णा” नौका द्वारा जलमार्ग से पूरी धरती का चक्कर लगाया गया है। इससे उन्हें क्या मिला, यह उनके अनुभवों को जानकर जाना जा सकता है। जिजीविषा व संकल्प बल व्यक्ति को प्रकृति के आँचल में प्रतिकूलताओं में जोखिम भरी परिस्थितियों में जाने, कुछ कर दिखाने को प्रेरित करता रहता है एवं जब तक इस मानवी विभूति का अस्तित्व है, मनुष्य भाँति-भाँति के लोमहर्षक कारनामे करता रहेगा।

राइट बंधुओं द्वारा विमान के आविष्कार से लेकर स्पूतनिक के अंतरिक्ष में उड़ने यूरी गगारिन की अंतरिख यात्रा एवं नीलआर्मस्ट्रांग के चन्द्रमा पर पैर रखने से लेकर चैलेन्जर उपग्रह की यात्रा अपने आप में इतिहास के कीर्तिमान हैं। पर एक कीर्तिमान अभी पाँच माह पूर्व एक युवक व युवती ने बिना कहीं रुके, सतत् ईंधन अपने छोटे से यान को नभ में ही उपलब्ध कराते रह, धरती की परिक्रमा कर स्थापित किया है। वाँयेजर-नामक इस विमान के लिये हल्की से हल्की धातु एवं सिंथेटिक शीट्स का प्रयोग किया गया। मात्र डेढ़ मीटर के स्थान में बैठ बारी-बारी से विश्राम कर 9 दिन 216 घण्टे की यात्रा पूरी कर वे सफलतापूर्वक धरती पर उतर आये। व्यक्ति को नये से नये रोमांचक काम कर दिखाने हेतु सतत् प्रेरणा मिलती रहती है एवं यही महत्वपूर्ण उपलब्धियों का कारण बन जाती है। आगे चलकर हो सकता है, ऐसी अनेक यात्राएँ होने लगें। पर इस दो साहसी, जिजीविषा के धनी अन्वेषकों ने पहले सूझ-बूझ से अपना यान स्वयं ही बनाकर जो कुछ भी कर दिखाया, वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अंकित हो गया है।

आज स्वेजनहर से प्रतिदिन 100 से अधिक बड़े जहाज गुजरते हैं एवं हजारों मील की यात्रा के झंझट से बचकर लाल सागर व भूमध्य सागर होते हुए यूरोप पहुँच जाते हैं। किन्तु जब आज से एक सौ वर्ष पूर्व फर्डीनेंड डी लैसेप्स नामक भू वैज्ञानिक ने इस मार्ग को खोज निकाला था तो कौन जानता था कि आगे चलकर यह ऐतिहासिक स्वेजनहर अनावश्यक लम्बी यात्रा को इतना छोटा कर देगा। पनामानहर, पिरामिड एवं चीन की दीवार-ये सभी उस विभूति की उपलब्धियाँ हैं, जिसे पराक्रम, संकल्पबल, साहस बल नाम से जाना जाता है।

मनोबल की प्रचण्ड सामर्थ्य मनुष्य के पास है। शरीर की दृष्टि से समर्थ होते हुए भी जीवन संग्राम में अनेकों व्यक्ति दब्बू मनःस्थिति में जीते-जूझते देखे जाते हैं। पुंसत्वहीन पुरुष शरीर की दृष्टि से मजबूत हो तो भी उसे सेना में नहीं चुना जाता। सब जानते हैं कि रणक्षेत्र में जाना तो दूर यह सामान्य से खतरे का सामना भी नहीं कर सकता। हर व्यक्ति उस विलक्षण सामर्थ्य से भरा-पूरा है जिसे पराक्रम जिजीविषा, साहस, बल-पुरुषार्थ जैसे विभूषणों से संबोधित किया जाता है। इसे यदि सुनियोजित कर दिशा दी जा सके तो और भी कुछ अधिक मूल्यवान उसे हस्तगत हो सकता है, जिसे ऋद्धि-सिद्धि नाम से जाना जाता रहा है।

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