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Magazine - Year 1987 - Version 2

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उपवास रोग निवारक भी! शक्तिवर्धक भी!

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व्यवस्थित रूप से चलने वाले दफ्तरों, कारखानों में सप्ताह में एक दिन अवकाश का रहता है। कहीं-कहीं तो पाँच दिन का भी सप्ताह माना जाने लगा है और दो दिन छुट्टी में हल्के फुल्के रहने के लिए मिलते हैं। यह छुट्टी में प्रत्यक्ष काम की हानि होती हुई दीखती है, किन्तु परोक्ष में उससे लाभ ही रहता है। दो दिनों में हल्का फुल्का रहकर व्यक्ति अधिक उत्साहपूर्वक अधिक मात्रा में काम कर सकता है।

यही बात पाचन तंत्र के बारे में भी है। पेट, आमाशय, आँतें मिलकर एक तंत्र बनता है। इसमें फूलने सिकुड़ने की क्रिया होती रहती है और उलट पुलट के लिए जगह की गुंजाइश रखे जाने की आवश्यकता पड़ती है। इस सारे विभाग में ठूँसा-भरा जाय और कसी हुई स्थिति में रखा जाय तो स्वभावतः पाचन में बाधा पड़ेगी। अवयवों पर अनावश्यक दबाव-खिंचाव रहने से उनकी कार्य क्षमता में घटोत्तरी होती जायेगी। इन अंगों से पाचन की निमित्त जो रासायनिक स्राव होते हैं, उनकी मात्रा न्यून रहेगी और सदा हल्की-भारी कब्ज बनी रहेगी। खुलकर दस्त होने और पेट हल्का रहने की वह स्थिति न बन पड़ेगी जो शरीर को स्वस्थ बनाये रखने के लिए आवश्यक है।

पाचन तंत्र ही आहार को रक्त के रूप में परिणत करने की आश्चर्य भरी प्रयोगशाला चलाता है। इसके कलपुर्जों से अनावश्यक छेड़खानी नहीं करनी चाहिए। इससे कई प्रकार की परेशानियाँ व्यर्थ ही उत्पन्न होती हैं। अधिक मात्रा में खाना में खाना इसी तोड़-फोड़ का प्रत्यक्ष स्वरूप है। स्वल्पाहारी को अध्यात्म शास्त्र में उपवासकर्ता, व्रतशील कहा जाता है। आयुर्विज्ञान ने इसी तथ्य का यह कहकर समर्थन किया है कि कम मात्रा में खाया हुआ अच्छी तरह पच जाता है। फलतः वह अधिक ठूँसने की तुलना में आर्थिक बचत भी करता है। अंगों को सुव्यवस्थित भी रखता है और पोषण भी अधिक मात्रा में प्रदान करता है।

वृद्धावस्था के लिए तो यह अनिवार्य अनुशासन है कि वे अपने पाचन तंत्र की क्षमता को देखते हुए आहार की मात्रा घटायें। यह न सोचें कि ऐसा करने से शक्ति सामर्थ्य घटेगी। किन्तु देखा इससे ठीक उल्टा गया है कि मात्रा घटा देने पर आहार सही रूप से पचता है। वह उपयुक्त पोषण बढ़ाता है और पाचन तंत्र में विकृति नहीं खड़ी होने देता।

बच्चों के आहार के संबंध में भी यही सावधानी बरती जानी चाहिए। हर वयस्क उन्हें प्रेम प्रदर्शन के रूप में अपने साथ खिलौने लगे तो उसका परिणाम यह होता है कि उन्हें बार-बार खाने की, बड़ों वाले गरिष्ठ पदार्थों को लेने की आदत पड़ जाती है। इस कारण उत्पन्न होने वाले संकटों से बचने के लिए यही उचित है कि बच्चों को खाते समय पास भले ही बिठा लिया जाय, पर उनके आहार का स्तर, अनुपात एवं समय सर्वथा भिन्न रखा जाय। कोमल पेट पर अनावश्यक मात्रा थोपना एक प्रकार से उनके मरण की पूर्व भूमिका विनिर्मित करना है।

उपवास को धर्म प्रयोजनों में बढ़-चढ़ कर महत्व दिया गया है। धार्मिक प्रकृति के लोग वैसा करते भी रहते हैं। महिलाओं में इसके लिए अधिक उत्साह एवं साहस दिखाया जाता है, पर इस संदर्भ में जो अनियमितता बरती जाती है, वह सब प्रकार से खेदजनक है। उपवास के दिन फलाहार के नाम पर मावा के बने मिष्ठान्न तथा फलाहारी समझे जाने वाले कुट्टू, आलू, सिंघाड़ा आदि गरिष्ठ पकवानों की स्वादिष्टता के कारण और भी अधिक मात्रा में खाया जाता है। फलतः परिणाम ठीक उल्टा होता है। मात्रा घटाने और सात्विकता बढ़ाने के रूप में ही फलाहार हो सकता है। जब नाम फलाहार है तो उसे शब्दों के अनुरूप ही होना चाहिए। ताजे सुपाच्य पेड़ के पके फल आवश्यकतानुसार फलाहार में एक बार लिये जा सकते हैं। उनके अधिक महंगे और कोल्डस्टोरों में रखे होने के कारण शाकाहार से काम चलाना चाहिए। ताजे ऋतु फल मिल सकें तो वे भी ठीक रहते हैं। अच्छा तो यह है कि शाकों को उबालकर बनाया हुआ रस या फलों का रस काम में लिया जाय। दूध, दही, छाछ जैसी प्रवाही वस्तुएँ भी काम दे सकती हैं। यह सब जंजाल भी जितना कम लिया जाय, उतना ही अच्छा।

वास्तविक उपवास वह है जिसमें पानी तो बार-बार और अधिक मात्रा में पिया जाय। पर पेट पर वजन डालने वाला कोई भी आहार न लिया जाय। छुट्टी सो छुट्टी। उस दिन पेट को एक प्रकार से पूर्ण विश्राम लेने दिया जाय। सफाई करने के लिए गुनगुने पानी में नीबू का रस, तनिक-सा खाने का सोड़ा और शहद अथवा गुड़ मिलाकर दिन में कई बार चाय की तरह पीया जा सकता है। अच्छा लगे तो इस पेय में तुलसी की थोड़ी-सी पत्तियाँ भी डाली जा सकती है। इस पेय से पेट की सफाई भी होती है और भूख के कारण पेट में जो ऐंठन पड़ती है, उसकी संभावना भी नहीं रहती।

पशु-पक्षियों में से कोई कभी बीमार पड़ता है वे अपना उपचार स्वयं करते है। भोजन बन्द कर देते हैं। निराहार रहने से शरीर में अन्यत्र काम करने वाली जीवनीशक्ति एकत्रित होकर रोग निवारण में लग जाती है और वे इतने भर उपचार से रोगमुक्त हो जाते हैं। मनुष्यों के लिए भी इस आधार को अपनाना रोग मुक्ति का सर्वसुलभ उपचार सिद्ध हो सकता है।

सप्ताह में एक दिन का तो पूर्ण उपवास करना ही चाहिए। इतनी छूट सुविधा तो पाचन तंत्र को देनी ही चाहिए। शरीर जुकाम, खाँसी, ज्वर आदि की चपेट में आ गया हो तो एक दिन से अधिक का उपवास भी किया जा सकता है। निराहार उपवास आरम्भ करने से पहले कम से कम एक जून तो खिचड़ी जैसा हल्का भोजन करना ही चाहिए। उपवास तोड़ने पर भी आरम्भ में एक जून, फिर क्रमशः थोड़ा हल्का भोजन लेने के उपरान्त ही सामान्य ढर्रे पर आना चाहिए।

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