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Magazine - Year 1987 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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महायज्ञों द्वारा वायुमण्डल और वातावरण का परिशोधन

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यज्ञ से आत्मोत्कर्ष का प्रयोजन तब पूरा होता है, जब उस क्रियाकृत्य के साथ जीवन को यज्ञ मय बनाने की भावना एवं योजना भी सम्मिलित रहे। यज्ञ से वातावरण का संशोधन होता है, पर यह क्रिया बहिरंग ही न रहे, उसे अन्तरंग में भी गहराई तक प्रवेश होने दिया जाय। चिन्तन चरित्र और व्यवहार में जो भूलें होती रही हैं, उन्हें यज्ञाग्नि में होम देना चाहिए। अपने आप को अग्नि में तपे सोने की तरह खरा बनाना चाहिए। यज्ञ में ऋषित्व और देवत्व प्राप्त करने की प्रक्रिया इसी आधार पर सम्पन्न होती है। स्वर्ग और मुक्ति मिलने का देवताओं का अनुग्रह बरसने का जो माहात्म्य शास्त्रों में बताया गया है, उसमें ज्ञान और कर्म के समन्वय का तत्वज्ञान छिपा हुआ है। यज्ञ एक कृत्य है। जिसका एक अविच्छिन्न अंग अग्निहोत्र हैं, पर वह उतने तक ही सीमित नहीं है। याज्ञिक को अपनी क्षुद्रताओं का-दुष्प्रवृत्तियों का-समापन करना पड़ता है और उस स्थान को खाली न रहने देकर सत्प्रवृत्तियों का संस्थापन एवं अभिवर्धन करने के लिए प्रयत्नरत होना पड़ता है। यह न किया जाय और कर्मकाण्ड भर को सब कुछ मान लिया जाय तो उससे आत्मिक प्रगति का सुयोग न बनेगा। कृत्य के आधार पर रोग, चिकित्सा, वायुमण्डल का परिशोधन, पर्जन्य वर्षा, संकट-निवारण जैसे बहिरंग प्रयोजन ही पूरे होकर रह जायेंगे।

यज्ञ का एक स्वरूप समारोह सत्संग, सम्मेलन भी है। उच्च उद्देश्यों के लिए जो कार्य किये जाते हैं और उनके साथ देवाराधना के रूप में अग्निहोत्र भी जुड़ा रहता है तो वह प्रयास भी ज्ञान यज्ञ के रूप में अभिनंदित किये जाते हैं।

इस प्रकार के आयोजन पूर्वकाल के दो प्रकार के थे। एक बाजपेय, दूसरे राजसूय। बाजपेय धर्म प्रयोजनों में सुधार अभिवर्धन करने के लिए और राजसूय राजनैतिक, आर्थिक, समर्थता, संवर्धन जैसे प्रयोजनों को ध्यान में रख कर किये जाते थे।

पुराने समय में संचार साधन सरल नहीं थे। आवागमन भी कष्ट साध्य था। इसलिए तीर्थ स्थानों में नियत निर्धारित तिथि पर बाजपेय यज्ञ होते थे। देश के हर विभाग की सुविधा को ध्यान में रखते हुए प्रयाग, उज्जैन, नासिक एवं हरिद्वार में कुँभ आयोजनों की व्यवस्था की गई थी। छोटे कुँभ तीन-तीन वर्ष बाद और बड़े कुँभ बारह वर्षों बाद उपर्युक्त स्थानों पर सम्पन्न होते थे। उनमें देश के मूर्धन्य धर्माचार्य भी आते थे और जनता के वरिष्ठ लोग भी काम छोड़कर उनमें सम्मिलित होते थे। जलाशय का स्नान और मंदिरों का प्रतिमादर्शन तो साधारण उपचार था। मूल उद्देश्य सामयिक समस्याओं के लिए विचार मंथन और उनके संदर्भ में जनता का मार्ग दर्शन होता था। आगन्तुक जन समुदाय इसी प्रयोजन में लगा रहता था। पर्यटन तो ऐसी प्रक्रिया है, जिससे इतिहास ज्ञान होता है और पुरातन-काल में घटित हुई घटनाओं से प्रेरणा लेने का लाभ भी साथ-साथ पूरा होता रहता है। वह कभी भी किया जा सकता है। पर तीर्थों में होने वाले आयोजन विशेष रूप से जन मानस को परिष्कृत करने, प्रचलित कुप्रथाओं में सुधार करने के लिए ही होते थे। आगन्तुक उद्देश्य को समझते भी थे और उसी में दत्तचित्त भी रहते थे।

राजसूय यज्ञों को इस प्रकार का समझा जाना चाहिए जैसा कि आजकल विभिन्न राजनैतिक दलों के अपने अपने वार्षिकोत्सव होते हैं। प्राचीन काल में बिखराव के स्थान पर एकीकरण की उपयोगिता समझी जाती थी, इसलिए राजनैतिक क्षेत्र की बिखराव की एक केन्द्र पर केन्द्रीभूत करने के लिए अश्वमेध सरीखे यज्ञ होने थे। अश्व इसलिए छोड़ा जाता था कि प्रदेशों के शासक एक केन्द्र का चक्रवर्ती अनुशासन स्वीकार करें। जो विरोध करते थे उनके साथ केन्द्र की लड़ाई ठनती थी। संगठन पूर्ण हो जाने पर एक केन्द्रीय यज्ञ होता था।

यह धर्मतंत्र और राजतंत्र को समर्थ एवं रमुज्वल बनाने की योजना थी। जो समय-समय पर बाजपेय और राजसूय यज्ञों के नाम से सम्पन्न होती रहती थी।

एक विशेष प्रकार के यज्ञ वैज्ञानिक विधा के अनुरूप होते हैं। इन भेषज यज्ञों का विशेष उद्देश्य वायुमण्डल में प्रदूषण भर जाने से प्रकृति संतुलन डगमगाता था। दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, महामारियों का उद्रेक भूकम्प जैसी दुर्घटनाओं से प्रकृति का बिगड़ा हुआ संतुलन जन साधारण को अनेकानेक त्रास देता था। हानिकारक कृमि कीटक उपज पड़ते थे। अकाल मृत्युएँ होने लगती थीं। इन त्रासों को मिटाने के लिए वायुमण्डल के परिशोधन आवश्यक होते थे और उन्हें बड़े रूप में सम्पन्न किया जाता था।

वायुमण्डल प्रत्यक्ष होता है। वातावरण परोक्ष। परोक्ष अर्थात् सचेतन, बौद्धिक भावनात्मक। दुष्प्रवृत्तियाँ बढ़ चलने से उसका प्रभाव भी छूत की तरह फैलता है और एक का अनुकरण दूसरा करता है। दुष्प्रवृत्तियां के संबंध में यह बात विशेष रूप से लागू होती है। पानी ढलान की ओर बहता है और मन भी दूसरों की दुष्प्रवृत्तियां को अपनाने अनुकरण करने के लिए सहमत, उत्साहित हो जाता है, जबकि ऊँचा उठाने के लिए विशेष प्रयत्न करने पड़ते हैं। वातावरण के प्रदूषण में मनुष्यों का चिन्तन निकृष्टताएँ अपनाता है, चरित्र दुष्ट-दुर्जनों जैसा हो जाता है और व्यवहार में हिंस्र पशुओं जैसी आक्रामकता भर जाती है। इसका संशोधन हुए बिना मनुष्य छोटी-छोटी बातों का लेकर विग्रह पर उतारू हो जाते हैं और अपना, पराया सभी का सर्वनाश करते हैं।

वायुमण्डल की तरह वातावरण की विषाक्तता को भी यज्ञ कृत्यों द्वारा परिशोधन करना पड़ता है।

लंका दमन के उपरान्त असुर दमन तो हो गया था। पर उस युद्ध की तथा इससे पहिले असुरता की दुष्प्रवृत्तियां वातावरण में भरी थी। यदि उनका संशोधन न होता तो नये असुर पैदा होते और जड़ें हरी रहने पर नये अंकुर फूट पड़ते। इस तथ्य पर ऋषियों से विचार करके भगवान राम ने काशी दशाश्वमेध घाट पर दस अश्वमेधों का आयोजन किया था।

ऐसा ही भगवान कृष्ण को भी करना पड़ा था। महाभारत में हुए हत्याकाण्ड और इससे पूर्व कंस, जरासंध शिशुपाल आदि द्वारा फैलाये गये अनाचारों से वातावरण में इतनी दुष्प्रवृत्तियां भर गई थीं कि युद्ध विजय के उपरान्त भी वे दुष्प्रवृत्तियां पनप सकती थी। इस तथ्य पर विचार किया गया और उसका समाधान पाण्डवों द्वारा विशालकाय यज्ञ आयोजन के रूप में हुआ। अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति में यह सहायक भी हुआ।

इससे पूर्व विश्वामित्र, वातावरण में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने के लिए एक विशेष यज्ञ आयोजन कर रहे थे। विश्वामित्र को वैदिक वाङ्मय में गायत्री का दृष्टा माना गया है। उनका यज्ञ भी गायत्री यज्ञ था। ऐसे आयोजनों को निर्विघ्न न होने देने के लिए आसुरी शक्तियाँ विघ्न फैलाती हैं। कृष्ण के ऊपर बचपन से ही आक्रमण आरम्भ हो गये थे, फिर विश्वामित्र का यज्ञ भी असुरता की जड़ें खोदने वाला होने के कारण निर्विघ्न पूर्ण कैसे होने दिया जाता? ताड़का, मारीच सुबाहु अपनी सेना समेत उसे ध्वंस करने के लिए दौड़ पड़े। विश्वामित्र को दशरथ राजकुमारों को यज्ञ रक्षा के लिए ले जाना पड़ा। उनने वह संरक्षण कार्य तो किया ही। साथ ही विश्वामित्र से बला और अतिबला विद्याएँ भी सीखीं। बला कहते हैं सावित्री को, अतिबला कहते हैं गायत्री को। दोनों विद्याएँ सीखने के उपरान्त ही वे शिवधनुष तोड़ने, सिया स्वयंवर करने, लंका को ध्वंस करने एवं राम राज्य की स्थापना में समर्थ हुए। ऐसा ही प्रशिक्षण भगवान कृष्ण को भी उज्जयिनी के संदीपन आश्रम में प्राप्त हुआ था।

पिछले दिनों दो महायुद्ध होकर चुके हैं। वे द्वापर, त्रेता के युद्धों से भी भयंकर थे। उसमें पार्वती जितनी बारूद जली है और करोड़ों की संख्या में लोग हताहत हुए हैं। तब से लेकर अब तक छुट-पुट क्षेत्रीय युद्ध चलते ही रहे हैं और वायुमण्डल तथा वातावरण में विष भरते रहे हैं और वायुमण्डल तथा वातावरण में विष भरते रहे हैं। मद्य, माँस, अनाचार व्यभिचार आदि दुष्कृतों की भी गगनचुम्बी, अभिवृद्धि हुई है। नास्तिकता के कुचक्र में आधी दुनिया आ गई है। विश्व में मूर्धन्य राजनेता, जल, भूगर्भ तथा वायुमण्डल में आणविक विस्फोट कर अणु-युद्ध, अन्तरिक्ष-युद्ध आदि की ऐसी तैयारियाँ कर रहे हैं जिससे धरती पर से मनुष्य का अस्तित्व ही उठ जाय।

ऐसी विषम वेला में आवश्यक था कि किन्हीं बड़े हाथों बड़े संगठनों बड़े साधनों से सहयोगपूर्वक बड़ा द्रव्य यज्ञ तथा ज्ञान यज्ञ किया जाता। पर बिखराव की, अहंता की, क्षुद्रता की, दुष्प्रवृत्ति समूचे वातावरण पर छा जाने से वैसा न बन सका। इतने पर भी गायत्री परिवार ने हिम्मत नहीं हारी है और अपने स्वल्प साधनों को समग्र रूप में झोंककर वह कदम उठाया है, जो भूतकाल में बड़े लोगों ने बड़े आयोजनों के रूप में उठाये थे। अन्तर इतना ही है कि वे एक स्थान पर एक संयोजन के रूप में हुए थे और इन्हें विकेन्द्रित रूप में किया गया है।

मथुरा में हुआ सन् 58 का सहस्रकुंडी गायत्री महायज्ञ जिसमें चार लाख लोग सम्मिलित हुए थे, हजारों वर्षों तक याद किया जाता रहेगा, क्योंकि वह हर दृष्टि से अपने ढंग का अनोखा था। इसके उपरान्त 2400 गायत्री शक्ति पीठों और 10 हजार प्रज्ञा संस्थानों द्वारा उस कार्य को अपनी सामर्थ्यानुसार बराबर जारी रखा गया है। हरिद्वार और मथुरा में तो नित्य गायत्री जप और हवन होता है।

इन दिनाँक 24 लाख गायत्री परिजनों द्वारा एक माला नित्य के हिसाब से 24 करोड़ नित्य गायत्री जप का अनुष्ठान चल रहा है। जो युग संधि के अगले 14 वर्षों तक लगातार चलेगा।

शान्तिकुँज की नौ कुण्डी यज्ञशाला में नित्य गायत्री यज्ञ होता है उसी प्रकार गायत्री तपोभूमि मथुरा में भी। शक्तिपीठों में से अधिकाँश ऐसी है, जो दैनिक या साप्ताहिक यज्ञ क्रम चलाती है।

प्रचारक मण्डलियाँ देशव्यापी दौरे पर जाती हैं और हर आयोजन में सामूहिक यज्ञ होता है। शतकुण्डी यज्ञायोजन इन दिनों देश भर में स्थान-स्थान पर हुए हैं। यह विकेन्द्रीकृत योजना है। इसी को यदि केन्द्रीकृत और दस पाँच दिन के आयोजन के रूप में किया जाता तो त्रेता और द्वापर के यज्ञों की ही समता में जा बैठता, किन्तु परिस्थितियों के साथ आवश्यकता का तालमेल बिठाते हुए वातावरण एवं वायुमण्डल संशोधन की प्रक्रिया अपनाई गई है।

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