
सच्चा श्राद्ध
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श्राद्ध पक्ष चल रहा था। सन्त एक नाथ ने भी प्रचलित लोकरीति के अनुसार अपने पितरों का श्राद्ध करने का निश्चय किया और कुछ ब्राह्मणों को नियत समय पर अपने यहाँ भोजन के लिये आमंत्रित किया।
सुबह से ही घर में श्राद्ध की रसोई बनने लगी। संत एकनाथ तथा उनकी धर्मपत्नी गिरिजा दोनों पवित्रता, स्वच्छता और सात्विकता का ध्यान रखते हुए षट्रस व्यंजन बना रहे थे। घी, दूध और मिष्ठानों की सुगन्ध घर से बाहर सड़क तक व्याप रही थी। उसी समय सड़क से कुछ महार परिवार गुजरे। शायद उन्हें कई दिनों से ठीक तरह खाना नहीं मिला था। पकवानों की सौंधी सुगन्ध उनकी नाक में से घुस कर क्षुधा को और भी भड़काने वाली सिद्ध हुई। लेकिन अपने नसीब में न जानकर वयस्क महारों ने तो भूख को दबाया, परन्तु बच्चों से रहा न जा सका। एक बच्चा बोल ही उठा-माँ कैसी मीठी महक आ रही है। अहा! कितने बढ़िया-बढ़िया पकवान बन रहे होंगे। काश ये हमें मिल सकें।”
“चुप रह मूर्ख! कोई सुन लेगा तो गालियाँ खानी पड़ेंगी कि निगूढ़ों ने हमारे पकवानों को नजर लगा दी।” बाप ने कहा।
माँ एक गहरा निःश्वास छोड़ते हुए बोली-बेटा! हम लोगों की किस्मत में तो इन चीजों की गंध भी नहीं है। व्यर्थ में मन के लड्डू बाँधने से क्या लाभ।”
माता, पिता और बच्चों में चल रही ये चर्चायें संत एकनाथ जी के कानों में पहुँची। उनका हृदय द्रवित हो उठा। संत की साध्वी पत्नी गिरिजा भी इन बातों को सुनकर महार परिवार को घर में न्यौत लायी और उचित आदर सत्कार सहित उन्हें आसन पर बिठा कर तैयार हो रही रसोई परोसने लगी। महार स्त्री, पुरुष और बच्चे कई दिनों के भूखे थे, इधर पकवानों ने उनकी भूख और भी बढ़ा दी, सो सब तैयार रसोई उनके ही उदर में चली गयी। लेकिन खा-पीकर तृप्त हुए महार-परिजनों ने जिस हृदय से संत एकनाथ तथा गिरिजा को दुआयें दी उससे दम्पत्ति का अन्तस् प्रफुल्लित हो उठा। गिरिजा ने भोजन के बाद यथोचित दक्षिणा देकर उन्हें विदा किया।
नियत समय पर न्यौते गये ब्राह्मण आये। बनायी गयी रसोई तो महारों के काम आ चुकी थी सो अब दुबारा भोजन तैयार करना पड़ रहा था। खाने में विलम्ब होते देखकर ब्राह्मणों से न रहा गया, वे कुड़कुड़ाने लगे।
संत ने कहा-”नाराज न होइये ब्राह्मण देव। रसोई तो समय से काफी पहले तैयार हो चुकी थी। परन्तु देखा भगवान सड़क पर भूखे ही जा रहे हैं। इसलिये उन्हें भोजन कराने में सारी रसोई चुक गयी।” विस्मित ब्राह्मण संत एकनाथ से पूरी घटना सुनकर आगबबूला हो उठे-”तो जिनके छूने से भी कुम्भीपाक लगता है उन्हें तुम भगवान कर रहे हो।”
“वे भगवान ही तो हैं पूज्यवर! कण-कण में उनका वास है, प्राणिमात्र में वे रहते हैं। यदि वे ही भूखे जा रहे हों तो उन्हें तृप्त कर भगवान की सेवा का अवसर हाथ से जाने देने में क्या बुद्धिमानी है?”
इन वचनों ने पंडितों की क्रोधाग्नि में घी का काम किया और वे बोले-”अरे! एकनाथ तुम्हारी बुद्धि तो भ्रष्ट नहीं हो गयी है। एक तो हमारे लिये बनाया भोजन अन्त्यज जनों को खिला दिया और दूसरे उन्हें भगवान सिद्ध का उनसे अपवित्र हुए घर में चौके-चूल्हे पर बना भोजन खिलाकर हमें भी भ्रष्ट करने पर तुले हो।”
संत एकनाथ उसी विनम्रता से अपनी बात कहते रहे परन्तु रूढ़िग्रस्त और दुराग्रही मन मस्तिष्क वाले ब्राह्मणों पर क्या प्रभाव होना था, उठ कर चल दिये। संत एकनाथ ने उन्हें रोका नहीं। माथे पर तिलक लगाये रेशमी वस्त्रधारी उन बहुरूपियों को उन्होंने विनयपूर्वक रवाना किया व सच्चे ब्राह्मण, हृदय से आशीर्वाद देकर गए। उस महार परिवार द्वारा छोड़ा भोजन दोनों पति-पत्नी ने भगवान का प्रसाद मानकर ग्रहण किया। यही सच्चा श्राद्ध था।