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Magazine - Year 1987 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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पर्व त्यौहारों की उद्देश्यपूर्ण परम्परा

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पर्व और त्यौहारों की जितनी भरमार हिन्दू धर्म में है उतनी और कहीं किसी में नहीं। कारण यह है कि यह अनेकान्त समुच्चय है। अनेक संस्कृतियों और परम्पराओं का इसमें समन्वय हुआ है। कभी भारतीय संस्कृति विश्वव्यापी थी। यहाँ के देव मानव संसार भर को अपना परिवार मानते थे और सुदूर क्षेत्रों में जाकर भी सर्वतोमुखी अभ्युदय के निमित्त अनवरत प्रयत्न करते थे। इसके लिए उन्हें परिव्राजकों की तरह भ्रमणशील रहना पड़ता था।

बिखराव को एकात्मता में बाँधने के लिए उन्होंने एक क्षेत्र की महान घटनाओं, महान परम्पराओं को दूसरे क्षेत्रों में अवगत-प्रचलित कराने के लिए प्रयत्न किये, जिससे सीमित संकीर्णता की परिधि टूटे और व्यापकता का भाव बढ़े। यही कारण है कि चित्र-विचित्र देवी-देवताओं और प्रथा प्रचलनों का संग्रहालय भारतीय धर्म बन गया। पर्व त्यौहारों के संबंध में भी यही बात कही जा सकती है। उनमें विभिन्न क्षेत्रों और जातियों की मान्यताओं का समावेश देखा जा सकता है।

वर्ष में 360 या 365 दिन होते हैं, पर अपने हिन्दू समाज में पर्व त्यौहारों की संख्या 450 के करीब है। इन सभी को मनाना उन्हीं के लिए सम्भव है जिन्हें रोटी कमाने की चिन्ता या और किसी प्रकार की जिम्मेदारी न हो। जो हर रोज एक दो पर्व मनाया करें ऐसा व्यक्ति कोई अतिशय भावुक एवं कुबेर भण्डारी जैसा धनाध्यक्ष ही हो सकता है। साधारण व्यक्ति के लिए इन सबको अपनाना मनाना सम्भव नहीं हो सकता।

अन्य प्रमुख धर्मों में थोड़े-थोड़े ही पर्व होते हैं। जो होते हैं उनके पीछे कोई प्रेरणा, परम्परा, शिक्षा या उमंग होती है। इसीलिए उन्हें मनाया भी भावनापूर्वक जाता है। उनका स्मरण भी रखा जाता है कि उनके साथ जुड़े हुए संदेशों को भी हृदयंगम किया कराया जाता है। यह सब तभी बन पड़ता है जब उनकी संख्या सीमित हो और मनाये जाने के पीछे कोई भाव भरा उद्देश्य हो।

अपने त्यौहारों में देवताओं की छुट-पुट पूजा-पत्री एवं खान-पान में पकवान मिष्ठानों का समावेश इतना भर ही प्रचलन है। जब तब जहाँ-तहाँ मेले ठेले भी होते हैं और नदी सरोवरों के स्थान देवालयों के दर्शन भी सम्मिलित रहते हैं। आशा की जाती है कि इससे अमुक देवता प्रसन्न होंगे। रक्षा करेंगे, संकट टालेंगे और मनोकामना पूर्ति में सहायता देंगे। एक कारण पूर्व परम्पराओं का निर्वाह भी है चूँकि पूर्वज वैसा करते आये हैं इसलिए वंशजों को भी वह लकीरें पीटनी चाहिए। ऐसे ही कुछ कारण मस्तिष्क में रहते हैं। विभिन्न जाति-वंश भी कुछ पर्वों के लिए अपने लिए विशेष रूप से निर्धारण मानते हैं। अन्य लोगों के न करने पर भी अपनी कुल परम्परा निबाहते हैं।

उपेक्षापूर्वक उदास मन से किसी प्रकार चिन्ह पूजा कर लेने से समय का अपव्यय ही होता है। साथ ही श्रम तथा पैसे की हानि भी। इस प्रकार कुछ टंट-घंट कर लेने को न अपना मन करता है, न किसी अन्य के मन में श्रद्धा उत्पन्न होती है। अन्धविश्वास की मनःस्थिति में किसी प्रकार कुछ कर लेने से किस प्रकार किसी का कुछ भला हो सकता है। इस स्थिति के कारण, पर्व उपहास का कारण ही बनते हैं।

प्राचीन काल में प्रत्येक पर्व त्यौहार के पीछे कुछ प्रेरणाओं का समावेश था। जुड़े हुए आदर्शों के प्रति आन्तरिक उत्साह उभारा जाता था इसके लिए सामूहिक आयोजन होते थे। मिल-जुलकर एक स्थान पर एक उद्देश्य के लिए एकत्रित हुआ जाय और एक पद्धति का क्रिया-कृत्य सम्पन्न किया जाय तो उससे परम्परा मैत्री भी बढ़ती है और सहकृत्य से उत्साह भी बढ़ता है। पर वह होना इतने अन्तर से चाहिए कि बीच के दिनों में नवीनता के लिए उमंग उठने लगे। आये दिन का ढकोसला तो द्वंद्व उत्पन्न करता है।

प्रचलित पर्वों में कुछेक ही महत्वपूर्ण और उद्देश्यपूर्ण हैं। उनको अलग से छाँट लिया जाय। व्यस्तता और महँगाई के दिनों में उतना ही अपनाया जाना चाहिए जो आवश्यक हो। इस कटौती किफायतशारी के समय में संतानोत्पादन तक में रोकथाम की जा रही है और खर्चीले उत्पादन में कटौती करने की सलाह दी जा रही है। ऐसी दशा में यदि पर्वों में से आवश्यक अनावश्यक की काट-छाँट की जाय तो वह उचित ही होगा। जिन्हें मनाया जाय उनके संबंध में यह विचारा जाय कि इन्हें किस पद्धति के साथ मनाया जाय और सन्निहित प्रेरणा को किस प्रकार उभारा जाय।

राष्ट्रीय पर्वों में 15 अगस्त, 26 जनवरी, तिलक जयन्ती, गाँधी जयन्ती आदि का महत्व माना जाता है। सम्प्रदायों के जन्मदाताओं की जयंती भी कुछ अर्थ रखती है। सामाजिक पर्वों में होली दिवाली, दशहरा, श्रावणी आदि का महत्व है। अध्यात्म पर्वों में बसन्त पंचमी, गीता जयन्ती, गुरु पूर्णिमा श्रावणी की महिमा है। पारिवारिक त्यौहारों में भाई दौज दाम्पत्य चतुर्थी, श्राद्ध अमावस्या, शरद पूर्णिमा आदि के अपने-अपने इतिहास और संदेश है। जिनकी रुचि प्रकृति परम्परा जिनके लिए उत्साह उत्पन्न करती है वे उन्हें मना सकते हैं। पर इतना आवश्यक है कि जो भी किया जाय, मिलजुल कर किया जाय। मात्र पकवानें बनाने का, पूजा पत्री की चिन्ह पूजा करके बात को समाप्त न किया जाय। सामूहिक आयोजन हर्षोत्सवों के रूप में सामूहिक रूप से मनाये जा सकते हैं। इतना न बन पड़े तो परिवार पड़ौसी के सदस्यों को एकत्रित करके छोटे सहभोज और उस दिन के साथ जुड़े संदेश का स्मरण किया जाय। इससे सद्भाव बढ़ता है और मनोमालिन्य के जमा हुए कचरे को बुहारने का अवसर मिलता है।

जन्मदिन, विवाहदिन, दीक्षादिन आदि मानवी गरिमा का स्मरण दिलाने वाले दिनों को छोटे बड़े जैसे भी तौर तरीके से उन्हें मनाया जाय इतना अवश्य स्मरण किया जाय कि इनके साथ ही क्या दायित्व कंधे पर लदे हैं, उनकी पूर्ति के लिए जो आवश्यक था वह किया गया है क्या? यदि बन पड़ा है तो कितना? कमी रही है तो कितनी? इस समीक्षा के साथ यह भी होना चाहिए कि भविष्य में उन दायित्वों को अधिक तत्परतापूर्वक निभाया जाय।

भारतीय धर्म में जयन्तियों की भरमार है। महामानवों-देवजनों के जन्मोत्सव ही मनाये जाते हैं। समझा जाता है कि आत्मा अमर है। साथ ही उन दिव्यात्मा का यश शरीर भी विद्यमान है। उनकी गौरव गरिमा का अनुकरण तथा अभिनन्दन सदा होता रहेगा। आदर्शवादी व्यक्तित्वों का शरीर न रहने पर भी उनकी मृत्यु नहीं होती। अतएव उनका मरण दिन नहीं स्मरण रखा जाता है और न उस दिन किसी प्रकार का आयोजन होता है।

पारिवारिक संबंधियों के श्राद्ध होते हैं, इसका तात्पर्य पूर्वजों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करना है। इसमें एक उद्देश्य उनके ऋणों से उऋण होना भी है। जो चले गये उन्हें अब न तो ढूँढ़ा जा सकता है और न कृतज्ञता अथवा श्रद्धांजलि स्वीकार करने के लिए वापस बुलाया जा सकता है। संभव श्राद्ध यही हो सकता है कि जिन सत्प्रवृत्तियों से प्रभावित होकर वे हमारी सेवा सहायता करते रहे उनको शाश्वत मानकर अधिकाधिक बढ़ाने के लिए जो सम्भव हो प्रयत्न करते रहा जाय। बड़ों का वात्सल्य, समवर्ग की मैत्री छोटों की आत्मीयता भरी भाव श्रद्धा यह सभी उस सदाशयता के प्रतीक हैं, जिनसे प्रेरित, प्रभावित होकर व्यक्ति कौटुम्बिकता के स्नेह सौजन्य में बँधता है। यदि सत्प्रवृत्तियां कुछ जीवित कर्म दिवंगत व्यक्तियों के साथ पारस्परिक संबंध बनाकर ही समाप्त न हो जाँय वरन् उनका व्यापक विस्तार जन-जन में हो इसी को चेष्टा होती रहनी चाहिए। श्राद्ध यही हो सकता है कि सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन में अपना योगदान सम्मिलित किया जाय। जो अपनी उपयोगिता गँवा बैठे उन पर्वों में कटौती की जानी चाहिए। और जिनकी उपयोगिता प्रेरणा अभी भी यथावत् बनी हुई है उन्हें अपेक्षाकृत और अच्छी तरह मनाया जाय। कुछ लोग कुछ पर्व किसी प्रकार मना लें इसकी अपेक्षा अच्छा है कि उन्हें सार्वजनिक उत्कर्ष का प्रेरणाप्रद माध्यम बनाया जाय। पर्वों की मानवी गरिमा का संदेहवाहक बनकर नये सिरे से निखारना चाहिए।

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Type: TEXT
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